कविता

राहतें

कड़ाके की ठंड है बाबा
मेरे तो दांत किट्किटा रहे
चार दिनो बाद
सिकुड़ा – सिकुड़ा अलसाया हुआ
बेमन से निकला है आज सूरज
उत्तापहीन ही सही
पर दे रहा मन को ढाढस
बाल्टी भर कपड़ा
छत पर पसार आई
हाथ में पतंग लेकर
बच्चे बाहर ऐसे भागे
मानो जेल से छुटे हो कैदी
गिलहरी ने अखरोट कुतरना छोड़ दिया
इस शाख से उस शाख तक
फुदकने लगी

राहतें छोटी ही सही
मन में बड़ी सी उमंग दे ही जाती है
जैसे त्रासदियों के बाद
दिया जाता है मुआवजा
जिसके सहारे जिंदगी
वापस पुरानी पटरी पर
दौड़ने लगती है !!

***भावना सिन्हा *** !!!!!

डॉ. भावना सिन्हा

जन्म तिथि----19 जुलाई शिक्षा---पी एच डी अर्थशास्त्र

2 thoughts on “राहतें

  • विजय कुमार सिंघल

    वाह वाह !

  • बहुत खूब .

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