भाषा-साहित्य

विश्वमानव बसवेश्वर और आधुनिक युग : जमीन आसमां का अंतर

“ न करो चोरी, न करो हत्या

न बोलो मिथ्या, न करो क्रोध

न करो घृणा, न करो प्रशंसा अपनी

न करो निंदा दूसरों की,

यही है अंतरंग शुध्दि यही है बहिरंग शुध्दि ॥“

महात्मा बसवेश्वर के इस वचन को पढते ही हम गहरी सोच में पड जाते हैं कि आज के इस आधुनिक युग में चोरी, हत्या, झूठ, घृणा, निंदा ये सब बाते आम बन गयी है । जबकि बसवेश्वर चाहते थे ये सब न हो । आज इस धरती पर चारों ओर अशांति, अराजकता, आतंकवाद फैल चुका है, नरसंहार का तांडव मचा हुआ है । कोई किसी की सहायता नहीं करता, किसी पर दया नहीं दिखाता, वाणी कठोर बन गयी है, दिल भी कठोर बन गया है । आज करुणाहीन मानव को दूसरों की छोडिए भगवान का भी भय नहीं है । इसीलिए महामानव बसवेश्वर कहते हैं –

“ दया बिन धर्म वह कौन सा धर्म है ?

दया होनी चाहिए सभी प्राणियों के प्रति

दया ही धर्म का मूल मंत्र है

दया विहीन को कभी न चाहेगा

कूडलसंगमदेव ॥“

श्री बसवेश्वर १२ वीं सदी के अत्यंत प्रखर एवं प्रभावी समाज सुधारक मात्र न थे, बल्कि संपूर्ण विश्व परिवर्तन के शक्तिपुरुष थे । गुरुवर्य बसवेश्वर जी का जन्म सन ११३४ में कर्नाटक के बिजापुर जिले के बसवन बागेवाडी में हुआ । उनके पिता का नाम मादरस और माता मादलांबिके । बसवेश्वर जी बाल्यकाल से ही अत्यंत प्रतिभावान और सुसंस्कृत व्यक्ति थे, आगे वे कल्याण-नगरी के राजा बिज्जल के प्रधानमंत्री और महादंडनायक बने । सामाजिक एवं धार्मिक असमानता के कारण भौतिक संसार से मन उड गया, सामाजिक एवं धार्मिक सुधार का बीडा उठा लिया और विश्वमानव बन गया । क्योंकि उन्होंने जब सामाजिक एवं धार्मिक सुधार की परिकल्पना लेकर आंदोलन छेडा तब कर्नाटक या भरत में ही  नहीं अपितु संपूर्ण विश्व को ही उसकी अत्यंत आवश्यकता थी ।

आज सारे विश्व में असमानता, असहकार, अमानवीयता इतनी फैल चुकी है कि कोई चैन से जी नहीं पा रहा है । हर कोई दूसरों की बुराई करने में लगा हुआ है, अपने दोष या अपराध छिपाने के लिए दूसरों की ओर इशारा करता है । अपनी जिम्मेदारियाँ भूला बैठा है आज का मानव ।

“ लोक का टेढापन आप क्यों सीधा करते हैं ?

आप अपना तन संभालिए

आप अपना मन संभालिए

पडोसी के दुख के लिए रोनेवालों पर

कभी न प्रसन्न होंगे कूडलसंगमदेव ॥“

आम आदमी हो, राजा-रंक हो, साधु-संत हो सभी को एक ही तराजू में तौल रहे हैं । किसी भी व्यक्ति के गुण-दोष समयानुसार प्रकट होते हैं, पर आजकल व्यक्ति को देखते ही उसके बारे में निष्कर्ष पर पहुँचने का भूल करते हैं । संसार में सभी लोग बुरे नहीं होते, सिर्फ हमारी नजरिया वैसी होती होती । जातिभेद मतभेद करनेवालों के संबंध में महात्मा बसवेश्वर जी का एक वचन प्रसिध्द है-

“ जीव हिंसा करने वाला ही चमार

गंदा खाने वाला ही मेहतर

कुल कैसा, उनका कुल कैसा ?

सकल जीवों का भला चाहने वाले

कूडलसंगमदेव के शरण ही कुलज ॥”

विश्वमानव बसवेश्वर जी धार्मिक भेद-भाव, जाति-पांति करनेवालों के कट्टर विरोधी थे । जिस उच्च जाति में उनका जन्म हुआ उसको त्यागकर निम्न जाति की ओर झूकते हैं । भेद-भाव करवालों को चेतावणी देते हैं –

“ वेद पर चलाउँगा तलवार, शास्त्र को पहनाउँगा बेडी ।

तर्क की पीठ पर चलाउँगा चाबुक, आगम की काटूँगा नाक ॥“

श्री बसवेश्वर जी का जो अनुभव था वह नितांत था, उस अनुभव में दूरदृष्टिता थी । हम हमेशा नाक के नीचे मात्र देखते हैं, परंतु श्री बसवेश्वर जैसे महान समाज सुधारक बहुत ही आगे के बारे में सोचकर समाज को बचाना चाहते थे, अनाचार से मुक्त करना चाहते थे । अंधविश्वास में जकडकर मानव भूलभूलैया बन गया है । अपने आराद्य दैव की भी चिंता न करके, पशु-पक्षियों की बली देता है । ऐसे संदर्भ में श्री बसवेश्वर जी ने कहा है-

“ पत्थर का नाग देखा

तो ’दूध चढा दे’ कहते हैं ।

जीता नाग देखा

तो ’जान से मार दे’ कहते हैं ॥“

महात्मा बसवेश्वर के क्रांतिकारी विचार विचार धारा से वह समकालीन समाज तो कुछ हदतक बदल गया था । लेकिन उनके विचार आज के इस जटिल परिस्थिति को सुधारने में बहुत ही प्रमुख पात्र निभाते हैं । क्योंकि सामाजिक बदलाव की जो प्रक्रिया चल पडी उसमें कबीर के बाद बसवेश्वर ने ही अटूट नींव रखी है । अत्यंत सरल एवं सहज बातों द्वारा सामाजिक परिवर्तन लाने का प्रयास बसवेश्वर ने की है । जैसे-

 

“ सत्य बोलना ही देवलोक

असत्य बोलना ही मर्त्यलोक

आचार ही स्वर्ग, अनाचार ही नरक ॥“

श्री बसवेश्वर ने एक आदर्श धर्म एवं समाज की कल्पना की थी, साकार हुआ या न हुआ ये तो दूसरी बात है या तो हमारा दुर्भाग्य है । जिस समाज में या धर्म में शोषण न हो, जात-पात का भेद-भाव न हो, स्त्री-पुरुषों में असमानता न हो, घृणा-निंदा न हो तो मान लीजिए ऐसा समाज, ऐसा धर्म यहाँ हो तो निश्चित ही स्वर्ग निर्माण होगा । श्री बसवेश्वर के वचनानुसार, उनके पदचिन्हों पर चलेंगे तो शायद जमीन आसमां का अंतर हम कम कर पायेंगे ।

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  • संदर्भ :-

१. ’बसवेश्वर के चुने हुए १०८ वचन’ क्रमांक-८, -डॉ. टी.जी. प्रभाशंकर प्रेमी

२. ’बसवेश्वर के चुने हुए १०८ वचन’ क्रमांक-२, -डॉ. टी.जी. प्रभाशंकर प्रेमी

३. बसव मार्ग पत्रिका पृ.४०, अक्तूबर-दिसंबर २००५

४. बसव मार्ग पत्रिका पृ.५८, अक्टुबर-दिसम्बर २०१३

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डॉ. सुनील कुमार परीट

नाम :- डॉ. सुनील कुमार परीट विद्यासागर जन्मकाल :- ०१-०१-१९७९ जन्मस्थान :- कर्नाटक के बेलगाम जिले के चन्दूर गाँव में। माता :- श्रीमती शकुंतला पिता :- स्व. सोल्जर लक्ष्मण परीट मातृभाषा :- कन्नड शिक्षा :- एम.ए., एम.फिल., बी.एड., पी.एच.डी. हिन्दी में। सेवा :- हिन्दी अध्यापक के रुप में कार्यरत। अनुभव :- दस साल से वरिष्ठ हिन्दी अध्यपक के रुप में अध्यापन का अनुभव लेखन विधा :- कविता, लेख, गजल, लघुकथा, गीत और समीक्षा अनुवाद :- हिन्दी-कन्नड-मराठी में परस्पर अनुवाद अनुवाद कार्य :- डाँ.ए, कीर्तिवर्धन, डाँ. हरिसिह पाल, डाँ. सुषमा सिंह, डाँ. उपाध्याय डाँ. भरत प्रसाद, की कविताओं को कन्नड में अनुवाद। अनुवाद :- १. परिचय पत्र (डा. कीर्तिवर्धन) की कविता संग्रह का कन्नड में अनुवाद। शोध कार्य :- १.अमरकान्त जी के उपन्यासों का मूल्यांकन (M.Phil.) २. अन्तिम दशक की हिन्दी कविता में नैतिक मूल्य (Ph.D.) इंटरनेट पर :- www.swargvibha.in पत्रिका प्रतिनिधि :-१. वाइस आफ हेल्थ, नई दिल्ली २. शिक्षा व धर्म-संस्कृति, नरवाना, हरियाणा ३. यूनाइटेड महाराष्ट्र, मुंबई ४. हलंन्त, देहरागून, उ.प्र. ५. हरित वसुंधरा, पटना, म.प्र.

One thought on “विश्वमानव बसवेश्वर और आधुनिक युग : जमीन आसमां का अंतर

  • विजय कुमार सिंघल

    जानकारी पूर्ण लेख !

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