ग़ज़ल : तेरी रहमते मौला
क्या कशिश है तेरी निगाहों में,
मिस्ल-ए–हस्ती है तेरी राहों में।
आरज़ू और भी हुई पुख्ता,
जब से पहुंचे हैं कत्लगाहों में।
दर्द से आह भी जो की मैंने,
वो भी शामिल है अब गुनाहों में।
दीद होगी यकीन है मुझको,
ख़ाक बनकर बिछी हूं राहों में।
आखरी हिचकी जब भी आए तो,
काश आये उसी की बाहों में ।
‘प्रेम’ पर तेरी रहमते मौला,
शुक्र है तेरी बारगाहोंमें।
1 कशिश= आकर्षण, 2मिस्ल= समान, 3 आरज़ू= इच्छा, 4पुख्ता= मज़बूत, 5कत्लगाहों=कत्ल करने की जगह, 6 दीद= दर्शन, 7बारगाह=दरबार
बहुत सुन्दर ग़ज़ल !