आत्मकथा

स्मृति के पंख – 7

मेरे दिल में भी बड़ा उत्साह था। बी.आर. के शाना बशाना काम करूं। बी.आर.  ने मुझे कहा जैसी जरूरत होगी, वैसा ही काम मैं तेरे से लेता रहूँगा। लेकिन अब पकड़ धकड़ शुरू होने वाली है और ‘भा’ से मैं डरता हूँ। मेरे पिताजी को बी.आर.  ‘भा’ कहता था। अगर तुम गिरफ्तार हो गए, तो मुझसे बहुत नाराज होंगे। लेकिन मेरा जोश तो बढ़ता ही गया। बी.आर.  ने समझाया इतना बड़ा काम है। पूरे देश की सेवा करनी है, सिर्फ जलसा और जुलूस नहीं। और बहुत काम है जो मुझसे होना मुश्किल होगा। जैसे वर्दियों का काम तुमने संभाल लिया और हमारे गाँव के वालंटियर सबसे अच्छे ट्रेण्ड हैं और बेहतर है कि आगे भी ऐसा काम मैं तुझे सौपंूगा। लेकिन स्टेज पर नहीं आने दूँगा। स्टेज पर आने का मतलब है गिरफ्तारी और मैं ऐसा नहीं चाहता। जब हम लोग गिरफ्तार हो जायेंगे उस वक्त तुम्हारी जरूरत होगी। जोश में आने से बेहतर है, होश में काम करें। मुझे तुम पर बहुत भरोसा है। दूसरा, तुम्हारी सूझबूझ का मैं कायल हूँ, तो मेरा मशवरा तुम मानो और इस तरह मैं बी.आर.  के असिस्टंट के तौर पर काम करता रहा।

पिताजी मुझे इस काम से मना करते रहे, पर मुझे इतनी लगन थी कि जहाँ भी जलसा हो जरूर पहुँच जाता। एक तो पिताजी को मेरी गैरहाजिरी में काम ज्यादा करना पड़ता, दूसरा वो नहीं चाहते थे कि मैं सुर्खपोश तारीक में हिस्सा लूं। मेरे दिमाग में वतन के लिए कुछ करने की जैसे लगन रही। इस पाबन्दी को मैं बर्दाश्त न कर सका। और एक दिन घर से चलकर लाहौर आ गया। सिटी कांग्रेस कमेटी के दफ्तर पहुँचा। आफिस सेक्रेटरी से बात की। उसने मुझसे पूरा हवाल पूछा और मुझे यह कहा कि तुम इतनी दूर क्यों आए हो। यह काम तो तुम्हारे नजदीक ही हो सकता था। फिर भी उसने मेरा नाम वालंटियरों में लिख लिया और कहा आज ही घर यहाँ पहुँचने की इतलाह देना। सुबह उठकर नहाने धोने से पहले आधा घण्टा की परेड होती थी, फिर नहा धोकर नाश्ता, 1 बजे रोटी। इस तरह वालंटियरों की सिखलाई का कैम्प था, जिसमें पिकटिंग, स्वदेशी प्रचार, विदेशी माल के बायकाट की जानकारी दी जाती।

मैंने खत तो उसी दिन लिख दिया। 5-8 दिन बाद खत मिलते ही भ्राताजी लाहौर आ गए। दफ्तर से पता करके सेक्रेटरी की इजाजत से मुझे अपने साथ लाए। मुझे भ्राताजी साथ लेकर अमृतसर आ गए। वहाँ पंडितजी श्याम सुन्दर को मिलने आये, जो हमारे साथ तीर्थ यात्रा पर हमारे साथ थे। पंडितजी और मोटी माताजी बड़े खुश हुए और मुझे गले लिपटा कर कहा बेटा इतना बड़ा हो गया है। रात इनके पास रहे और दूसरे दिन घर आ गए। घर पहुँचने पर सबको बहुत खुशी हुई और पिताजी ने भी कह दिया कि बेटा जैसी तेरी मरजी। हम तो तेरे भले के लिए कहते हैं। अंग्रेजी हुकूमत से टक्कर लेना बहुत मुश्किल है। इसमें तो मुझे दुख और बरबादी ही नजर आती है। मगर मेरे विचार कुछ ऐसे बन गये थे कि अंग्रेज इतनी दूर से आकर पूरे हिन्दोस्तान पर हुकूमत करें और हम सब देखते रहें और बर्दाश्त करें। यह मुल्क हिन्दोस्तान हमारा मुल्क है और यहाँ हमारी ही हुकूमत होनी चाहिए। और फिर बी.आर. ने समझाया कि बहुत काम तेरे न होने से रुका पड़ा है। मैं फिर तुझे कहता हूँ कि बाहर की नाराबाजी से अन्दर काम को संभालो, जो बहुत जरूरी है। मुझसे पूरा काम हो नहीं सकता और तेरा काम मैं किसी को दे नहीं सकता। अब तुम हर मीटिंग में मेरे साथ रहा करो ताकि तुम्हें अपने विचार रखने का मौका मिल सके। फिर जहाँ भी कहीं मीटिंग होती, तो उसमें मैं बी0आर0 के साथ जरूर शामिल होता।

दफ्तरी का काम ज्यादा भी था और मुझे अच्छा भी लगने लगा। जब भी मीटिंग में किसी बात पर राय लेने का सवाल आता, तो मैं अपनी तरफ से सोच समझकर जो राय देता उससे बी0आर0 को भी खुशी होती और दीगर लोगों को भी। उस राय का असर पड़ता और बी0आर0 कहता- कपूर ने थोड़े दिनों में काफी कुछ सीख और समझ लिया है। अब मैंने रोजाना अखबार भी मरदान से मंगवाना शुरू कर दिया। मालूमात में अखबारबीनी से काफी इजाफा होता। अक्सर पठान भी हालात जानने के लिए बैठ जाते। जिस वक्त मैं अकेला होता दुकान पर। फ्रंटियर में हमारा नारा था- पहले “नारा ए तकबीर, अल्लाहो अकबर”, फिर “इंकलाब जिन्दाबाद, महात्मा गांधी जिन्दाबाद, बाशा खाँ जिन्दाबाद और टोड़ी बच्चा हाय-हाय।” एक बुजुर्ग पठान जिसका नाम मुकर्रम था, बहुत गौर से अखबार की खबरें मुझसे सुनता और समझता। एक दिन कहने लगा नारा-ए-तकबीर तो खुदा का नारा हुआ। उसके बाद इंकलाब जिन्दाबाद का नारा लगाते हैं। महात्मा गांधी को तो मैं जानता हूँ सबसे बड़ा लीडर है और मंलगबाबा। यह इंकलाब कौन है जिसका पहले नारा लगाते हैं। मुझे हंसी आ गई, इतना बड़ा बुजुर्ग है, अखबार की खबरें भी बहुत ध्यान से सुनता है, लेकिन इसे यह पता नहीं है कि इंकलाब किसी आदमी का नाम नहीं है। मैंने उससे कहा कि मुकर्रम बाबा, इंकलाब किसी आदमी का नाम नहीं है। इंकलाब का मतलब है परिवर्तन। इस अंग्रेज की हुकूमत को उलटा देना।

बी.आर.  को खिलाफे कानून सरगर्मियों और एक जलसे में हुकूमत के खिलाफ बोलने की वजह से 2 साल कैद की सजा हो गई। हरिकिशन बी.आर.  के बड़े भाई थे, वो ज्यादातर जमींदारी का अपना काम संभालते थे। लेकिन अंग्रेज के खिलाफ उसके दिल में बहुत नफरत थी। उन दिनों सरदार भगत सिंह और बी.के.दत्त ने असेम्बली हाल लाहौर में बम फेंककर अंग्रेज हुकूमत को चैलेंज किया था और गिरफ्तारी दी थी। अखबारात के पूरे कालम उनकी खबरों से भरे हुये होते। नौजवानों में कुछ करने का जैसा जोश और तूफान उन्होंने भर दिया। नौजवान तबका अब ऐसे सोचने लगा कि अंग्रेज के खिलाफ हथियार उठाना भी जरूरी है। जैसा कि वो हमारे खिलाफ निहत्थे लोगों पर जलियांवाला बाग में और किस्साख्वानी बाजार में हिन्दोस्तानी फौज ने गोली चलाने से इनकार कर दिया था, फिर गोरा फौज ने गोली चलाई। हरिकिशन के मन में इस बेगुनाह के लोगों के शहीदों से अंग्रेज के खिलाफ बहुत नफरत थी। उसका दिल जैसे तड़प रहा था और फिर उन्होंने चमनलाल कपूर, रणवीर (एडीटर रोजाना मिलाप, लाहौर) के साथ मिलकर गवर्नर पब्लिक को खत्म करने की स्कीम बनाई। हरिकिशन ने गवर्नर पब्लिक पर गोली चलाई। गवर्नर जख्मी हुआ, मगर बच गया। एक इंस्पेक्टर मारा गया और हरिकिशन, रणवीर और चमनलाल को सजाए मौत हुई। रणवीर और चमनलाल अपील में बरी हो गए और हरिकिशन को फांसी हुई।

बहन सीता की शादी थी, मेरी उम्र तकरीबन 12-13 साल की थी। हमारे जेवरात मरदान में एक दुकान पर पड़े थे। मुझे पिताजी ने भेजा कि उनसे जेवर ले आओ। कितनी कम उम्र थी। फिर भी पिताजी ने मुझे जेवर लाने के लिए भेज दिया और उन लोगों ने भी मुझे जेवर दे दिये। शादी के एक साल बाद रामलाल का जन्म हुआ। भाई सीताराम (बहनोईजी) के पांव में कुछ तकलीफ हो गई जो बाद में फोड़ा बन गया। वो फोड़ा नासूर का था, डाक्टरों ने पांव कटाने का कहा, लेकिन भाईजी इसके लिए तैयार न थे। बहुत इलाज देसी और अंग्रेजी भी किया। लेकिन उस जख्म ने न ठीक होना था, न ठीक हुआ और उनका स्वर्गवास हो गया। रामलाल छोटा सा था। बहन सीता देवी जिसने मुझे मां सा प्यार दिया था उसकी शादी भी हो गई और बेवा भी हो गई। 2 साल बाद बहन गोरज की शादी हुई। शादी वाले दिन बहन गोरज की सास ने किसी घरेलू वजह के कारण, जो मां बेटे में थी जहर खा लिया और उसकी मौत हो गई। शादी तो हो गई लेकिन बहन गोरज को अजीब सी बीमारी हो गई, जैसे किसी रूह की पकड़ हो। आम तौर पर मैं ऐसी बातों में विश्वास नहीं करता। लेकिन यह तो घर की बात थी, सामने देख रहा था। एक आचार्य था गढ़ीकपूरा में, दायरा बनाकर गोरज बहन को उसमें बिठाया और पूछने लगा तुम कौन हो, क्या चाहते हो। थोड़ी देर बाद गोरज बहन कहने लगी ‘‘मैं निक्को हूँ”। उसकी सास का नाम निक्को था। फिर उसने पूछा कि क्या चाहती हो? उसने कहा, “गया जाकर मेरी गती कराओ। मैं बहुत दुखी हूँ।” आचार्य का नाम तीर्थराम था। उसने कहा इतना पैसा कहाँ से लाएँ, सब तो शादी पर खर्च हो गया। जो कुछ बचा था वो तेरे मरने पर। वो कलाई पर हाथ रखकर कहने लगी, यह जो पहनाये हैं जेवर मैंने। और गया पिण्ड भरवाने के बाद ही गोरज बहन की हालत ठीक हो गई और फिर सेहत भी ठीक हो गई। बहन सीतादेवी हमारे घर रही। फिर उसका देवर मुंशीराम आया और उसने कहा कि भाभीजी हमारे साथ ही रहेंगी। मैं मरदान ले जाने उन्हें यहाँ आया हूँ। बहनजी से भी पूछ लिया, उन्होंने भी कहा कि सब ठीक है मैं अपने घर जाऊंगी और उनके हमराह चले गये। हर पूर्णमासी को हमारे घर प्रसाद बनता था। सब लोग आते इतना-इतना प्रसाद मिलता कि रोटी खाने की जरूरत नहीं होती थी। देसी घी का प्रसाद पिताजी खुद बनाया करते थे। काफी बनाते और फिर मुझे 4 जगह प्रसाद ले जाना पड़ता। पहले मरदान बेबे सीतादेवी को, फिर बालागढ़़ी रानी बेबे को, फिर गढ़ी कपूरा बहन गोरज और बुआजी को।

राधा कृष्ण कपूर

जन्म - जुलाई 1912 देहांत - 14 जून 1990

5 thoughts on “स्मृति के पंख – 7

  • गुरमेल सिंह भमरा लंदन

    विजय भाई , जीवनी बहुत अच्छी लग रही है , जी चाहता है ऐसे ही पड़ता जाऊं . कितना जनून्न था उस वक्त अंग्रेजों की गुलामी से छुटकारा पाने का . कितने लोगों ने कुर्बानिआन दीं, कितने जेलों में गए . इस में एक बात यह भी साबत हो जाती है कि अंग्रेजों ने अंग्रेजी पड़ाई भारत पर ठुंसी तो इस लिए थे कि सब अम्न्ग्रेज़ भगत हो जायेंगे और उन्हों को भारत पर राज करने के लिए सस्ती लेबर भी मिल जायेगी लेकिन अंग्रेजी विद्या पडके नौजवानों को पता चल गिया कि वोह गुलाम हैं और इस गुलामी से छुटकारा पाने का भी ढंग मालूम कर लिया था .

    • विजय कुमार सिंघल

      आपकी बात सच है भाई साहब. लेकिन अगर वे अंग्रेजी न पढके हिंदी या संस्कृत भी पढ़ते तो भी उन्हें गुलामी का पता चल जाता, क्योंकि अनेक लेखकों ने इस पर अनेक पुस्तकें लिखी हैं. तुलसीदास जी भी लिख गए हैं- ‘पराधीन सपनेहु सुख नाहीं.’
      कभी कभी मैं भी सोचता हूँ कि अगर हम भी स्वतंत्रता आन्दोलन में भाग लेते तो हमारा सौभाग्य होता. मी जैसा व्यक्ति कभी ऐसे आंदोलनों के दूर रह ही नहीं सकता था. लेकिन आज हम मानसिक गुलामी से मुक्त होने के लिए जो कर रहे हैं, वह भी कोई छोटी लड़ाई नहीं है.
      लेखक महोदय की आत्मकथा आपको पसंद आ रही है, यह जानकर बहुत संतोष होता है.

  • Man Mohan Kumar Arya

    पुराने इतिहास से रूबरू होकर अच्छा लगा। मैंने कुंवर सुखलाल जी आर्यमुसाफिर, आर्य भजनोपदेसक की जीवनी में पढ़ा था कि एक बार पेशावर या फ्रंटियर में आर्य समाज का प्रचार करते हुए उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया। जज ने उनसे पूछा कि आप संयुक्त प्रान्त के रहने वाले हैं, यहाँ इतने दूर प्रचार क्यों कर रहे हैं? आर्य मुसाफिर जी ने कहा कि मेरा निवास बुलंदशहर और ये फ्रंटियर दोनों भारत में हैं। आप यूरोप वासी यहाँ इतनी दूर क्या कर रहें हैं? यह सुन कर जज निरुत्तर हो गया था। आत्मकथा रोचक है।

    • विजय कुमार सिंघल

      सही कहा, मान्यवर. इस आत्मकथा में वर्णित कई घटनाओं की पुष्टि अन्य स्रोतों से भी होती है. उदाहरण के लिए, इसमें लिखा है कि एक गवर्नर पब्लिक को मारने की कोशिश में हरिकिशन को फाँसी हुई और रणवीर तथा चमनलाल अपील में छूट गए. मैंने महात्मा आनंद स्वामी सरस्वती (पूर्व नाम लाला खुशहाल चन्द) का एक लेख पढ़ा था. वे उक्त रणवीर के पिता थे. उन्होंने लिखा था कि रणवीर को फांसी की सजा सुनाई गयी थी, परन्तु उनको पूरा विश्वास था कि वह निर्दोष है और अंत में निर्दोष ही सिद्ध हुआ.

      • Man Mohan Kumar Arya

        जी हां। महात्मा आनंद स्वामी जी का यह संस्मरण मैंने भी पढ़ा था और मुझे याद भी है। महात्मा आनंद स्वामी जी का देहरादून में वैदिक साधन आश्रम तपोवन की स्थापना में बहुत बड़ा योगदान है। उन्होंने ही अमृतसर के एक सेठ बावा गुरमुख सिंह जी को इसके लिए प्रेरणा की थी। मैंने उनका एक प्रवचन दिसम्बर १९७५ में दिल्ली के आर्य समाज स्थापना शताब्दी महासम्मेलन में सुना था।

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