“खर-पतवार”
रोज-रोज ना होय रे मुरख, तेरा मन मुझसे मनुहार
मेरे अंदर भी एक आदम, खुद झिझके ना करे गुहार |
बहुत मनाया नहीं पिघलता, पत्थर सा दिल है मानों
दिख जाता गर बाहर होता, चीखें धांय करे धिक्कार ||
पटरी लेकर पढता-लड़ता, अब करता कागज का वार
ना जाने क्या ले लेगा लड़, लिख लेगा अपने लिलार |
महल अटारी मान मनौवल, जर-जमीन अरु जोरू
किसका है किसके अधीन, कब हुआ किसीका तारनहार ||
कथनी करनी अपने-अपनी, भुगतेगा बावला विचार
मान-पान कटुता की खेती, बिन सींचे ना होय साकार |
पौध लगाया कटक-कटीला, है मन में चुन लें गुलाब
काट खड़ी यें फसल सुनहरी, भर लें खुद अपने बखार ||
रोज चिरैया तिनका लाकर, डाली पर करती चकचार
बड़े जतन ले कंकर-पत्थर, जोड़ा खड़ा किया आकार
रहना है किसकों कित छैंया, देखों दर्शन खड़ी मचान
रंग ले छू ले अपना महला, उग आया है खर-पतवार ||
महातम मिश्र
वाह बहुत खुब श्रीमान जी बहुत अच्छी कविता!!!
बहुत बहुत धन्यवाद श्री रमेश कुमार सिंह जी, अन्नदाता पर भी नजर डालें और कुछ विचार व्यक्त करें………
बहुत बढ़िया, महातम जी ! आल्हा की तर्ज़ पर यह कविता पढ़कर मजा आ गया. मैंने भी बहुत आल्हा गाई है. मुझे “इंदल हरण” बहुत हद तक याद है.
बहुत बहुत धन्यवाद माननीय विजय कुमार सिंघल जी, आप ने इस रचना को उसके वजूद पर जाकर हौसला बढ़ाया, बहुत ख़ुशी हुयी मान्यवर…….