सामाजिक

उत्तराखण्ड में वेद प्रचार और इसकी प्रमुख ऐतिहासिक आर्य संस्थायें

उत्तराखण्ड भारत का एक प्रमुख सीमान्त राज्य है जिसकी स्थापना 9 नवम्बर, 2000 को हुई। राज्य की स्थापना से पूर्व यह उत्तर प्रदेश राज्य का अंग होता था। इसका पूर्व नाम सयुंक्त प्रान्त था। उत्तराखण्ड में वेद प्रचार का श्रेय महर्षि दयानन्द व उनके द्वारा स्थापित आर्य समाज के निष्ठाावन विद्वानों व प्रचारकों को है। अभी महर्षि दयानन्द धर्म व समाज विषयक सत्य नियमों की खोज कर रहे थे तो उन्होंने उत्राखण्ड को अपने अभिलषित उद्देश्य संसार जीवन का यथार्थ स्वरूप की सफलता में उपयोगी जानकर यहां के पर्वतीय धर्मस्थलों में योगियों व ज्ञानियों की खोज की थी जो मानव जीवन की सभी आध्यात्मिक, धार्मिक, सामाजिक व विविध शंकाओं व प्रश्नों का समाधान कर सकें। वह उत्तराखण्ड के पर्वतों व इतर स्थानों में स्थित सभी प्रमुख निर्जन स्थानों व पर्वतों के शिखर एवं गुफाओं में गये और वहां योगियों व ज्ञानियों की खोज की परन्तु उन्हें बहुत अधिक सफलता प्राप्त नहीं हुई। यहां उन्होंने पुस्तकालयों में सत्य ग्रन्थों की खोज भी की और यहां जो ग्रन्थ उपलब्ध थे, उन पर अध्ययनात्मक दृष्टि डाली। समस्त उत्तराखण्ड की आध्यात्मिक व धार्मिक दृष्टि से गहन छानबीन कर वह अन्य प्रदेशों में चले गये और सन् 1860-63 के वर्षों में मथुरा में दण्डी गुरू प्रज्ञाचक्षु स्वामी विरजानन्द सरस्वती से आर्ष व्याकरण सहित आर्ष ग्रन्थों का अध्ययन किया व उनके महत्व को जाना। देश व विश्व से अविद्या व आध्यात्मिक अन्धकार को दूर कर सद्विद्या व सद्ज्ञान का प्रकाश करने के लिए उन्होंने सन् 1863 में ही वैदिक मान्यताओं का प्रचार प्रसार आरम्भ कर दिया था। इसी क्रम में सन् 1879 के कुम्भ के मेले के अवसर पर वह हरिद्वार आये थे और यहां पाखण्ड मर्दनि वा पाखण्ड खण्डिनी पताका गाड़कर वेदोपदेश व अविद्याजन्य धार्मिक अन्धविश्वासों कुरीतियों का खण्डन किया था।

देहरादून उत्तराखण्ड का प्रमुख नगर रहा है और सम्प्रति राजधानी है। 10 अप्रैल, 1875 को मुम्बई में आर्य समाज की स्थापना के बाद महर्षि को देश भर से वेद प्रचार सहित अविद्या, अन्धविश्वास, पाखण्ड व कुरीतियों के खण्डन के लिए निमन्त्रण मिलने लगे थे। देहरादून से भी उनको श्री पं. कृपाराम स्वामी जी ने निमन्त्रण भेजा गया था। महर्षि पहली बार 14 अप्रैल, सन् 1879 को देहरादून पहुंचे और इतिहास में पहली बार देहरादून के लोग वेदों के सत्य स्वरूप, ईश्वर तथा जीवात्मा विषयक सत्य वैदिक ज्ञान से परिचित हुए। महर्षि दयानन्द का कार्यक्षेत्र यद्यपि समस्त विश्व था परन्तु देश भर में गहन अविद्यान्धकार व अन्धविश्वासों के कारण उन्हें देश भर में भ्रमण करना पड़ा, अल्पकाल में जीवन के अवसान के कारण वह विदेशों में प्रचार नहीं कर पाये। वैदिक मान्यताओं व सिद्धान्तों के प्रचार के साथ-साथ वह ग्रन्थ लेखन, वेदभाष्य, उपदेश व प्रवचन, शास्त्रार्थ, वार्तालाप, शंका समाधान, गोरक्षा व हिन्दी प्रचार अभियान जैसे अनेक कार्यों में व्यस्त रहे। इस कारण सभी स्थानों पर जाकर उनका प्रचार करना सम्भव नहीं था। उन दिनों पंजाब की हिन्दू जनता धार्मिक दृष्टि से कुछ अधिक जागरूक थी, अतः उनका वहां पर्याप्त समय लगा और सफलता भी मिली। वह समझते थे कि भारत की स्वतन्त्र रियासतों में वेद प्रचार करने से अधिक अच्छे परिणाम सामने आ सकते हैं। अतः उन्होंने अनेक रियासतों में जाकर वैदिक सद्धर्म का प्रचार-प्रसार किया। विरोधियों के षड़यन्त्रों के कारण अल्पकाल में ही उनकी मृत्यु हो गई जिससे प्रचार का भार उनके अनुयायियों पर आ पड़ा।

महर्षि दयानन्द की पहली पीढ़ी के प्रमुख अनुयायियों में पं. गुरूदत्त विद्यार्थी, स्वामी श्रद्धानन्द, पं. लेखराम, महात्मा हंसराज, स्वामी दर्शनानन्द सरस्वती, महात्मा नारायण स्वामी, लाला लाजपत राय आदि का प्रमुख स्थान था जिन्होंने महर्षि दयानन्द जी की विचारधारा को प्रभावशाली रूप से आगे बढ़ाया। स्वामी श्रद्धानन्द व स्वामी दर्शनानन्द ने हरिद्वार व ज्वालापुर में गुरूकुल कांगड़ी तथा गुरूकुल महाविद्यालय खोलकर वैदिक विद्वान बनाने व दिगदिगन्त वेद प्रचार का महनीय कार्य किया। आज आर्य समाज का जो विश्वस्तरीय विराट स्वरूप है, उसमें इन दो संस्थाओं को महत्वपूर्ण योगदान है। इन दो गुरूकुलों ने सारे देश ही नहीं अपितु विश्व को भी वैदिक ज्ञान से आलोकित किया है। पं. लेखराम जी भी महर्षि दयानन्द जी के जीवन की खोज करते हुए देहरादून, हरिद्वार सहित उत्तराखण्ड के अन्य स्थानों पर पधारे थे और उनसे जुड़ी घटनाओं का संग्रह कर लौट गये थे जो उनके द्वारा संग्रहित जीवन चरित का अंग बनी हैं। महात्मा हंसराज जी भी हरिद्वार के पाखण्ड खण्डिनी पताका स्थल मोहन राकेश आश्रम से जुडे़ रहे और उन्होंने यहां पर्याप्त समय व्यतीत किया। लाला लाजपतराय जी ने भी देहरादून आदि स्थानों को अपनी चरण रज से पवित्र किया था। महात्मा नारायण स्वामी जी का उत्तराखण्ड से विशेष सम्बन्ध रहा है। उत्तराखण्ड को एकान्त सेवन का सर्वोत्तम स्थान जानकर उन्होंने यहां कुमाऊ मण्डल के रामगढ़ तल्ला स्थान में अपना नारायण आश्रम बनाया था और यहां रहकर साधना, शिक्षा, धर्म प्रचार, समाज सुधार आदि अनेक कार्य किये। नारायण आश्रम के अतिरिक्त आपने हरिद्वार के निकट ज्वालापुर में आर्य वानप्रस्थ आश्रम की स्थापना भी की जो देश भर की अपने प्रकार की अनूठी संस्था है और आज भी सक्रिय होने के साथ सफलतापूर्वक चल रही है। इस लेख में हम महात्मा नारायण स्वामी जी के कार्यों की किंचित विस्तार से चर्चा करना चाहते हैं।

महात्मा जी ने एकान्त सेवन के लिए अयोध्या, हरिद्वार, ऋषिकेश, उतरकाशी स्थानों पर जाकर जलवायु आदि की दृष्टि से उत्तम स्थान की खोज की परन्तु उन्हें यह उपयुक्त प्रतीत नहीं हुए। फरवरी, 1920 में आप नैनीताल आये और आर्य समाज मन्दिर हलद्वानी में निवास किया। डा. रामप्रसाद जी मुख्तार और ठाकुर उदयसिंह जी नायक के साथ आपने भीमताल, विनायक, श्याम खेत, रामगढ़ और अल्मोड़ा आदि अनेक स्थान देखे। अन्त में सबसे अधिक अनुकूल एक स्थान रामगढ़ की पहाडि़यों में प्रतीत हुआ जो वहां नदी के पुल से पूर्व की ओर एक बड़े नाले के संगम के निकट था। वहीं पर आपने कुटि बनाने का निश्चय किया। 1 अप्रैल, 1920 को इस स्थान की रजिस्ट्री आपकी प्रेरणा से संयुक्त प्रान्त वर्तमान का उत्तर प्रदेश की आर्य प्रतिनिधि सभा के नाम कर दी गई। 20 मई, 1920 को आश्रम निर्माण का कार्य भी आरम्भ हो गया। आपने यहां श्री कृष्ण सिंह जी की वाटिका में निवास किया। भोजन के पाचन की समस्या आयी तो आपको एक स्थानीय व्यक्ति ने चाय पीने की सलाह दी। आपने जीवन में पहली बार चाय पी और इससे लाभ मिलने के कारण इसका सेवन आरम्भ करना पड़ा। आपने अनुभव किया यहां पहाड़ के निवासियों के लिए चाय का सेवन आवश्यक है। यहां रहते हुए आपने विद्यार्थियों को संस्कृत, अंग्रेजी सहित धार्मिक विषयों का अध्ययन कराया जिसने एक पाठशाला का रूप ले लिया था।

उन दिनों रामगढ़ में नायक जाति में कुछ रूढि़वादी कुरीतियां प्रचलित थी। इन्हें दूर करने का प्रयास श्री रामप्रसाद मुखतार, नैनीताल और ठाकुर उदयसिंह, रामगढ़ कर रहे थे। महात्मा नारायण स्वामी जी के यहां आ जाने से कार्य ने गति पकड़ ली और एक-दो दिन के अन्तराल पर प्रभावित स्थानों पर जन-जागरणार्थ सभायें होने लगीं।  इस आन्दोलन का ऐसा प्रभाव हुआ कि कुछ दिनों में ही कुरीतियां समाप्त हो गईं। पहले यहां इस जाति की कन्यायों का विवाह नहीं होता था परन्तु अब इन्होंने निश्चय कर लिया कि वह अपनी पुत्रियों का विवाह करेंगे। इस आन्दोलन की प्रथम सफलता तब हुई जब यहां के एक प्रतिष्ठित नायक जाति के श्री नरसिंह दास ने अपनी कन्याओं का विवाह किया। इससे आन्दोलन तीव्र हो उठा। इसके बाद एक के बाद एक विवाह होने लगे और पांच वर्ष में नायक जाति के सभी लोगों ने पूरी तरह से पूर्व अनुचित परम्परा का त्याग कर कन्याओं के विवाह कराने की ईश्वर प्रोक्त वैदिक परम्परा को अपना लिया। अन्य जाति के लोग इनसे विवाह नहीं करते थे अतः इन्होंने अपनी ही जाति में लड़के-लड़कियों के विवाह किये-कराये।

दिसम्बर, 1920 में नारायण आश्रम में कुटी तैयार हो गई थी। एक कमरा 14×12 फीट का था और उस के सामने एक बरामदा 14×6  फीट का। यह कुटी दुमंजिली थी। 8 दिसम्बर, 1920 को महात्मा जी ने इस आश्रम व कुटी में प्रवेश किया था। इससे पूर्व 7 माह तक आप ठाकुर कृष्णसिंह की वाटिका में रहे थे। महात्मा जी यहां कुटि में रात्रि 8 बजे सोकर प्रातः 2 बजे उठ जाया करते थे। 5 बजे तक 3 घंटे आप उपासना योगाभ्यास करते थे। 3 मास के अभ्यास से यह स्थिति गई कि आप 7 मिनट तक प्राणों को रोक लेते थे। इस सफलता ने आपमें प्रसन्नता उत्पन्न की। यहां रहते हुए एक बार आपका बराण्डे में एक रीछ से आमनासामना हुआ और एक बार रात्रि को बघेरा आया और उसने आपके कमरे के दरवाजे पर जोर का थपेड़ा मारा। आप जाग गये। लालटेन जलाकर बाहर आये, वहां कोई नहीं था, बघेरा जा चुका था। प्रातःकाल मालूम हुआ कि एक निकटवर्ती व्यक्ति के एक बछ़डे़ को मार कर वह बघेरा उठा ले गया था। इस घटना का उल्लेख इस लिये किया गया है कि जिससे यह ज्ञात हो सके कि हमारे महात्मा व विद्वान किन परिस्थितियों में साधना करते थे जबकि उनके पास दिल्ली, मुरादाबाद व देश के अन्य भागों में निवास के साधनों का संकट नहीं था।

यहां रहते हुए आपने ऋषिकेश के एक साधू द्वारा बताई गई योग की दो क्रियाओं को लगातार 6 माह तक कर उसे सिद्ध किया और उसके बाद नई क्रिया का अभ्यास करने लगे जो एक वर्ष तक की जानी थी। रामगढ़ में एक बार 12 जून सन् 1935 को सेठ जमुनालाल बजाज अपने परिवार सहित आपके उपदेश श्रवणार्थ पधारे थे। उन दिनों आश्रम में योगदर्शन के आधार पर महात्मा जी के प्रवचन हो रहे थे। आपने परिवार सहित महात्मा जी का प्रवचन सुना और बाद में रामगढ़ के निकटवर्ती स्थान भुवाली लौट गये। हैदराबाद सत्याग्रह जिसके आप सर्वाधिकारी बनाये गये थे, 3 अगस्त, 1939 को सफलता के साथ सम्पन्न हुआ। आप हैदराबाद से चलकर 15 सितम्बर, 1939 को रामगढ़ आश्रम में आ गये। लोगों ने इस गौरवपूर्ण सफलता के लिए आपका सार्वजनिक अभिनन्दन किया। इस सफलता की स्मृति में वहां एक हाई स्कूल खोलने का प्रस्ताव हुआ जिसे क्रियान्वित किया गया। वर्तमान में यह विद्यालय रामगढ़ के निवासियों के लिए एक शिक्षा मन्दिर के रूप में वरदान बना हुआ है जिसमें दो रात्रियों को अपने कुछ मित्रों के साथ निवास करने का हमें अवसर मिला है। सन् 1929 में आपके मार्गदर्शन में स्थानीय व्यक्तियों के सहयोग से रामगढ़ में आर्यसमाज स्थापित हुआ जिसके सत्संग आरम्भ में नारायण आश्रम में ही आयोजित होते थे। यहां निवास के दिनों में महात्माजी द्वारा एक विधवा का एक विधुर के साथ विवाह संस्कार भी सम्पन्न कराया था। यह उन दिनों एक क्रान्तिकारी घटना थी जिससे वह दम्पती अति प्रसन्न थे। अक्तूबर, 1929 में अलमोड़ा में आर्य समाज मन्दिर का महात्मा जी ने उद्घाटन किया। इस मन्दिर का निर्माण रूड़की निवासी श्री मथुरादास ठेकेदार, रईस ने व्यक्तिगत रूप से सात हजार रूपये व्यय करके करवाया था। देहरादून स्थित कन्या गुरूकुल की आधार शिला भी महात्मा नारायण स्वामी के कर कमलों द्वारा सन् 1927 में रखी गई थी। यह गुरूकुल अद्यावधि चल रहा है।

गढ़वाल में शिल्पकार बन्धुओं पर वहां के बहुसंख्यक सवर्ण जाति के बन्धुओं ने अनेक अत्याचार किये। यहां तक की उनके विवाहों में वर-वधू को सवर्णों के मन्दिर व धर्म स्थानों के सामने डोला-पालकी से उतरना पड़ता था। आर्य समाज के प्रयासों से यह सभी बन्धु आर्य बन गये थे और महात्मा जी सहित आर्यसमाज के नेताओं के प्रयासों से सरकार ने शिल्पकार शब्द के स्थान पर इनके लिए जाति सूचक आर्य शब्द का सरकारी दस्तावेजों में संशोधन कर दिया। परस्पर विवाद में शिल्पकार बन्धुओं का पक्ष था कि जब हम मूर्तिपूजा को ही नहीं मानते तो फिर हमारे वर-वधु डोला-पालकी से क्यों उतरें और सवर्णों के पौराणिक मन्दिरों के आगे क्यों झुके। उनका कहना था कि यदि अन्य सवर्ण बन्धु भी हमारे आर्यसमाज मन्दिरों के सामने झुकें तो वह भी उनकी बात मानने को तैयार थे। यह आन्दोलन व संघर्ष ही डोला-पालकी नाम से प्रसिद्ध हुआ। महात्मा नारायण स्वामी ने न केवल इस आन्दोलन में आर्य बन्धुओं को समर्थन दिया अपितु संयुक्त प्रान्त की सरकार के द्वारा इसे बन्द भी करवाया। इसी प्रकार उन्होंने कुमायूं में नायक जाति की बालिकाओं की सुरक्षा के लिए कानून बनवाने के साथ इस अमानवीय प्रथा को उत्तराखण्ड से समाप्त कराया।

आर्य जगत की सुप्रसिद्ध संस्था आर्य वानप्रस्थ आश्रम, ज्वालापुर, हरिद्वार को स्थापित करने का प्रथम विचार लाला खुशीराम रिटायर्ड पोस्टमास्टर, लाहौर के मन में उत्पन्न हुआ था। उसके बाद वेदों के प्रसिद्ध विद्वान पं. तुलसी राम स्वामी इस कार्य को क्रियान्वित करने के लिए सक्रिय हुए थे। ये दोनों व्यक्ति बिना अपने विचारों को क्रियान्वित किए ही संसार से चल बसे। सन् 1926 में महात्मा नारायण स्वामी जी ने हरिद्वार आकर पं. गंगाप्रसाद जी चीफ जज टिहरी के साथ हरिद्वार, कनखल, मायापुर, ज्वालापुर आदि स्थानों में भूमि की तलाश की। ज्वालापुर जहां यह आश्रम स्थित है, की भूमि आपको पसन्द आई। भूमि को खरीद लिया गया जिसकी रजिस्ट्री आर्य प्रतिनिधि सभा, संयुक्त प्रान्त, वर्तमान में उत्तर प्रदेश के नाम कराई गई। इसके साथ आश्रम खुल गया। आरम्भ में महात्मा नारायण स्वामी जी सहित अन्य तीन व्यक्तियों ने अपने लिये कुटियायें बनवाई। वानप्रस्थियों की दिनचर्या क्या हो, इसका भी अच्छा प्रबन्ध महात्मा जी ने कर दिया जिससे वहां निवास करने वाले वानप्रस्थी ईश्वर चिन्तन एवं सेवा कार्य भली प्रकार से कर सकें। यह आश्रम सम्प्रति देश का प्रसिद्ध वृद्ध आश्रम है जहां शताधिक वृद्ध साधक सपत्नीक निवास करते हैं।

महात्मा नारायण स्वामी जी आर्य समाज के नेताओं, विद्वानों व साधकों में उच्च कोटि के बहुआयामी वाले युगपुरूष थे। उनका जीवन अनेकानेक उपलब्धियों से पूर्ण है। वह 14 वर्षों तक सार्वदेशिक सभा के प्रधान भी रहे। हैदराबाद आर्य सत्याग्रह के वह प्रमुख नेता व सर्वाधिकारी थे। शुद्धि, समाज सुधार, गुरूकुल वृन्दावन का संचालन आदि अनेक क्षेत्रों में आपका स्तुत्य व प्रशंसनीय योगदान था। आपके नेतृत्व में मथुरा में महर्षि दयानन्द जन्म शताब्दी का आयोजन भव्य रूप में हुआ था। इसके बाद इस प्रकार का भव्य व सफल आयोजन आर्य समाज में नहीं हो सका। अनेक समारोहों व आन्दोलनों के प्रणेता व अध्यक्ष आप रहे। आपके यश के प्रभाव से ही गढ़वाल व इसके चहुं ओर आर्य समाज का प्रचार प्रसार हुआ व संगठन का विस्तार हुआ। आज उत्तराखण्ड राज्य में आर्यसमाज का संगठन कुछ शिथिल व जीर्ण दृष्टिगोचर होता है। हम समझते हैं कि सम्मेलन आदि करने से उतना प्रचार नहीं होता कि जितना घर-घर जाकर साहित्य वितरण व मौखिक प्रचार से होता है, अतः सभी आर्य महानुभावों को सर्वत्र इसे अपनाना चाहिये।

गढ़वाल में मूर्तिपूजा, अवतारवाद, जन्मना जातिवाद, फलित ज्योतिष, मांसाहार, मदिरापान अनेक सामाजिक विषमताओं के विरूद्ध सघन प्रचार किये जाने की आवश्यकता है। इसके लिए समर्पित विद्वानों, कार्यकर्ताओं नेताओं की आवश्यकता है। प्रत्येक कर्म का फल अवश्य मिलता है। यदि सही प्रकार से प्रचार होगा तो उसका प्रभाव अवश्य होगा। हम यह भी निवेदन करना चाहते कि महात्मा नारायण स्वामी जी की कर्मस्थली रामगढ़-तल्ला का नारायण आश्रम सम्प्रति जीर्ण-शीर्ण, निष्क्रिय, वीरान व उजड़ा हुआ पड़ा है। वहां दैनिक, साप्ताहिक, मासिक व वार्षिक किसी प्रकार की कोई गतिवधि संचालित नहीं होती। यदि वहां एक गुरूकुल खुल जाये और उसका अर्धवार्षिक या वार्षिक उत्सव आदि हों तो इससे इस आश्रम की रक्षा व प्रतिष्ठा हो सकती है। हम आर्य प्रतिनिधि सभा, आर्य नेताओं व आर्य बन्धुओं से विनम्र विनती करते हैं कि इस आश्रम के पुनरूद्धार का प्रयास करें। हम उत्तराखण्ड के सच्चे ऋषिभक्तों को आर्य समाज के हित में एकजुट होकर वेद प्रचार करने की अपील करते हैं।

-मनमोहन कुमार आर्य

2 thoughts on “उत्तराखण्ड में वेद प्रचार और इसकी प्रमुख ऐतिहासिक आर्य संस्थायें

  • Man Mohan Kumar Arya

    आपका विचार उत्तम है। यदि आपके परिवार, पुत्र आदि के निकट कोई अच्छा वृद्ध आश्रम हो तो आपके लिए अनुकूल हो सकता है। कभी हरिद्वार आना हो तो यहाँ का वानप्रस्थ आश्रम, ज्वालापुर भी देख सकते हैं। अवकाश में कुछ दिन रहकर यहाँ अनुभव ले सकतें हैं। अनुमान है कि यहाँ स्थाई निवास कठिनता से मिलता है। हमारे कई सेवानिवृत मित्र अपने परिवारों में ही रह कर स्वाध्याय, योगाभ्यास आदि करते है एवं संतुष्ट जीवन व्यतीत कर रहें हैं।

  • विजय कुमार सिंघल

    बहुत जानकारी पूर्ण लेख. मैं भी अवकाश प्राप्ति के बाद शान्त सेवापूर्ण जीवन बिताना चाहता हूँ. आपका क्या सुझाव है? कृपया मार्गदर्शन दीजिये.

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