ग़ज़ल : भूल गयी
जब से बेटे से बिछड़ी वो खाना-पीना भूल गयी।
ऐसा लगता है जैसे माँ जीवन जीना भूल गयी।।
बेटा पेड़ बना पौधे से माँ ने यूँ खुशियाँ पायीं।
उसको सींचा देकर कितना खून-पसीना भूल गयी।।
बेटे के बेटे की खातिर कितने कपडे सी डाले।
खुद का दामन तार-तार था उसको सीना भूल गयी।।
जब भी उसको पढ़ती है वो रोती खूब अकेले में।
कब आया था बेटे का ख़त साल-महीना भूल गयी।।
जितना प्यार बड़े से उसको छोटे से भी उतना है।
किसने उसको पहुँचाया सुख किसने छीना भूल गयी।।
जब बरसों का बिछड़ा बेटा दरिया के उस पर दिखा।
कूद पड़ी पानी में पगली और सफीना भूल गयी।।
— डॉ. कमलेश द्विवेदी
बहुत अच्छी ग़ज़ल , आँखें नम हो गईं .
बहुत शानदार और मार्मिक ग़ज़ल, डॉ साहब ! हम जून अंक में इसी को छापेंगे.