संस्मरण

मेरी कहानी – 4

मेरे बचपन के दोस्तों की लिस्ट तो बहुत बड़ी है लेकिन फिलहाल मदन लाल जिस को  मद्दी बोलते थे और तरसेम का ज़िकर ही  करूँगा। मद्दी का घर हमारे घर के बिलकुल सामने था। मद्दी के पिता जी मलावा राम तीन भाई थे और मलावा राम के दो बड़े भाई थे बाबू राम और रखा राम। सिर्फ मलावा  राम की ही शादी हुई थी। कारण यह ही था कि उन दिनों में भी आज कल के हरयाणा और पंजाब जैसी स्थिति थी, यह मुझे बहुत बाद में मालूम हुआ। आज जो भ्रूण हत्या की समस्या है वोह उस ज़माने में  इस से भी ज़्यादा होती थी , ख़ास कर गाँवों में। लड़कों और लड़किओं का अनुपात आज जैसा ही था। ऐसा सुना था कि जब लड़की पैदा होती थी तो दाई उस के मुंह में अक्क के दूध के कुछ कतरे डाल  देती थी , यह अक्क का बूटा जो पंजाब में बहुत होता था, और इस के पत्ते को तोड़ने से उस में से दूध निकलता था जो जहरीला होता था। बाद में लोगों को कह देते थे कि लड़की मरी  हुई पैदा हुई है।  इसी लिए लड़किआं कम  होने के कारण   गरीब लड़कों की शादी बहुत मुश्किल से होती थी। अगर एक की शादी हो जाती तो उस की घरवाली का दर्जा द्रोपदी जैसा ही होता था ।

एक और कारण भी था कि ज़मीन की तकसीम न हो और सभी का गुज़ारा हो सके। देखने को तो एक  भाई की शादी होती थी लेकिन सब लोग जानते होते थे कि उन की स्त्री द्रोपदी जैसे ही है. कुछ लोग बाहिर से भारत के गरीब लोगों से लड़किआं खरीद लाते थे और उस से शादी रचा लेते थे। अक्सर उन लडकीओं  की बोली हिंदी या कोई और जुबानं  होती थी। जब वोह पंजाबी हिंदी की मिक्स भाषा बोलती तो लोग बहुत हँसते थे । ऐसी पांच शादियां हमारे गाँव में भी थी। धीरे धीरे उन के बच्चे हो गए और अच्छी तरह सोसाइटी में मिक्स हो गई थीं। बहुत दफा हम मद्दी के घर खेलते खेलते वहां ही सो जाते। मद्दी की माँ रतनी हम को खेलते देख बहुत खुश होती।

बहुत दफा मद्दी के मामा जी का लड़का अपने गाँव से आ जाता, जिस का नाम था विनोद। यह लड़का कुछ देर आता रहा और फिर पता नहीं कहाँ गुम  हो गिया लेकिन जब मिला तो उस वक्त जब हम शहर के स्कूल में मैट्रिक में पड़ते थे। विनोद से हमारी मिलनी भी अजीब ढंग से हुई। हम चार दोस्त शहर में जब घुमते तो जीटी रोड पर यहां भी कोई इकठा या मजमा लगा होता हम वहीँ चले जाते। यह मजमा लगाने वाले लोग बहुत हुशिआर होते थे, यह तरह तरह की जड़ी बूटीआं बेचते, उन के गुण ऐसे ढंग से बताते कि बहुत लोग उन्हें  खरीद लेते। कई दफा हम दोस्त उनकी बातों का मज़ाक करने लगते तो वोह इशारा करते और कहते कि भाई! “मेरा काम न खराब करो ” हम हँसते हँसते स्कूल को वापिस चले जाते।

एक दिन इसी तरह विनोद ने  भी  मज़मा लगाया हुआ था। मुझे नहीं पता था कि यह विनोद ही था क्योंकि बचपन के बाद कभी देखा ही नहीं था। विनोद कोई राजे रानी की कहानी सुना रहा था लेकिन ऐसे ढंग से जिस में अश्लीलता थी और लोग सुन कर हंस रहे थे। जब काफी लोग जमा हो गए तो फिर उस ने अपने बैग से बहुत सी दवाओं की शीशिआं  निकाली और उन शीशिओं को बीस बिमारिओं की एक दवाई कह कर बेचने लगा। मेरा दोस्त बहादर सिंह जिस की वजह से कुछ साल बाद  मैं इंग्लैण्ड आया था मुझे  केहने लगा “यार मेरे बाबा जी के घुटने बहुत दर्द करते हैं क्या मैं भी एक शीशी ले लूँ ?” मैंने कहा ” तेरा दिमाग तो खराब नहीं हो गया यह सब धोखा है ” लेकिन बहादर ने एक रूपया निकाला और शीशी ले ली।

फिर विनोद अपने  लीफ़लैट लोगों में बांटने लगा कि अगर उन को और दवाई की जरुरत पड़े तो उस लीफ़लैट पर लिखे पते पर संपर्क कर सकते हैं। जब मैं ने उस लीफ़लैट पर विनोद शर्मा लिखा देखा तो उस के पास गया और बोला ” यार ऐसा लगता है मैंने कहीं तुम को देखा है ” उस ने मुझे मेरे गाँव का नाम पुछा तो मैंने राणी पुर बताया। विनोद बोला, ” यार तू गुरमेल तो नहीं है” जब मैंने हाँ कहा तो वोह मेरे गले लग गिया। फिर उस ने एक रूपया निकाल कर बहादर को दे दिया और हंस कर कहने लगा, इस शीशी में समझ लो कूड़ा करकट ही है, कभी भी किसी से ऐसी चीज़ नहीं खरीदना। फिर उस ने राणी पर ना आने का कारण बताया कि वोह घर से भाग गया था और ऐसे धंधे सीख लिये कि इस में कमाई अच्छी हो जाती थी, सिर्फ बात करने का जादू ही होता था।

तरसेम की कहानी भी अजीब थी। बुआ परतापो का पति जिस का नाम था भूपिंदर सिंह लोग उन को भूपा ही कहते थे। वोह तरखान भी था और लुहार भी, बहुत कारीगर था। उस की एक वर्कशॉप थी जिस को कारखाना कहते थे। सभी खेती करने वाले जट्टों का काम वोह ही करता था। तरसेम के पिता जी जब छोटे थे तो भूपे से काम सीखने लगे। सीखते सीखते बहुत बड़े कारीगर बन गए। अचानक एक दिन भूपे को छाती में  दर्द हुआ और यह दुनिआ छोड़ गिया। बुआ परतापो का कोई सहारा न रहा। विधवा विवाह का रिवाज नहीं था, इस लिए लोगों के कहने पर तरसेम के पिता जी ने कारखाने का काम संभाल लिया और जितनी आमदनी होती उस में से आधा भुआ परतापो का हिस्सा होता और आधा तरसेम के पिता जी का। तरसेम के पिता जी की शादी हो गई और उन के तीन बच्चे हुए- तरसेम, अवतार और एक बेटी जिस का नाम था तारो।

आज जब कभी मैं उस ज़माने का और आज का मुकाबला करता हूँ तो सोचता हूँ कि वोह  सभ्यता अब कहाँ गई? परतापो भुआ के मरने तक तरसेम के पिता जी ने भुआ को कोई तकलीफ नहीं उठाने दी। इतना ईमानदार था तरसेम का पिता कि लकड़ीओं से उतरे हुए छिलके जिस को सक्क बोलते थे तकड़ी  से तोल कर आधे आधे बांटते। और बुआ उनको बेच कर अपने घर के लिए कोई चीज़ खरीद लेती। तरसेम के पिताजी बहुत धार्मिक थे।  हर सुबह शाम पाठ करते और संक्रांत के दिन गुरदुआरे में परसाद हमेशा वोह ही तैयार करते।

वैसे तो तरसेम ज़्यादा बुआ के साथ ही रहता था लेकिन उन का अपना घर तीसरे मुहल्ले में था जिस को रामगरीआ मुहल्ला बोलते थे।  उस उमर में हम आज़ाद पंछी की तरह होते थे, जिधर मन चाहा उधर ही चल दिए।  कभी कभी हम तरसेम के घर चले जाते। तरसेम का घर छोटा था लेकिन बहुत तरतीब से बना हुआ था। घर में दाखिल होते ही छोटा सा आँगन और उस में ही रसोई घर, उसी से ही छत को एक लकड़ी की सीढ़ी लगी हुई थी। फिर आगे जा कर एक बड़ा कमरा था और साथ में ही एक स्टोर रूम था। छत पर एक कमरा और वैरान्डा था। तरसेम के इस घर में मैंने बहुत अच्छे दिन बिताए थे।

तरसेम  की माँ हमें बहुत पियार से गर्म गर्म रोटीआं खिलाती। घर की सफाई भी बहुत थी, रसोई के बर्तन जो पीतल के होते थे हमेशा चमकदार और तरतीब से सजाये होते थे और यह सब कैसे एक औरत कर सकती थी जब कि वोह अँधी थी। वोह जनम से ही अंधी थी और यह जानते हुए भी तरसेम के पिताजी ने उस से शादी कर ली थी। मुझे याद है, जब वोह कुछ सोचती तो उस की आँखें जो बिलकुल सफ़ेद थी इधर उधर घुमाती और उसे देख कर कुछ अजीब सा लगता। मैंने तरसेम के पिता जी और माता जी को कभी भी झगड़ते हुए नहीं देखा बल्कि आपस में हँसते हुए ही देखा था। कितना प्रेम था उन का आपिस में !

लेकिन उस विचारी के अंतिम दिन बहुत मुश्किल से बीते। उस के गले पर कोई कुछ ऐसे जखम थे, जिस को हजीरां बोलते थे। वोह दर्द के कारण रोती रहती। उन दिनों गाँव का हकीम यमुना दास कोई लेप देता जिस को उन जख्मों पर लगाना होता था। जब वोह लेप लगाया जाता तो बहुत तड़पती और ऊंची ऊंची रोती। हमारा मन भी बहुत उदास हो जाता। तरसेम  का  छोटा  भाई और बहन अभी बहुत छोटे थे। तरसेम की माँ दो महीने तड़फ तड़फ कर इस दुनिया से रुखसत हो गई और तरसेम इस छोटी सी उम्र में जैसे बहुत बड़ा हो गया हो क्योंकि सारा भार उन के कन्धों पर आ गिरा। उस का बचपन भी खत्म हो गया। कुछ सालों बाद ही जब हम अभी आठवीं क्लास में पड़ते थे तो उस की शादी हो गई।

आगे जा कर तरसेम ने अपने भाई और बहन की शादी की। तरसेम की वाइफ का नाम था सीबो और वोह भी इस दुनिआ से रुखसत हो चुक्की है। तरसेम भी अपने पिता की तरह बहुत धार्मिक हो गया और अमृत छक कर उस का नाम अब जरनैल सिंह है। तरसेम डुबाई चले गिया था और काफी पैसे बना कर अब गाँव में  ही एक अच्छा मकान बना कर अच्छी ज़िंदगी बतीत कर रहा है।

चलता ….

4 thoughts on “मेरी कहानी – 4

  • विजय कुमार सिंघल

    बहुत रोचक कहानी. इससे बहुत जानकारियाँ मिल रही हैं.

    • धन्यवाद भाई साहिब .

  • Man Mohan Kumar Arya

    सारा वर्णन पढ़ा। विवरण रोचक एवं जानकारियों से भरपूर है। अगली किश्त की प्रतीक्षा है। धन्यवाद है।

    • धन्यवाद , मनमोहन जी .

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