सामाजिक

प्रतिकार

प्रतिकार यानि विरोध की संस्कृति जब से जीव-मात्र ने जीवन पाया है यह प्रवृत्ति अपने आप ही जन्मानुगत ही उसमे पायी जाती है| इंसान क्या जानवर भी विरोध की संस्कृति से बखूबी परिचित है. खैर हम तो इंसानों की बस बात करेंगे | प्रतिकार करना उसका मुलभूत स्वभाव है |
बच्चा जन्म लेते ही प्रतिकार करना सीख जाता है उसके मन मुताबिक चीज न हो तो वह रोकर अपना प्रतिकार दर्ज कराता है |

प्रतिकार ऐसी ताकत है जिससे हम सामने वाले को उसकी गलती का अहसास दिला सकते है | पर इसका उग्र रूप बहुत ही घातक होता है | उग्रता में हम अपनी सीमा भूल जाते है | सीमा का उलंघन होते ही हमारा दिमाक भी प्रतिकार करता है पर हम क्रोध में अंधे हो चुके होते है | भावहीन हो जाते है जिससे दिमाक का वह प्रतिकार हम महसूसते ही नहीं |

शान्तिमय प्रतिकार में बहुत ताकत है पर यह एक होम्योपैथी इलाज की तरह है जो समय लेता है सामने वाले को उसकी गलती का अहसास करने के लिय | पर समय तो हममें से किसी के पास होता कहाँ है | हमारी जल्दी सुनी जाये अतः हम आक्रामक प्रतिकार की संस्कृति अपनाते है जो एलोपैथी जैसा काम करती है| पर लोगो की नजर में हमे उदण्ड भी बना देती है |

आदमी की सहनशक्ति ख़त्म सी हो रही है अतः वह आक्रामक हो प्रतिकार करता है | हर गली -मोहल्ले में ,हर बात पर | उसका यह आक्रामक प्रतिकार प्रतिकार की संस्कृति के प्रतिकूल हो जाता है |जिससे वह असर नहीं होता जो होना चाहिए | सड़क पर प्रतिकार करते लोग आम जन से भिड़ते ही रहते है यह आम बात है | सरकारी संपत्ति को नुकसान पहुंचा कर प्रतिकार दर्ज करना कौन सी बहादुरी का काम है | संसद घेरना, चीखना -चिल्लाना ,आगजनी , मर पीट करना ये सब तो स्वस्थ प्रतिकार की संस्कृति तो नहीं फिर भी जयादातर ऐसे ही कर रहें हैं | ‘संयत रहिये तो ही स्वस्थ रहेंगे ‘ प्रतिकार करने वालो को यह युक्ति अपनानी चाहिए |

पांच -छ साल से ये वेलेंटाइन डे क्यों इतनी महत्व पा रहा है क्योकि हम इसका जबरजस्त विरोध कर रहें है| हम इसे दबाने में प्रतिकार कर रहें तो इसके समर्थक इसे उभारने में प्रतिकार | दोनों ही प्रतिकार अमर्यादित है जिसके कारण फायदा के बजाय नुकसान हो रहा हैं | दोनों ही तरफ से प्रतिकार की संस्कृति अपनाने के कारण आज बच्चे -बूढ़े सभी नर नारी के जुबान पर यह डे हैं | वर्ना कौन जनता था किस चिड़िया का नाम है |अमर्यादित डे को हर युवा अपना भारतीय संस्कृति को कुटिलता से कुचल रहा है|

प्रतिकार की संस्कृति जो हमारी ताकत है उसे हमारी कमजोरी बना फ़िल्मवाले इस्तेमाल कर रहे है और हम अन्जान होने के कारण इस्तेमाल हो रहें है | कोई न कोई विवादित क्षण मूवी में डालो जनता प्रतिकार कर अपने आप प्रचार कर देंगी| हमें सोचना होगा कहीं हम महज कठपुतली तो नहीं|

भीड़ में प्रतिकार करते किसी भी व्यक्ति से यदि सवाल किया जाये कि आप प्रतिकार किस चीज का कर रहें है तो शायद ही २० में से आठ ही यह बता पाए कि मूल कारण क्या है जिसका हम प्रतिकार कर रहें | बस देखा देखी पाप ,देखा देखी पुण्य की राह पर चल पड़ते है अंधे -बहरे-गूंगे बन | जो अप्रत्यक्ष रूप से प्रतिकार की संस्कृति को क्षति पहुंचाता है |

अब इसका मतलब यह तो कदापि नहीं कि आपके घर के सामने कोई लाकर ठीक दरवाज़े पर गाड़ी खड़ी कर दें पर आप दबते-दबाते किसी तरह निकल जाये प्रतिकार करें ही न | या आपके दरवाजे पर कोई पान थूंक जाये पर आप मूक दर्शक बने रहें है | प्रतिकार करना हमेशा मुलभूत अधिकार है बस उसका दायरा कहाँ कब शुरू होता है और कहाँ ख़त्म यह समझने की बात है |

आज की युवा पीढ़ी ना जाने किस ओर भाग रही है |रोकने-टोकने पर यही ‘प्रतिकार’ को हथियार बना लेती है | न जाने कैसी आजादी चाहिए | कोई उनसे कहें तो कि बेटा आजाद तो तुम जन्म से पहले भी न थे जन्म के बाद भी | कोख में माँ ने तुम्हारी एक सीमा तय कर रखी थी और शैशवावस्था में भी | हा प्रतिकार होता था पर वो प्रतिकार सही दिशा में है या नहीं यह निश्चित माँ-बाप ही करते थे |

आज वैश्विक व्योसायिक हवा में झूलते जिस झूले में बैठ लोग आसमान का सफ़र करना अपना अधिकार बता रहें है वह झुला दरअसल एक कमजोर डोरी से बना है जो उनके थोड़ा सा उप्पर जाते ही टूट जाता है |और वो फिर इसी धरातल आ गिरते है जो उनकी अपनी भारतीय संस्कृति है | आज जो भारतीय संस्कृति को हेय दृष्टि से देख प्रतिकार कर रहे है कल इसी की गोद में आराम करना पसंद करेंगे| जैसे बच्चा कितना भी उछल-कूद, शरारत कर ले पर अंततः माँ की गोद में सर रख ही सो सुकून पता है | क्लब में थिरकना ,शराब -अफ़ीम-गांजा का सेवन करना, बेहुदे कपड़े पहनना ये सब अपनाने के बाद सब छटपटाते है इनसे बहार आने को चाहते है पर अँधेरी गुफा में जाने का रास्ता तो बहुत सरल है पर निकलने का उतना ही कठिन|

हरे-भरे फल से लदे राजनितिक बृक्ष पर भी लोग प्रतिकार कर कार चढ़ जा रहे है | चढ़ते ही संयम प्रतिकार किस चिड़िया का नाम है भूल मशगुल हो जाते है फल-फूल अपनी झोली में डालने में | गलती उनकी कहाँ ,गलती तो हमारी है जो हर उल्टा-सीधा ढंग से प्रतिकार करने वाले को हम युग पुरुष समझते है क्योकि हमारे अंतस के कोने में बैठे प्रतिकार के राक्षस को वह आवाज दे रहा हाई | विरोध का राक्षस तो अपने भी अंतस में तांडव कर रहा पर हमे अपनी सीमा पता है उस सीमा से बाहर निकल उदण्ड रूप से प्रतिकार करना हमारी मर्यादा के खिलाफ है |

अब तो प्रतिकार भी शायद प्रतिकार करने लगा है कि..
मुझे वीभत्स मत बनाओ
संयत रूप में अपनाओं
बदल डरावना रूप अपना
भारतीयता तुम अपनाओं |

एक गीला कपड़ा आग के पास भी लाओ तो तब तक नहीं जलता जब तक गीला रहता है | ज्यादा समय सानिध्य में रखने पर सूखते ही झट आग पकड़ लेता है | उस समय पानी डाल बुझाना हमारी जिम्मेदारी है | आज यदि हम इस ज़िम्मेदारी को पूरी नहीं करते तो कल सब कुछ जल ख़ाक हो जायेगा | फिर तो आग के ढेर पर बैठ रोने के सिवा कुछ ना मिलेगा |

प्रतिकार की संस्कृति के जरिये हम भारतीय संस्कृति को बचाने का प्रयास करना चाहीये | हा एक दायरे में हो यह नहीं की एक मर्यादा बनाये रखने के लिय दूजी मर्यादा तड़ी जाये | प्रतिकार की संस्कृति को संस्कृति के ही रूप में अपनाये तो वह दिन दूर नहीं जब सभी इस संस्कृति के पक्षधर होंगे | आखिर मर्यादित रहना हमारी संस्कृति है और मर्यादा में रह विरोध हमारा जन्मसिद्ध अधिकार |

चीख चीख कर रहा जो तू प्रतिकार
उदण्ड मवाली कह आवाज़ दबा देंगी सरकार
वैश्विकता का मर्यादा में रह कर विरोध
कन्धे से कन्धा मिला तब चलने वालो की होगी भरमार |

सविता मिश्रा

*सविता मिश्रा

श्रीमती हीरा देवी और पिता श्री शेषमणि तिवारी की चार बेटो में अकेली बिटिया हैं हम | पिता की पुलिस की नौकरी के कारन बंजारों की तरह भटकना पड़ा | अंत में इलाहाबाद में स्थायी निवास बना | अब वर्तमान में आगरा में अपना पड़ाव हैं क्योकि पति देवेन्द्र नाथ मिश्र भी उसी विभाग से सम्बध्द हैं | हम साधारण गृहणी हैं जो मन में भाव घुमड़ते है उन्हें कलम बद्द्ध कर लेते है| क्योकि वह विचार जब तक बोले, लिखे ना दिमाग में उथलपुथल मचाते रहते हैं | बस कह लीजिये लिखना हमारा शौक है| जहाँ तक याद है कक्षा ६-७ से लिखना आरम्भ हुआ ...पर शादी के बाद पति के कहने पर सारे ढूढ कर एक डायरी में लिखे | बीच में दस साल लगभग लिखना छोड़ भी दिए थे क्योकि बच्चे और पति में ही समय खो सा गया था | पहली कविता पति जहाँ नौकरी करते थे वहीं की पत्रिका में छपी| छपने पर लगा सच में कलम चलती है तो थोड़ा और लिखने के प्रति सचेत हो गये थे| दूबारा लेखनी पकड़ने में सबसे बड़ा योगदान फेसबुक का हैं| फिर यहाँ कई पत्रिका -बेब पत्रिका अंजुम, करुणावती, युवा सुघोष, इण्डिया हेल्पलाइन, मनमीत, रचनाकार और अवधि समाचार में छपा....|

2 thoughts on “प्रतिकार

  • विजय कुमार सिंघल

    बहुत अच्छा लेख, बहिन जी.

  • विभा रानी श्रीवास्तव

    सार्थक लेखन ….. स्नेहाशीष बच्ची

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