कविता

कविता

जो खूनपसीना एक करता

कामयाबी की ओर बढ़ता

अपने पैरों पर खड़े होकर

हर दिलों में हौसला बांटता

सदा अधिकारी उसे दबा देते

अपनी गली से हटा देते

क्योंकि हैं ये सोचते

वह चुनौती बन जाएगा

अपनी सत्ता बिगाड़ देगा

मगर,

जो अधिकारी के तलवे चाटता

कामयाबी का प्राप्त करता

दुम हिलाते फिरतेफिरते

अपना अस्तित्व बनवा लेता

सदा अधिकारी उसे बढ़ाचढ़ाकर

कुर्सियों पर बिठा देते

क्योंकि हैं ये जानते

इनकी सत्ता के आगे

वह ठहर तक नहीं सकता

खुद खड़ा तक नहीं रह सकता

हो कुछ भी, कभी किसी दिन

जो खूनपसीना एक करता

वह स्वयं बनाता अपनी सत्ता

क्योंकि वह परिपेक्षित नहीं

परपैरों बल उठता चलता

 

डी. डी. धनंजय वितानगे, श्री लंका

One thought on “कविता

  • विजय कुमार सिंघल

    बेहतर कविता !

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