वंदना
अंबर सुनहरा लगे, शशि जहाँ ठहरा लगे,
ऐसे मनभावन मेँ लगता न मन है।
झूमती हैँ झूलती हैँ झुकती हैँ फूलती हैँ,
पुष्प की बेलोँ को नित छू रही पवन है।।
और गंध माल की ये चली आयी ऐसे
जैसे कृष्ण पटल पर महके चंदन है।
ब्रजरसराज आज, तुमही सँवारो काज,
तुमको हमारा नित नित ही वंदन है।।
चेतना की धूरी से ये मन अंधकार जाए,
ऐसी आस लिए आए आपकी शरण हैँ।
सुंदर ये जग लगे, रस भरा मग लगे
ध्यान मेँ सदा ही नाथ आपके चरण हैँ।।
चंद्र चंद्रिका का जैसे, सूर्य किरणोँ का कैसे
करतेँ हैँ हरि नित सदा ही वरण हैँ।
माखन की चोरी जैसे करते हैँ छिप छिप,
ऐँसे ही किये है नाथ मन का हरण हैँ।।
___सौरभ कुमार
आभार जी
बेहतरीन छंद !