संस्मरण

मेरी कहानी – 18

मास्टर बाबू राम जी के घर से जिस तरह हम आये थे लगभग भूल गए थे क्योंकि हरभजन तो था नहीं, सब कुछ सामान्य हो गया था। यहां यह भी बता दूँ कि हमारे स्कूल की क्लासें ज़्यादा तर खुले आसमान के नीचे ही होती थीं। कमरों में तो मौसम के मुताबक ही बैठते थे। स्कूल में बड़े बड़े बृक्ष हुआ करते थे जिसके नीचे बैठ कर पड़ना अच्छा भी लगता था। जिस ओर मास्टर बाबू राम जी की कुर्सी होती थी उस तरफ एक दीवार थी जिसके दूसरी तरफ एक बाग़ को लगती थी यहां अनार के पेड़ होते थे। इन पेड़ों पर बहुत खूबसूरत फूल लगते थे जिन को देख कर मन खुश हो जाता था। यही फूल फिर अनारों में तब्दील होने लगते थे। पहले छोटे छोटे फिर बड़े बड़े होने लगते। मेरा दोस्त बहादर सिंह जो अब यहां बर्मिंघम में रहता है यह उनका ही बाग़ था और कभी कभी बहादर के साथ मैं इस बाग़ में चला जाता था। क्योंकि बहादर के दादा जी एक जैलदार थे इस लिए इन का दबदबा हमारे गाँव में तो क्या दूर दूर के गाँवों तक था। आज़ादी के बाद यह ज़ैलदारीआं खत्म कर दीं गई थीं।यह जैलदार अंग्रेज़ों की तरफ से स्थापित किये हुए टैक्स कलैक्टर हुआ करते थे। टैक्स (लगान ) के कमीशन का १% पैसा इन लोगों को मिलता था। इन लोगों के और भी बहुत काम हुआ करते थे जैसे गाँव में अमन कायम रखना, कोई हकूमत के खिलाफ आवाज़ उठा रहा हो उन की रिपोर्ट हकूमत को करना, जब पुलिस गाँव में आये तो उन की हर तरह से मदद करना आदि।

ज़ैलदारों से लोग बहुत डरते थे लेकिन बहादर के दादा जी बहुत नेक इंसान थे जो हर एक की मदद करने को तैयार होते थे। चर्मकार और मिहतर लोग तो निर्भर ही इन पर थे। क्योंकि बहादर के दादा जी की जमींन बहुत होती थी, इस लिए इन लोगों के लिए वहां काम बहुत होता था। जब मैं ज़ैलदारों की बात सोचता हूँ तो एक बात मेरी सोच में शामिल हो जाती है कि बचपन में मैंने बहुत बज़ुर्गों के मुंह से सुना था कि इस आज़ादी से तो अंग्रेज़ों का राज ही अच्छा था क्योंकि जब की बात मैं करता हूँ उस समय कानून विवस्था बहुत बिगड़ चुकी थी, बेकारी भी बहुत थी जिसकी झलक उस समय की फिल्म कुंदन में भी देखने को मिलती है। कभी कभी सोचता हूँ मुठी भर अंग्रेज़ों ने कैसे इतने बड़े देश को कंट्रोल में रखा जब कि यह उतने नहीं थे जितने हमारी मिल्टरी के जवान कश्मीर को संभालने में असमर्थ हैं। और तो और नकसलबाड़ी भी पिछले चालीस वर्षों से हमारी हकूमत की  नाक में दम किये हुए हैं , वीरप्पन को पकड़ने और मारने को भी इतने वर्ष लग गए.

यह बाग़ ज़्यादा बड़ा तो नहीं था, होगा कोई आधे एकड़ में लेकिन जिस खूबसूरती से बना हुआ था अपने आप में एक आर्ट था। इस में संगतरे केले आलूबुखारे और कई तरह फलदार बृक्ष थे। तरह तरह के फूल थे जो बहुत ही अच्छे ढंग से लगाए हुए थे। और इस बाग़ के बीच में थी एक बड़ीआ हवेली। इस हवेली को इहाता बोलते थे।  इस हवेली के तीन ओर बरामदे थे। हवेली के बीच में बहुत कमरे थे लेकिन उन कमरों में मैं कभी गिया नहीं था, सिर्फ एक कमरा मैंने देखा था जिस के भीतर एक तहखाना था जिस को भोरा कहते थे और इनमें कुर्सीआं मेज़ आदिक रखे हुए थे। चारों तरफ बरामदों के ऊपर फूलों के गमले थे जिन में तरह तरह के फूल होते थे और उन फूलों में बहुत से फूल तो ऐसे थे जो मैंने कभी देखे ही नहीं। इस हवेली के फ्रंट पर एक तकरीबन पांच फ़ीट ऊंची दीवार थी और एक गेट था। इस गेट के नज़दीक ही एक बृक्ष था जिस को उस वक्त किम्ब बोलते थे लेकिन अब मुझे समझ आई कि वोह लाइम यानी छोटे नीम्बुओं का बृक्ष था जिस पर जब सफ़ेद रंग की   कलियाँ लगती थीं तो उन की सुगंध बहुत मनमोहक और दूर दूर तक जाती थी। इस लाइम के बृक्ष के साथ ही एक दीवार और थी और उस में एक दरवाजा था जो बाग़ की दुसरी ओर खुलता था दुसरी ओर एक और बृक्ष था जिस पर बृक्ष जैसी ही वेल बृक्ष के इर्द गिर्द वल खाती हुई ऊपर को चढ़ती जाती थी। इस बेल को बहुत बढ़िया फूल लगते थे, शायद इन को कचनार के फूल बोलते थे। कहने की बात नहीं यह हवेली एक छोटे से महाराजे की रहाइश से कम  नहीं थी।
                 इस हवेली का जो दिलचस्प अध्याय है , वोह यह है कि यहां पुलिस आई ही रहती थी। बहादर के दादा जी के पास राईफल होती थी और कभी कभी उनके गले में राईफल में पड़ने वाले कारतूस की पेटी होती थी और बहुत बढ़िया घोड़ी भी रखते थे। बहादर के घर लगी एक बड़ी फोटो जिस में बहादर के दादा जी घोड़ी पर सवार हैं देखकर उन पुराने दिनों की याद आ जाती है। खैर, कभी कभी जब पुलिस आती थी तो हम चोरों की पिटाई होते देखने जाया करते थे। थानेदार और कुछ सिपाही कुर्सिओं पर बैठे होते थे जिनके सामने मेज़ लगे होते थे और उन पर रखे होते थे कप, चाए की केटल और मिठाई की प्लेटें। बूढ़ा नंदू गाँव का चौकीदार होता था जिस के काम भी बहुत होते थे जिन में एक काम होता था जब पुलिस आये तो जिन पर पुलिस को शक होता था उन को बुलाने जाना। नंदू काफी बूढ़ा था, और उस की कमीज पर एक कुलिओं जैसा पीतल का बैज लगा होता था, उस के हाथ में एक लाठी हुआ करती थी। पुलिस आने से ही पता चल जाता था कि किसी चोर को पकड़ने आये हैं। हम बहुत लड़के दीवार पर चढ़ कर बैठ जाया करते थे और इस इंतज़ार में रहते थे कि कौन होगा जिसकी पिटाई होगी। कुछ देर बाद जब वोह मुजरिम आ जाते तो थानेदार एक एक को कोई सवाल करता, जब वोह उन के मुताबिक़ उल्ट जवाब देता, तो थानेदार गंदी गालिआं बोलने लगता। फिर भी जब वोह ना मानता तो सिपाहिओं को कहता,”जाओ ! इस साले को नंगा कर दो और इस की मरम्मत कर दो”.
                     बस फिर किया होता , सिपाही उसको गालिआं देते और उनके कपडे उतार कर अल्फ नंगा कर देते और उस को मुंह के बल लिटा देते। फिर एक चमड़े का छित्तर सा होता था जिस को हंटर कहते थे। यह तकरीबन एक फुट विआस में होगा और इस को पकड़ने के लिए एक लकड़ी का हैंडल होता था। एक सिपाही बहुत जोर से वोह हंटर चोर के बॉटम पर मारता, जिससे वोह चीख चिहाड़ा मारने लगता। फिर दूसरा फिर तीसरा, और इसी तरह मारता जाता। फिर एक सिपाही उस के बॉटम को पैरों से मसलता तो उस की चीखें आस्मां छू लेती। बहुत दफा तो चोर बेहोश हो जाता और उस के मुंह पर पानी के छींटे देते, जब होश आ जाती तो फिर उस को मारने लगते। कई दफा चोर मान जाता कि उस ने ही चोरी की थी। उसको उठने को कहते तो वोह हाथ जोड़ कर मिनतें  करता। हम यह सब देखते और डर जाते। बहुत दफा हम को भी थानेदार एक दबका मारता और हम भाग जाते लेकिन फिर वापिस आ जाते। यह भयानक दृश्य देखने से भी हमें एक अजीब सी संतुष्टी मिलती थी, पता नहीं क्यों ?
कभी कभी इस भयानक दृश्य से भी एक कॉमिडी जैसा दृश्य देखने को मिल जाता था। कुछ चोर ऐसे होते थे जिन को दस नंबरी कहते थे। इस का मतलब यह होता था कि वह पक्के चोर होते थे जिनका पेशा ही चोरी था, जिन की रोज़ी रोटी ही चोरी होती थी , इसलिए इर्द गिर्द गाँवों में कोई भी चोरी होती तो पहले दस नंबरी को पकड़कर ले आते। हमारे गाँव में एक रुकमा (बदला हुआ नाम) चोर होता था जिस की प्रसिद्धि इस बात पर ही निर्भर थी कि वोह पिटाई से कभी डरता नहीं था। उस की पिटाई मैं ने तो नहीं देखि लेकिन सुना था कि एक दफा जब नंदू उस को बुला कर लाया तो वोह थानेदार की तरफ जाने की वजाए बरामदों की तरफ जाने लगा। जब थानेदार ने गाली दी कि ” कहाँ जा रहा है ?”. तो उस ने जवाब दिया,” साहब कपडे उतारने जा रहा हूँ “. थानेदार गरजा ,”ओए कियों ?”. रुक्मे ने जवाब दिया, “मुझे पता ही है, आपने मुझे पीटना है “. इस पर सबी लोग हंस पड़े।
           इस रुक्मे की ज़िंदगी में भी अचानक एक इंकलाब आ गिया। उसने अपने घर में अखंडपाठ  रखवाया जो सिखों की अत्ति उत्तम धार्मिक रसम होती है. सभी लोग पीठ पीछे हंस रहे थे कि,”नौ सौ चूहा खा के बिल्ली हज्ज को चली”. लेकिन यह कोई नहीं जानता था कि रुकमा क्या ठाने हुए था। उस की जमींन तो बहुत कम थी लेकिन उस ने और जमींन लोगों से ठेके पर ले ली और जी जान से खेती करने लगा। सभी लोग उस दिन हैरान रह गए जब जिस जिस ने सुना कि रुक्मे की गेंहूँ सब से ज़्यादा हुई थी। रुक्में ने सबके ठेके के पैसे वापिस कर दिए और दिल लगाकर खेती करनी शुरू कर दी और लोग भूल गए कि वोह कभी दस नंबरीआ था।
                 चोरों को पिटते देखना तो आम बात थी , पता नहीं कितनी दफा देखा होगा लेकिन जब १९७३ में मेरे पिता जी अचानक यह संसार छोड़ गए तो हम सारा परिवार गाँव जा पौहंचा और हम को ६ महीने गाँव में रहना पड़ा क्योंकि बहुत काम ऐसे थे जो ज़मीन जायदाद के मामले में थे और इस में मेरे दोस्त बहादर के छोटे भाई ने मेरी बहुत मदद की। इस का नाम हरमिंदर था जो इस संसार में अब नहीं है। हरमिंदर इंग्लैण्ड में ही रहता था, लेकिन उसका मन उचाट हो गया और इंडिया चला गया। पुरखों की जमींन बहुत थी, इस लिए खेती करनी शुरू कर दी। हरमिंदर ने बड़े बड़े लोगों से सम्बन्ध बनाये हुए थे, इन में एक था एक थानेदार जिस का नाम मैं नहीं लूंगा। उसको मिलने हम दोनों हरमिंदर के मोटरसाइकल पर बैठ कर जाते ही रहते थे। कभी कभी वोह थानेदार हरमिंदर के घर आ जाता और हरमिंदर अपने नौकर को भेज कर मुझे बुला लेता। फिर हम हरमिंदर का हारमोनियम बजाते और गाते। एक दिन जब थानेदार को मिलने पुलिस स्टेशन गए तो बातें करते करते मैंने बचपन में देखे उस हंटर की बात की। थानेदार अंदर गिया और वोह हंटर उठा लाया और मुझे दिखाया। मैं ने हाथ से पकड़ा और बहुत भारी लगा। पता नहीं उस में किया था। यह हंटर देख कर मुझे रुकमा और वोह सब लोग याद आ गए जिन को शायद इसी हंटर से पीटा हुआ होगा।

4 thoughts on “मेरी कहानी – 18

  • Man Mohan Kumar Arya

    आपने अनार के पेड़ो का जिक्र किया है तथा उसके फूलों वा फलों के सौंदर्य की प्रसंशा की है। बचपन से ही हमारे घर में भी अनार का एक पेड़ था जिसमे इसी प्रकार से लाल रंग के फूल आते थे जो बहुत सुन्दर लगते थे। बाद में यही फूल अनार बन जाते थे। हमने बचपन में इस अपने पेड़ के खूब अनार खाएं हैं। ऐसा ही एक पेड़ अमरुद और एक शहतूत का था। आपने अंग्रेजों का जिक्र किया है। अंग्रेजो ने भारत का हर प्रकार से शोषण किया है। धार्मिक शोषण धर्मान्तरण द्वारा, प्राकृतिक सम्पदाओं का शोषण और इसी प्रकार से जहाँ जितना संभव था, उतना किया। मैंने एक दो दिन पहले पढ़ा है कि महाराजा रणजीत सिंह के पुत्र श्री दिलीप सिंह को भी इंग्लॅण्ड में ईसाई बनाया गया था जिसमे भारत के एक पादरी की भूमिका थी। अपने लोगो का पक्षपात भी जी भर के करते थे। जैसा अंग्रेजों का स्वभाव व चरित्र था वैसी ही उनकी पुलिस थी, निरंकुश और अत्याचारी। आज भी स्थिति में कोई विशेष अंतर नहीं आया है। विजय जी ने अपनी प्रतिक्रिया में पुलिस के सम्बन्ध में ठीक ही लिखा है। आज की क़िस्त रोचक, उत्तम एवं प्रशंसनीय है।

    • मनमोहन भाई , बहुत बहुत धन्यवाद . जो आप के घर में ही अनार का पेड़ था , सुन कर ख़ुशी हुई और इस के फूल वाकई बहुत सुन्दर होते हैं . जो शतुत का ज़िकर किया है , हमारे कूएँ के गिर्द चार दरख्त थे , दो को तो छोटी छोटी तूतिआन लगती थी जो डार्क ब्राऊन रंग कि होती थी , एक को लम्बे लम्बे एक डेढ़ इंच शतुत लगते थे जो बहुत मीठे होते थे , एक ब्रिक्ष था जिस जिस की ब्रान्च्ज़ लम्बी होती थी जिस से मेरे दादा जी हर सीज़न में दस बारह टोकरे बनाते थे . जो आप ने अंग्रेजों की चलाकिओं की बात लिखी है , आप से बिलकुल सहमत हूँ लेकिन जो मैं बताना चाहता हूँ वोह यह है कि दुश्मन को हमेशा इस बात से जज्ज करना चाहिए कि हम को यह पता चल सके कि उन की किया विशेषताएं थीं जिस के कारण वोह हमारे देश को अपने अधीन रखने और लूटने में कामयाब हो गए . बहुत दफा जब मैं लिखता हूँ तो अक्सर भारती यह समझ लेते हैं कि मैं यहाँ रहने से अँगरेज़ भगत हो गिया हूँ , बात यह नहीं है , मैं तो चीख चीख कर यह ही कहता हूँ कि अंग्रेजों को समझ कर इस से सीख लो लेकिन हो किया रहा है , हम ने बर्थडे पार्टी , वैलेंटाइन अंग्रेजी तो सीख ली लेकिन अच्छी बात एक भी नहीं सीखी . और तो और , मुझे हंसी आ रही है जो विवाह शादीओं पर वाजे वाले होते हैं जब दो सम्धिओं में मिलनी होती है तो जो तीऊन्न वाजे वाले अक्सर वजाते हैं वो अंग्रेजों के नैशनल एंथम की तीउन होती है

  • विजय कुमार सिंघल

    यह कड़ी भी अच्छी लगी. अंग्रेजों के समय की पुलिस व्यवस्था के बारे में मैंने कई जगह पढ़ा था. आज़ादी के बाद भी लगभग वही व्यवस्था चल रही है. आपकी कहानी से उसकी पुष्टि हुई. पुलिस को बहुत बदलने की जरुरत है. बजाय मार-मारकर अपराध कुबूल करवाने के पुलिस को चाहिए कि सबूत एकत्र करके अपराध साबित करे और फिर उस अपराधी को कठोर दंड दिलवाए, जैसा कि यूरोप के देशों में होता है. हमारी व्यवस्था में तो दोषी खुले घूमते रहते हैं और बेचारे निर्दोष दंड भोगते हैं.

    • विजय भाई , जो हंटर की बात मैंने लिखी है , इंडिया में तो अब है या नहीं मुझे पता नहीं लेकिन पिछले हफ्ते अचानक युतिऊब पर पाकिस्तान के एक पुलिस स्टेशन में दो मुजरिमों को उसी हंटर से पीटते हुए दिखाया मैंने देखा . जो भारत की पुलिस है उन की सिफ्तें लिखने के लिए तो कई किताबें भी कम पड़ेंगी .

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