आभास
साम के बेला में,
तेरा रोज का आगमन,
उस छत के उपर।
अपनी छज्जा से,
देखा करती थीं।
नव जीवन में ,
अंकुर बनकर,
आ जाया करती थी।
श्यामल,श्यामल ,
कोमल कोमल,
पुलकित तुम्हारे अंग।
उच्छवासित वक्ष पर,
कम्पित तेरे,
लहराते बाल।
लिये मन में,
उज्ज्वल चितवन,
चंचल आभास।
ऐसा मुझे होता था,
अविरल आभास!!!!
——-रमेश कुमार सिंह ♌
बहुत खुब!!