विवाद और बहस
पक्ष विपक्ष हर बात का होता है। नजरिया सबकी अपनी अपनी, सोच समझ जो होती अपनी अपनी, ग्रहण करने की क्षमता जो होती अपनी अपनी। विवाद हो बहस हो लेकिन बात पर हो। लोग बात से हटकर व्यक्तिगत आरोप प्रत्यारोप पर उतरकर मंदबुद्धी के परिचय देने में जुझारु हो जाते हैं।
अपनी अपनी समझ के सिरे से सोच सार्थक रखना वो भी सच्ची चलो सही है, लेकिन आत्ममुग्ध हो सामने वाले को सिरे से नकार देना नहीं। सारे आविष्कार एक सोच से ही सम्भव रहा क्या ? वाद-विवाद बहस हमेशा से जरुरत रही है। 100% आप अपने को सही समझे, सामने वाला भी तो अपने को 100% सही समझेगा। आप अगर गलत नहीं हैं तो वो कैसे गलत होगा? + + मिलकर + ही होता है। सोच तो सकारात्मक हो।
हम विवाद और बहस से क्यों भागते हैं? जब हमारे पास तर्क नहीं होता है या हम दूसरे की बात को अपनाने में अपनी बेइज्जती समझते हैं। कहीं हमें कोई अल्पज्ञानी ना समझ बैठे। यह डर हमें सही बात को भी अपनाने से रोकता है।
जब मैं BEd की पढ़ाई कर रही थी तो एक क्लास होती थी, जिसमें सभी को कुछ सुनाना होता था। जब एक लड़के की बारी आई, तो उसने सुनाया-
पत्थर पूजन हरी मिले, तो मैं पूजूं पहाड़
या तो भली चक्की, पीस खाए संसार
मेरी भी बारी आई, तो मैं भी सुना बैठी-
कंकड़ पत्थर जोड़ के, मस्जिद लई बनाय
ता पे मुल्ला बांग दे, क्या बहरा हुआ खुदाय
पूरी कक्षा ने पहले तो एन्जॉय किया। फिर बहस शुरू हुई। लगा मानो हिन्दू मुस्लिम युद्ध हो जाएगा। मुझे सीख मिली कि अपने गुस्से पर हमेशा नियंत्रण रखना चाहिए।
— विभा रानी श्रीवास्तव
विभा जी , विवाद और बहस , इस पर आप ने रौशनी डाली , मुझे बहुत अच्छा लगा . बहस से हम बहुत कुछ सीखते हैं लेकिन जब कोई मुझे हरा दे मुझे ख़ुशी होती है किओंकि इस से जानकारी बडती है . जब हम सिर्फ सकार्त्मिकता पर ही अपनी जिद को काएम रखते हैं , तो वोह नकार्त्मिक बातें जिन से हमारा नुक्सान हुआ है , छिप जाएंगी और हम संभल नहीं पाएंगे . मेरे विचार में जब कोई हमारे समाज में अपने दोषों को सामने नहीं लाता तो हम उन गलतिओं से कुछ सीखेंगे नहीं . बहस हारने हराने के लिए नहीं होनी चाहिए , कुछ सीखने के लिए होनी चाहिए .
बहुत अच्छा और शिक्षाप्रद संस्मरण !