धर्म-संस्कृति-अध्यात्मब्लॉग/परिचर्चा

क्या आर्यसमाजी श्रद्धा रहित हैं?

शंका- एक ईसाई भाई ने शंका करी है कि आर्यसमाजियों में श्रद्धा और आस्था नहीं होती इसलिए वह अन्य मतों के विषय में नकारात्मक टिप्पणी करते दीखते है?

समाधान- आस्था और श्रद्धा अगर ज्ञान के बिना हो तो वह अन्धविश्वास कहलाता है। एक उदहारण लीजिये जब वर्षा नहीं होती तो कुछ लोग आस्था के चलते कुत्ते का विवाह कुंवारी लड़की से करते है। यह आस्था हैं मगर बिना ज्ञान की आस्था है। सभी जानते हैं कि शराब बुरी चीज है। जिसे इसकी लत पड़ जाये तो न केवल वह बल्कि उसका पूरा परिवार भी बर्बाद हो जाता है। फिर भी राजस्थान में एक मंदिर में भक्त देवी की मूर्ति पर शराब चढ़ाते है। पूछो तो कहते हैं तुम कौन हमारी आस्था है। गुवहाटी में कामख्या का मंदिर है। हर रोज सैकड़ों मुर्गे, बकरे, कबूतर, भैंसे और न जाने कितने निरीह और निरपराध जानवरों को देवी को अर्पित करने के नाम पर मारे जाते है। पूछो तो कहते हैं तुम कौन हमारी आस्था है। ईसाई समाज में कुँवारी के पेट से पैदा हुई संतान यीशु को मुक्तिदाता कहकर उस अनैतिक सम्बन्ध को ईश्वर कुछ भी कर सकता है कहकर श्रद्धा और आस्था का प्रदर्शन किया जाता है जबकि अनैतिक सबंध अनैतिक ही रहेगा आपके विश्वास या श्रद्धा से  नैतिक नहीं बन जायेगा। मुस्लिम समाज में मुहम्मद साहिब द्वारा चाँद के दो टुकड़े करने जैसी असंभव घटना को आस्था और विश्वास का प्रतीक माना जाता हैं। जब चमत्कार करने की उनकी शक्ति पर यह कहकर प्रश्न किया जाता है कि मुहम्मद साहिब अपने इकलौते नवजात पुत्र के पैदा होने के कुछ ही दिनों बाद मृत्यु होने पर फुट फुट कर क्यों रोये जबकि मृत बालक को वह दोबारा चमत्कार से जीवित कर सकते थे। यह प्रश्न पूछने पर या तो अधिकांश मुस्लिम भाई मौन धारण करने में अपनी भलाई समझते हैं अथवा कहते है की तुम कौन हमारी आस्था हैं।

अन्धविश्वास और आस्था में अंतर समझने के लिए एक अन्य उदहारण लीजिये एक छात्र को अध्यापक गणित का एक प्रश्न पूछता है। छात्र अपनी तुच्छ बुद्धि से अनाप शनाप उत्तर लिख देता है और कहता है जी मेरा ही उत्तर सही है। अध्यापक पूछता है भाई तुम्हारा ही उत्तर सही क्यों है। छात्र कहता है मेरा ही उत्तर इसलिए सही है क्यूंकि मेरी इसमें आस्था हैं, मेरा इसमें विश्वास है। अब अध्यापक उसे कितने नंबर देगा सभी जानते है। सभी मत मतान्तरों की यही हालत है। सभी धार्मिक है,आस्थावान है,ईमानदार है, कर्त्तव्य का पालन करने वाले है मगर चलते अपनी आस्था से है नाकि नियम से चलते है। नियम का निर्धारण यथार्थ ज्ञान से होता है जो सृष्टि के आदि से अंत तक तर्क की कसौटी पर सदा खरा उतरेगा। इसलिए नियम का पालन करना अनिवार्य है और यह तभी होगा तब ज्ञान होगा। जिस प्रकार जिस दिन वह छात्र नियम से गणित की शंका का समाधान निकालेगा उस दिन से उसका सही उत्तर निकलने लगेगा, उसी प्रकार से जिस दिन सकल समाज वेद रूपी ईश्वरीय नियम का, ईश्वरीय ज्ञान का पालन करने लगेगा उसी दिन से समाज अन्धविश्वास को छोड़कर सत्य मार्ग का पथिक बन जायेगा। जिसका जैसा मन किया उसने वैसे ईश्वर की कल्पना करी, जिसका जैसा मन किया उसने वैसे ईश्वर की पूजा करने की विधि की कल्पना करी,जिसका जैसा मन किया उसने वैसे ईश्वर पूजा के फल की कल्पना करी और सभी कल्पनाओं को आस्था के कपड़े पहनाकर उसे धर्म का नाम देकर अपना उल्लू सिद्ध किया। अगर यही धर्म हैं तो फिर उसे अन्धविश्वास का प्राय: कहना कोई अतिश्योक्ति नहीं है।

आर्यसमाजी सत्य के प्रति श्रद्धा और विश्वास रखते है और असत्य का  न केवल स्वयं त्याग करते है अपितु अन्यों को भी त्याग की प्रेरणा देते हैं।

डॉ विवेक आर्य

3 thoughts on “क्या आर्यसमाजी श्रद्धा रहित हैं?

  • महेश कुमार माटा

    जहां अन्धविश्वास आस्था का प्रतीक बन जाय वो वास्तव में बुरी है लेकिन जरूरी नही की हर सन्दर्भ में विज्ञानं की सोच से देखा जाय। समाज में बहुत सी बाते ऐसी होती हैं जो विज्ञानं और गणित से भिन्न हैं हमेशा गणित के उदाहरण सटीक नही बैठ सकते।
    हाँ इसमें कोई संदेह नही की पूरी दुनिया में अज्ञानतावश बहुत सी मनगढ़ंत बाते आस्था का प्रतीक बना दी जाती हैं और मानवता कहीं ग़ुम हो गयी सी प्रतीत होती है। लेकिन वो एक व्हावहरिक पहलु है जिसे मानवीय तरीके से समझ सकते हैं। लेकिन कौन सा धर्म क्या आस्था लेकर चल रहा है वो तो ऐसा विषय है जिस पर संसार के सभी वैज्ञानिक भी बैठ जाएँ तो भी कोई वैज्ञानिक हल नही निकल पाएंगे।
    इसलिए अन्धविश्वास में आस्था के कुछ % को संदेह का लाभ दिया जा सकता ह।
    वैसे आपका लेख अच्छा लगा।

  • गुरमेल सिंह भमरा लंदन

    आप का लेख बहुत अच्छा लगा , मैं भी हमेशा यही बात कहता रहा हूँ लेकिन अक्सर लोग नाराज़ हो जाते हैं . आस्था और यथार्थ में जिमी सामान का फरक है . हिन्दू धर्म के बारे में काफी कुछ जानता हूँ लेकिन मुझे सिख धरम पर बहुत हैरानी होती है किओंकि एक तो यह धर्म बहुत नया है दुसरे इस धर्म में वहम के लिए कोई जगह ही नहीं है लेकिन गुर्दुआरों में छोटी छोटी सी बात पर बहस होती है और कर्म कांडों में फंस कर रह गिया है . बात तो सिम्पल है कि गुरदुआरे में धार्मिक ग्रन्थ में किया लिखा है यह बताना जरुरी है लेकिन सिर्फ पड़ने पर ही जोर दिया जाता है जिस को बहुत कम लोग ही समझ पाते हैं . घर में कोई तकलीफ हो , चलो जी अखंड पाठ करवा दो बस इस में ही फंस कर रह गए हैं . आस्था के सिवा कुछ नहीं है .

    • विजय कुमार सिंघल

      सही कहा भाईसाहब. सनातनी भाई भी घर में कोई संकट होने पर सत्यनारायण की कथा या अखंड रामायण या अधिक सम्पन्न हुआ तो देवी जागरण करवा देते हैं. इस आशा में कि उनका संकट दूर हो जायेगा. पर मैंने ज्यादातर देखा है कि ऐसे घरों में और ज्यादा संकट आते रहते हैं. मूर्खता का परिणाम विनाश के सिवाय कुछ नहीं हो सकता.

Comments are closed.