आत्मकथा

आत्मकथा – दो नम्बर का आदमी (कड़ी 26)

मेरी पहली हवाई यात्रा

26 अगस्त 1989 (शनिवार)
मैंने अपने साथी अधिकारी श्री राकेश क्वात्रा के साथ जाकर वाराणसी से दिल्ली वाया खजुराहो- आगरा की इंडियन एयरलाइंस की उड़ान में सीट बुक करा ली, जिसमें लगभग 700 रुपये खर्च हुए। गुड़गाँव में हिन्दी कार्यशाला 11 सितम्बर से 16 सितम्बर तक थी, इसलिए उड़ान 10 सितम्बर की शाम की बुक करायी।

10 सितम्बर 1989 (रविवार)
सायं 3.45 बजे मिंट हाउस स्थित इंडियन एयरलाइंस के कार्यालय के बाहर से उनकी बस में बैठा। बस ठीक 4 बजे बाबतपुर हवाई अड्डे के लिए चली। लगभग 4.30 पर हवाई अड्डे पहुँचे। काउंटर पर टिकट दिखाकर सामान सौंपा। फिर बोइंग 737 में बैठने का पास मिला। ठीक 5 बजे सुरक्षा जाँच कराकर प्रतीक्षा हाॅल में एक कुर्सी पर बैठ गया।

हाॅल में विदेशियों की संख्या बहुत है। मैंने अभी तक इतने विदेशी एक साथ कभी नहीं देखे थे। अधिकतर लोग जापान, सिंगापुर या थाईलैंड के हैं। अन्य देशों के भी लोग हैं। कई बहुत थुल-थुल और मोटे हैं, शेष छरहरे हैं। कुछ लड़कियाँ और महिलायें बहुत सुन्दर हैं, शेष मामूली हैं। एक विदेशी महिला, जो शायद अभी-अभी शादी करके भारत घूमने आयी है, बहुत प्यारी लग रही है।

प्रतीक्षा हाॅल में पीने के पानी का इंतजाम ठीक नहीं है। कूलर खराब है। शिकायत करने पर कोई सुनवायी नहीं।

जहाज 5.45 पर कहीं से (शायद काठमांडू) से आया। हम 6.15 पर जहाज में बैठे। मैं खिड़की के पास वाली सीट पर बैठा, ताकि बाहर का दृश्य देख सकूँ। जहाज चलने से पहले एक सुन्दर सी लड़की टाफियाँ लेकर आयी। सबने एक-एक टाफी ली, परन्तु मैंने 4 उठा लीं। जहाज के उड़ने में देर है। पता चला कि राजेन्द्र कुमारी बाजपेयी (उ.प्र. की एक मंत्री) का इंतजार किया जा रहा है।

ठीक 6.45 पर विमान उड़ा अर्थात् लगभग 45 मिनट देरी से। पहले काफी दूर तक सीधा चला, फिर खूब तेज दौड़ा और एकदम ऊपर उठ गया। बाहर तब तक बहुत अँधेरा हो गया था, इसलिए दृश्य साफ दिखाई नहीं दे रहा था। नीचे काफी दूर केवल कुछ बत्तियाँ जल रही थीं। थोड़ी देर बाद बत्तियाँ दिखायी देना भी बन्द हो गया।

हम पश्चिम की तरफ जा रहे थे। दूर क्षितिज पर लाल-लाल आसमान दिखायी दे रहा था, जिससे मैंने अनुमान लगाया कि सूर्य भगवान उधर अपना प्रकाश फैला रहे हैं।

फिर मैंने बाथरूम देखना चाहा। साथ बैठे सज्जनों से रास्ता माँगकर गया। बहुत छोटा सा बाथरूम था पश्चिमी स्टाइल का। उसका दरवाजा बन्द करते ही बत्ती जल गयी। यह फ्रिज के विपरीत है। वहाँ मूत्र त्याग करके लौटा। थोड़ी देर बाद मैंने खिड़की से बाहर झाँका, तो चारों ओर घुप्प अंधेरा था। कभी-कभी एकाध बत्ती जलती दिखायी पड़ जाती थी।

थोड़ी देर बाद संदेश आया कि पेटी बाँधिए। मैंने तुरन्त पेटी बाँध ली। शायद खजुराहो आने वाला था। थोड़ी देर बाद ऐसा मालूम पड़ा कि विमान नीचे जा रहा है। मैंने नीचे झाँका तो एक साथ बहुत सी बत्तियाँ दिखायी पड़ीं। फिर जहाज एकदम नीचे उतरता हुआ मालूम पड़ा। पास में ही एक शहर सा दिखायी दे रहा था। 7.23 पर जहाज नीचे आकर फिर मुड़ा और बिना जमीन को छुए फिर ऊपर उठ गया। शायद कोई गड़बड़ है। भीतर काफी ठंड लग रही थी। मैं स्वेटर भी नहीं लाया था। बुरा फँस गया। मैंने एयर होस्टेस से कम्बल माँगा था, पर वह भूल गयी या टाल गयी। मैंने भी हंगामा करना उचित नहीं समझा।

7.26 पर जहाज फिर नीचे आया। बाहर का दृश्य बहुत अच्छा लग रहा था। एकाध मंदिर भी साफ दिखाई दिया। फिर अचानक ऐसा लगा कि जहाज जमीन से टकराया। फिर सीधा चलकर रुक गया। समय था सायं 7.30 बजे का। हम खजुराहो आ पहुँचे थे।

खजुराहो में जब जहाज हवाई अड्डे पर खड़ा था, तभी नाश्ता मिला। डिब्बे में दो ब्रेड तिरछी कटी हुई। उनके बीच में मक्खन और घी-बूरे की परत थी। खाकर तृप्त हुआ। दो गिलास ठंडा पानी पी गया।

ठीक 8 बजे जहाज फिर उड़ा। काफी लेट है, पर क्या किया जाये? 8.40 पर जहाज आगरा में उतरकर खड़ा हो गया। विमान से बाहर आकर मैंने हवाई अड्डे पर चारों ओर नजर दौड़ाई। यह मेरा अपना शहर है, परन्तु मैं यहाँ उतर नहीं सकता।

9 बजे जहाज आगरा से भी उड़ा। काफी सीटें खाली हो गयी हैं। शायद वे सब आगरा में ही उतर गये। एयर होस्टेस बहुत भाग-दौड़ करती हैं। काफी सुन्दर भी हैं। जहाज चलते समय जाने कैसी नली दिखाती हैं, जिसे नाक पर चढ़ाया जाता है। बाद में समझ में आया कि वह आक्सीजन की नली है, ऐसे लोगों के लिए जिन्हें जहाज में साँस लेने में तकलीफ होती हो।

अब मुझे दिल्ली की चिन्ता लग रही थी। दिल्ली पहुँचते-पहुँचते 9.30 और सामान लेते-लेते 10 बज जायेंगे। उस समय वहाँ से गुड़गाँव कैसे जाऊँगा? पता नहीं रात में स्टाफ कालेज खोज भी पाऊँगा कि नहीं? अगर खोज भी लिया तो वहाँ का दरवाजा कैसे खुलेगा? मैं इन्हीं बातों पर विचार करता रहा। फिर सोचा कि जो होगा देखा जायेगा।

लगभग 9.15 पर मैं सोच रहा था कि इस समय हमारा जहाज मेरे गाँव के ऊपर होकर उड़ रहा होगा। हमारा गाँव आगरा-दिल्ली के सीधे हवाई रास्ते पर पड़ता है। बचपन में हम अपने गाँव के आसमान में से गुजरते हुए जहाजों को देखा करते थे। मैंने सोचा कि कैसी बिडम्बना है कि मैं अपने गाँव की जमीन से कटकर आसमान में उड़ने लगा हूँ।

ठीक 9.30 पर जहाज दिल्ली में उतरा। वहाँ चारों तरफ बल्ब ही बल्ब जल रहे थे। उतरते ही इंडियन एयरलाइंस की एक बस खड़ी हुई मिली। मैंने पूछा कि यह कहाँ ले जायेगी, तो किसी ने बताया कि गेट तक ले जायेगी। गेट वहाँ से मुश्किल से 50 मीटर दूर था। खैर, उसमें बैठकर गेट तक और वहाँ से भीतर हाॅल में गये। वहाँ हमें अपने सामान की प्रतीक्षा करनी थी। सामान देने की विधि मजेदार थी। वहाँ लकड़ी की चौड़ी पट्टियाँ पृथ्वी के समानान्तर ओवल के आकार की कक्षा में घूमती थीं। उनका कुछ हिस्सा भीतर जाता था। वहाँ उन पर एक-एक करके सामान रख दिया जाता था। पट्टी पर रखा हुआ वह सामान बाहर आता था और जिस यात्री का होता था वह उसे उठा लेता था। मुझे बड़ा मजा आया। ऐसी कई पट्टियाँ वहाँ थीं। हालांकि इसमें गलती की काफी संभावना है, फिर भी ठीक ही है।

एक बात और। हवाई अड्डे से बाहर आते समय तथा सामान लाते समय न तो किसी ने रोका और न इस बात की जाँच की कि जो सामान मैं ले जा रहा हूँ वह मेरा ही है। ऐसी गलती क्यों? इससे तो सुरक्षा व्यवस्था की ढील मालूम होती है।

बाहर आते-आते 10 बज गये थे। जिस बात का मुझे डर था, वही हुआ। अब मैं परेशान हुआ। कहाँ जाऊँ? कुछ टैक्सीवालों से बात की। इतनी रात में कोई भी गुड़गाँव जाने को तैयार नहीं था। परन्तु एक टैक्सीवाला सरदार पीछे पड़ गया। वह मेरा सामान लेकर आगे चला गया। मैंने कहा कि आॅटोरिक्शा में जाऊँगा और मीटर से किराया दूँगा। पर वह काफी दूर ले जाकर एक टैक्सी कार में मेरा सामान रखने लगा। मैंने पूछा कि इसका किराया कितना होगा? उसने कहा- ‘150’। इस पर मैंने जाने से इनकार कर दिया और अपनी अटैची उठा ली। तब तक वहाँ और भी कई टैक्सीवाले आ गये थे। सारे टैक्सीवालों ने मुझे घेर लिया और मुझसे जाने के लिए कहने लगे। मैं समझ गया कि अगर इस समय कमजोरी दिखायी तो ये लोग लूट लेंगे। इसलिए मैंने किसी से भी बात करने से इनकार कर दिया। मैंने एक-दो को जोर से डाँट भी दिया और अपना सामान लेकर वापस हवाई अड्डे की ओर चला।

बीच में ही एक आॅटोरिक्शा आता हुआ मिला। वह खाली था। मैंने उसे रोक लिया और पूछा- ‘गुड़गाँव चलोगे?’ उसने कहा- ‘इस समय गुड़गाँव नहीं जा सकता। किसी होटल में ले चलूँगा।’ होटल में काफी खर्चा होता और शायद बैंक देता नहीं। अतः मैंने उससे कहा- ‘सफदरजंग एनक्लेव चलो।’ वहाँ मेरे मित्र राम नरेश सिंह रहते थे। उसने कहा- ‘40 रुपये लगेंगे।’ मैंने कहा- ‘ठीक है, लेकिन रसीद देनी पड़ेगी, क्योंकि मैं सरकारी काम से आया हूँ।’ वह राजी हो गया। मैं उसमें बैठ गया।

रास्ते में मुझे ध्यान में आया कि इन दिनों राम नरेश सिंह का मिलना पक्का नहीं है, अतः साउथ पटेल नगर चलना ठीक रहेगा। वहाँ मेरे एक अन्य मित्र शिवराम कृष्णैया का मिलना पक्का था। टैक्सीवाला बोला कि वह बहुत दूर है। वहाँ के 50 रुपये लगेंगे। मैंने कहा – लगने दो। वह चल दिया। रास्ते में एक जगह उसने पेट्रोल भरवाया। मुझसे 50 का नोट ले लिया। जब वह पेट्रोल भरवा रहा था, तो मैंने नीचे उतरकर टैक्सी का नं. नोट कर लिया। उसने मुझे नम्बर नोट करते हुए देख लिया, परन्तु कुछ कहा नहीं। अब मैं कुछ निश्चिंत था।

करीब 10.30 बजे हम पटेल नगर पहुँच गये। वहाँ की सारी गलियाँ मेरी जानी-पहचानी थीं। अतः घर के ठीक पास ही उतर गया। मैं पहले शिवराम को जगाना चाहता था, परन्तु टैक्सीवाला जल्दी जाने पर अड़ गया। इसलिए मैंने जल्दी-जल्दी रसीद लिखकर उसके हस्ताक्षर करा लिये। वह चला गया।

उस दिन शिवराम बाहर खुले में सो रहा था, शायद रोज सोता हो। एक बार दरवाजा खटखटाने से वह जाग गया। मैंने पूछा- ‘शिवराम?’ उसने मेरी आवाज पहचान ली। अब मैं निश्चिंत था। भीतर कुछ औपचारिक बातें हुईं। उन्होंने पूछा- ‘क्या खाओगे?’ मैंने कहा- ‘भूख ज्यादा नहीं है। अतः जो भी चीज आसानी से और जल्दी बन जाये, ठीक है।’ उसने सूजी का नमकीन हलुआ (उपमा) बनवा दिया। उसे खाकर मैं सो गया।

अगले दिन प्रातः ही मैं टैक्सी से धौलाकुआँ पहुँचा और वहाँ से बस से गुड़गाँव।

मेरी पहली हवाई यात्रा का यह अनुभव उतना रोमांचक नहीं रहा, जितनी मुझे आशा थी। इसके बाद दर्जनों बार हवाई यात्रा कर चुका हूँ।

(जारी…)

डॉ. विजय कुमार सिंघल

नाम - डाॅ विजय कुमार सिंघल ‘अंजान’ जन्म तिथि - 27 अक्तूबर, 1959 जन्म स्थान - गाँव - दघेंटा, विकास खंड - बल्देव, जिला - मथुरा (उ.प्र.) पिता - स्व. श्री छेदा लाल अग्रवाल माता - स्व. श्रीमती शीला देवी पितामह - स्व. श्री चिन्तामणि जी सिंघल ज्येष्ठ पितामह - स्व. स्वामी शंकरानन्द सरस्वती जी महाराज शिक्षा - एम.स्टेट., एम.फिल. (कम्प्यूटर विज्ञान), सीएआईआईबी पुरस्कार - जापान के एक सरकारी संस्थान द्वारा कम्प्यूटरीकरण विषय पर आयोजित विश्व-स्तरीय निबंध प्रतियोगिता में विजयी होने पर पुरस्कार ग्रहण करने हेतु जापान यात्रा, जहाँ गोल्ड कप द्वारा सम्मानित। इसके अतिरिक्त अनेक निबंध प्रतियोगिताओं में पुरस्कृत। आजीविका - इलाहाबाद बैंक, डीआरएस, मंडलीय कार्यालय, लखनऊ में मुख्य प्रबंधक (सूचना प्रौद्योगिकी) के पद से अवकाशप्राप्त। लेखन - कम्प्यूटर से सम्बंधित विषयों पर 80 पुस्तकें लिखित, जिनमें से 75 प्रकाशित। अन्य प्रकाशित पुस्तकें- वैदिक गीता, सरस भजन संग्रह, स्वास्थ्य रहस्य। अनेक लेख, कविताएँ, कहानियाँ, व्यंग्य, कार्टून आदि यत्र-तत्र प्रकाशित। महाभारत पर आधारित लघु उपन्यास ‘शान्तिदूत’ वेबसाइट पर प्रकाशित। आत्मकथा - प्रथम भाग (मुर्गे की तीसरी टाँग), द्वितीय भाग (दो नम्बर का आदमी) एवं तृतीय भाग (एक नजर पीछे की ओर) प्रकाशित। आत्मकथा का चतुर्थ भाग (महाशून्य की ओर) प्रकाशनाधीन। प्रकाशन- वेब पत्रिका ‘जय विजय’ मासिक का नियमित सम्पादन एवं प्रकाशन, वेबसाइट- www.jayvijay.co, ई-मेल: jayvijaymail@gmail.com, प्राकृतिक चिकित्सक एवं योगाचार्य सम्पर्क सूत्र - 15, सरयू विहार फेज 2, निकट बसन्त विहार, कमला नगर, आगरा-282005 (उप्र), मो. 9919997596, ई-मेल- vijayks@rediffmail.com, vijaysinghal27@gmail.com

4 thoughts on “आत्मकथा – दो नम्बर का आदमी (कड़ी 26)

  • विजय भाई , आप की पहली हवाई यात्रा पड़ी, यह पहला तजुर्बा मैंने भी अच्छा अनुभव किया था १९६२ में . आप तो फिर भी लक्की थे कि प्लेन पर इंडियन लोग थे लेकिन जब मैं आया था तो अकेला सिंह ही था , बाकी सब गोर ही थे जो सभी ड्रिंक ले रहे थे , और इतने गोर पहली दफा देखे थे . कराची जा कर एक पाकिस्तानी चड़ा जो पहले भी इंग्लैण्ड में ही रहता था , उसने मेरे साथ कोई बात नहीं की . मेरा पहला सफ़र बहुत कठिन था , अपनी कहानी में कभी लिखूंगा .

    • विजय कुमार सिंघल

      धन्यवाद भाईसाहब ! अपना अनुभव आप अवश्य लिखिये।

  • Man Mohan Kumar Arya

    धन्यवाद आदरणीय श्री विजय जी। आपकी हवाई यात्रा का वृतांत पढ़कर अपनी पहली दिल्ली – गुवाहाटी हवाई यात्रा की याद आ गई जो अपने एक निकट मित्र के परिवार के साथ की थी। हमने दिल्ली हवाई अड्डे पर चार काफी और बच्चो के लिए कुछ बिस्कुट ख़रीदे थे। अपने अनुमान से उसे १०० रूपये का नोट दिया था। उसने ५० या १०० रूपये और देने को कहा तो पता चला था कि हम चाय या काफी की दुकान पर नहीं हवाई अड्डे पर हैं। अगली क़िस्त की प्रतीक्षा है।

    • विजय कुमार सिंघल

      हा हा हा … हवाई अड्डों पर ऐसी लूट बहुत होती है। मैं एक बात लिखना भूल गया कि वहाँ पानी की व्यवस्था न होने पर मैंने एक कर्मचारी से पानी के बारे में पूछा तो उसने २५ रुपये देने पर व्यवस्था करने की बात कही थी। मैंने उसे डाँट दिया था।

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