कविता

“खर-पतवार”

रोज-रोज ना होय रे मुरख, तेरा मन मुझसे मनुहार

मेरे अंदर भी एक आदम, खुद झिझके ना करे गुहार |

बहुत मनाया नहीं पिघलता, पत्थर सा दिल है मानों

दिख जाता गर बाहर होता, चीखें धांय करे धिक्कार ||

पटरी लेकर पढता-लड़ता, अब करता कागज का वार

ना जाने क्या ले लेगा लड़, लिख लेगा अपने लिलार |

महल अटारी मान मनौवल, जर-जमीन अरु जोरू

किसका है किसके अधीन, कब हुआ किसीका तारनहार ||

कथनी करनी अपने-अपनी, भुगतेगा बावला विचार

मान-पान कटुता की खेती, बिन सींचे ना होय साकार |

पौध लगाया कटक-कटीला, है मन में चुन लें गुलाब

काट खड़ी यें फसल सुनहरी, भर लें खुद अपने बखार ||

रोज चिरैया तिनका लाकर, डाली पर करती चकचार

बड़े जतन ले कंकर-पत्थर, जोड़ा खड़ा किया आकार

रहना है किसकों कित छैंया, देखों दर्शन खड़ी मचान

रंग ले छू ले अपना महला, उग आया है खर-पतवार ||

महातम मिश्र

*महातम मिश्र

शीर्षक- महातम मिश्रा के मन की आवाज जन्म तारीख- नौ दिसंबर उन्नीस सौ अट्ठावन जन्म भूमी- ग्राम- भरसी, गोरखपुर, उ.प्र. हाल- अहमदाबाद में भारत सरकार में सेवारत हूँ

4 thoughts on ““खर-पतवार”

    • महातम मिश्र

      बहुत बहुत धन्यवाद श्री रमेश कुमार सिंह जी, अन्नदाता पर भी नजर डालें और कुछ विचार व्यक्त करें………

  • विजय कुमार सिंघल

    बहुत बढ़िया, महातम जी ! आल्हा की तर्ज़ पर यह कविता पढ़कर मजा आ गया. मैंने भी बहुत आल्हा गाई है. मुझे “इंदल हरण” बहुत हद तक याद है.

    • महातम मिश्र

      बहुत बहुत धन्यवाद माननीय विजय कुमार सिंघल जी, आप ने इस रचना को उसके वजूद पर जाकर हौसला बढ़ाया, बहुत ख़ुशी हुयी मान्यवर…….

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