धरती का अंतस डोल रहा था
धरती का अंतस डोल रहा था
बंद रिश्तों का पट खोल रहा था
महल अटारी छोड़ सभी जन
भाग रहे थे जान लिये
कुछ प्रिय प्यारी को याद किये
कुछ लिए हथेली प्राण प्रिये
प्राणों में संशय घोल रहा था
प्रणय प्रिया का मोल रहा था
भयभीत सभी नर नारी हुए
कम्पित अधर मुस्कान हरे
कुछ ज्ञान गीता का बांट लिए
कुछ भज रामायण पाठ किए
अहं सभी का छूट रहा था
नयनों से निद्रा टूट रहा था
कुछ धरती रक्षण का प्रण लिये
कुछ अपने मन से रण किये
हे प्रभु हमारे पाप हरो
अंतस भय का तुम नाश करो
मानव मन मनसा छोड़ रहा था
ईश्वर से जन को जोड़ रहा था
©Copyright Kiran singh
अच्छा गीत !