आत्मकथा

आत्मकथा – दो नम्बर का आदमी (कड़ी 52)

उन दिनों मैं पुस्तक लेखन पर अधिक ध्यान दे रहा था। घर पर कोई कार्य था नहीं, इसलिए प्रातः जल्दी उठकर मैं 2-3 पेज रोज लिख लेता था और तब शाखा जाता था। मैं बेसिक तथा कोबाॅल प्रोग्रामिंग भाषाओं पर दो पुस्तकें पहले लखनऊ में ही लिख चुका था। वे पुस्तकें दिल्ली के एक प्रकाशक ‘पुस्तक महल’ ने छापने के लिए स्वीकार कर ली थीं और मैंने अपनी पांडुलिपियाँ उनको भेज दी थीं। उन्होंने लगभग 1 साल तक वे पांडुलिपियाँ अपने पास रखी रहने दीं और फिर यह कहकर वापस कर दीं कि हम इन्हें नहीं छाप सकेंगे। वैसे भी बेसिक और कोबाॅल का प्रचलन तब तक कम हो गया था, इसलिए पुस्तकों की सफलता की संभावना कम थी। इसलिए मैंने एक ऐसी पुस्तक हिन्दी में लिखना प्रारम्भ किया, जो कम्प्यूटर के बारे में मौलिक और तकनीकी जानकारी देती हो तथा जो कम्प्यूटर विज्ञान के विद्यार्थियों के लिए अच्छी पाठ्यपुस्तक का काम दे सके।

उस पुस्तक के लिए मैंने बहुत मेहनत की और उस समय तक कम्प्यूटर विज्ञान के प्रमुख अंगों को भी उसमें शामिल किया था। पुस्तक करीब 200-225 पृष्ठों की थी, जो छपाई में शायद 250 पृष्ठों की होती। यह पुस्तक छापने के लिए दिल्ली के बी.पी.बी. पब्लिकेशंस तैयार हो गये। राॅयल्टी शायद 7 या 8 प्रतिशत तय हुई थी। मैंने पांडुलिपि उनको भेज दी। यहाँ मैंने गलती यह कर दी कि उसकी फोटोकाॅपी अपने पास नहीं रखी। कारण सिर्फ यह था कि मैं फोटोकाॅपी कराने में होने वाले 200 रुपये के खर्च को बचाना चाहता था। यह लोभ आगे चलकर मुझे बहुत महँगा पड़ा।

करीब 6 माह तक प्रकाशक महोदय उस पांडुलिपि को रखे रहे और बार-बार मुझे आश्वासन देते रहे कि हम आपकी किताब जरूर छापेंगे। जब मेरा धैर्य चुकने लगा, तो अचानक उन्होंने सूचित किया कि मेरी पांडुलिपि उनके कार्यालय को शिफ्ट करने में कहीं खो गयी है और मैं उसकी फोटोकाॅपी भेज दूँ। मुझे बड़ा दुःख हुआ और क्रोध भी आया। मैंने उन्हें लिखा कि आपने मेरी एक साल की मेहनत बेकार कर दी, इसका आपको मुआवजा देना होगा। बी.पी.बी. पब्लिकेशन के स्वामी श्री मुनीश जैन सज्जन व्यक्ति हैं। वे मुआवजा देने को मान गये। मैं कम से कम 20 हजार मुआवजा चाहता था, परन्तु वे केवल 10 हजार देने को तैयार हुए। खैर, मैंने स्वीकार कर लिया।

इसके साथ ही उन्होंने मुझे एक पुस्तक लिखने का प्रस्ताव दिया। उन्होंने मुझे अपने प्रकाशन से छपी एक अंग्रेजी पुस्तक “PC Companion” की प्रति मुझे दी और कहा कि उन्हें ऐसी ही बल्कि इससे भी अच्छी पुस्तक हिन्दी में चाहिए। मैंने उनसे कहा कि मैं निश्चित रूप से उनकी उम्मीद से भी अच्छी किताब लिख दूँगा। मैंने उनसे छः माह का समय लिया। मैंने यह भी कह दिया कि यदि वे मेरी उस पुस्तक को छापेंगे, तो मैं मुआवजे के रूप में मिल रहे 10 हजार रुपयों को उसकी राॅयल्टी का एडवांस मान लूँगा अर्थात् खोयी हुई पांडुलिपि का मुआवजा नहीं लूँगा।

वापस वाराणसी आकर मैंने किताब लिखना शुरू कर दिया। जल्दी ही मैंने एक अच्छा अध्याय लिख डाला और वह उनको देखने के लिए भेजा। पता नहीं कि उन्होंने उसमें क्या देखा या न देखा कि पत्र भेज दिया कि अभी इस किताब को छापने का विचार नहीं है। मुझे बहुत अफसोस हुआ, परन्तु क्या कर सकता था।

यहाँ यह बता दूँ कि भारत के प्रकाशक केवल मार्केट की माँग के अनुसार ही पुस्तकें छापते हैं। उनके लिए पुस्तकें बेचने की कला ही महत्वपूर्ण है और पुस्तक लिखने की कला दो कौड़ी की भी नहीं है। वे लेखकों को मामूली बेराजगार व्यक्तियों से अधिक महत्व नहीं देते और यह माना करते हैं कि जो आदमी कोई दूसरा कार्य नहीं खोज पाता, वही लेखक बनता है। आपने चाहे कितनी भी अच्छी पुस्तक लिखी हो, यदि वह बिकने लायक नहीं है, तो कोई भी प्रकाशक उसे नहीं छापेगा। इसके विपरीत यदि कोई पुस्तक बिक सकती है, तो वह चाहे जितनी घटिया लिखी हो, प्रकाशक उसे छाप देंगे।

अपने इन कटु अनुभवों से सीख लेने के बाद मैंने इस सम्बंध में कई निर्णय किये। सबसे पहला निर्णय तो मैंने यह किया कि कोई भी पांडुलिपि किसी प्रकाशक को देने से पहले उसकी मूल या कम से कम छायाप्रति मैं अपने पास अवश्य रख लूँगा। भले ही उसको भेजने में एक-दो सप्ताह की देरी हो जाये।

दूसरी बात मैंने यह तय की कि अपनी लिखी हर पुस्तक केवल अपने नाम से ही छापने दूँगा, किसी दूसरे के नाम से कभी नहीं अर्थात् मैं भूत-लेखन (Ghost Writing) कभी नहीं करूँगा। प्रायः प्रकाशक लोग कुछ पैसा देकर लेखकों से पांडुलिपियाँ खरीद लेते हैं और फिर उसे अपने या अपने बच्चों के नाम से छाप देते हैं। इससे लेखक को थोड़ा पैसा तो मिल जाता है, लेकिन कोई श्रेय नहीं मिलता, क्योंकि वह यह नहीं कह पाता कि यह पुस्तक मैंने लिखी है। मैं किसी को भी अपने साथ ऐसा करने नहीं देना चाहता था।

तीसरा निश्चय मैंने यह किया कि मैं भी बाजार की आवश्यकता और माँग के अनुसार लिखूँगा, ताकि यदि एक प्रकाशक उसे छापने से इंकार कर दे, तो दूसरे प्रकाशकों से बात चलायी जा सके।

अपने इन निर्णयों पर मैं आज तक डटा हुआ हूँ और इनका मुझे काफी लाभ भी हुआ है। यदि कभी किसी कारणवश अपनी पुस्तक पर मैं अपना नाम नहीं देना चाहता, तो अपनी श्रीमती जी के नाम से छपवा देता हूँ। इन पंक्तियों के लिखते समय तक मेरी कई दर्जन पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं, जिनमें से लगभग आधी पुस्तकों पर श्रीमती वीनू जी का नाम है।

फिर भी तमाम सावधानियों के बावजूद मैं एक प्रकाशक से धोखा खा ही गया। हुआ यों कि हमारे वाराणसी कार्यालय में गोरखपुर के एक प्रकाशक-सह-पुस्तक विक्रेता आया करते थे, जिनका नाम है शैवाल प्रकाशन। उन दिनों मैंने गणितीय पहेलियों पर एक छोटी सी पुस्तक लिखी थी। हमारे हिन्दी अधिकारी श्री नरेन्द्र प्रसाद धस्माना के सुझाव पर वह पुस्तक मैंने उन्हें दिखायी, तो उन्हें पसन्द आ गयी। परन्तु कहा कि यदि मैं केवल छपाई का आधा खर्च दे दूँ, तो वे इसे छाप देंगे और सरकारी पुस्तकालयों मेें बेच देंगे, जिससे रकम बढ़कर वापस आ जायेगी। उन्होंने छपाई का मेरा हिस्सा 2700 रुपये बताया। मैंने सोचा कि यह रकम ज्यादा नहीं है, अगर किताब छप गयी तो इतनी तो वापस आ ही जायेगी। इसलिए नरेन्द्र धस्माना जी के सुझाव पर मैंने उनको रुपये दे दिये।

करीब तीन महीने बाद उनका पत्र आया कि किताब छपी हुई प्रेस में पड़ी है। वहाँ से माल उठाने के लिए रुपये कम पड़ रहे हैं अतः मैं 1400 रुपये और भेज दूँ। मैं यह रकम भेजना नहीं चाहता था, परन्तु जब बार-बार ऐसे ही पत्र आने लगे, तो मैंने भेज दिये। उसके बाद आज तक उनका कोई पत्र नहीं आया है। मैंने रजिस्ट्री से उनको पत्र भेजा तो वह यह लिखकर वापस आ गया कि यह कार्यालय यहाँ से चला गया है। इस प्रकार मुझे सीधे-सीधे चार हजार एक सौ रुपये की चपत लग गयी। मैंने यह सावधानी अवश्य रख ली थी कि किताब देने से पहले उसकी फोटोकाॅपी अपने पास रख ली थी।

वैसे धोखे मैंने और भी खाये हैं। गाँधी नगर, अहमदाबाद के एक पत्र-मित्र डाॅ. जयेश ठाकर, जो रेलवे में डाक्टर हैं, वाराणसी आकर मुझसे 7000 रुपये यह कहकर ले गये कि उनके एक भतीजे का एडमीशन इलाहाबाद में एम.बी.बी.एस. में हो रहा है, उसकी फीस में रुपये कम पड़ रहे हैं। यदि अभी फीस जमा नहीं की तो उसका एडमिशन रद्द हो जाएगा। मैंने अपने बैंक से उधार लेकर उनको रुपये दे दिये। वे मुझे उनके बदले में अपना चैक दे गये थे। परन्तु वह चैक यह लिखकर वापस आ गया कि खाते में पैसा नहीं है। मैंने उस डाक्टर से काफी पत्र-व्यवहार किया और फोन भी कराये, परन्तु उसे पैसा न लौटाना था न लौटाया। बाद में मुझे पता चला कि वह ऐसी ही कहानी सुनाकर वाराणसी और दिल्ली से कई सज्जनों से पैसा ठग ले गया था। स्वयं तथा पत्नी के डाक्टर होते हुए भी वह ऐसा नीच कार्य करता है।

(जारी…)

डॉ. विजय कुमार सिंघल

नाम - डाॅ विजय कुमार सिंघल ‘अंजान’ जन्म तिथि - 27 अक्तूबर, 1959 जन्म स्थान - गाँव - दघेंटा, विकास खंड - बल्देव, जिला - मथुरा (उ.प्र.) पिता - स्व. श्री छेदा लाल अग्रवाल माता - स्व. श्रीमती शीला देवी पितामह - स्व. श्री चिन्तामणि जी सिंघल ज्येष्ठ पितामह - स्व. स्वामी शंकरानन्द सरस्वती जी महाराज शिक्षा - एम.स्टेट., एम.फिल. (कम्प्यूटर विज्ञान), सीएआईआईबी पुरस्कार - जापान के एक सरकारी संस्थान द्वारा कम्प्यूटरीकरण विषय पर आयोजित विश्व-स्तरीय निबंध प्रतियोगिता में विजयी होने पर पुरस्कार ग्रहण करने हेतु जापान यात्रा, जहाँ गोल्ड कप द्वारा सम्मानित। इसके अतिरिक्त अनेक निबंध प्रतियोगिताओं में पुरस्कृत। आजीविका - इलाहाबाद बैंक, डीआरएस, मंडलीय कार्यालय, लखनऊ में मुख्य प्रबंधक (सूचना प्रौद्योगिकी) के पद से अवकाशप्राप्त। लेखन - कम्प्यूटर से सम्बंधित विषयों पर 80 पुस्तकें लिखित, जिनमें से 75 प्रकाशित। अन्य प्रकाशित पुस्तकें- वैदिक गीता, सरस भजन संग्रह, स्वास्थ्य रहस्य। अनेक लेख, कविताएँ, कहानियाँ, व्यंग्य, कार्टून आदि यत्र-तत्र प्रकाशित। महाभारत पर आधारित लघु उपन्यास ‘शान्तिदूत’ वेबसाइट पर प्रकाशित। आत्मकथा - प्रथम भाग (मुर्गे की तीसरी टाँग), द्वितीय भाग (दो नम्बर का आदमी) एवं तृतीय भाग (एक नजर पीछे की ओर) प्रकाशित। आत्मकथा का चतुर्थ भाग (महाशून्य की ओर) प्रकाशनाधीन। प्रकाशन- वेब पत्रिका ‘जय विजय’ मासिक का नियमित सम्पादन एवं प्रकाशन, वेबसाइट- www.jayvijay.co, ई-मेल: jayvijaymail@gmail.com, प्राकृतिक चिकित्सक एवं योगाचार्य सम्पर्क सूत्र - 15, सरयू विहार फेज 2, निकट बसन्त विहार, कमला नगर, आगरा-282005 (उप्र), मो. 9919997596, ई-मेल- vijayks@rediffmail.com, vijaysinghal27@gmail.com

5 thoughts on “आत्मकथा – दो नम्बर का आदमी (कड़ी 52)

  • गुरमेल सिंह भमरा लंदन

    विजय भाई , जो आज लिखा है पड़ कर मन इतना दुखी हुआ कि बता सकता . इतनी हेराफेरी !! आप ने जो लिखा सही साबत हो गिया कि लेखक लोग भूखे मरते हैं . यह परकाशक लोग जो करते हैं , आज पहली बार इन् से घिरणा हो गई . कालिज के ज़माने में मुझे नावल कहानिआन पड़ने का बहुत शौक था और इस तरह की बातें पड़ने को मिलती थी . तब मुझे इतना गियान नहीं था और जो शख्स धोखे से आप से पैसे लेकर आप को चैक दे गिया जब कि बैलेंस है ही नहीं था ऐसे लोग मंदिरों में जा कर धार्मिक होने का पाखंड करते हैं . कितने लोग गिर गए हैं .

    • विजय कुमार सिंघल

      आभार, भाई साहब ! दुनिया में सब तरह के लोग मिलते हैं. पर मुझे अच्छे लोग ही ज्यादा मिले हैं. एकाध बार धोखा भी खाया है, पर यह सब तो जिंदगी में चलता रहता है. एक दो प्रकाशकों ने धोखा दिया लेकिन कई ने बहुत मदद भी की और अच्छा भी किया. यही तो दुनिया है. तुलसी दास जी ने लिखा है-
      जड़ चेतन गुण दोष मय विश्व कीन्ह करतार !
      संत हंस गुण गहहिं पय, परिहरि वारि विकार !!
      यानी दुनिया में गुण और दोष दूध और पानी की तरह मिले हुए हैं. यह हमारा काम है कि हम उसमें से दूध ग्रहण कर लें और पानी को छोड़ दें.

  • Man Mohan Kumar Arya

    आपके लेखन व प्रकाशन के कुछ अनुभव पढ़ने को मिले। एक बार मेरे एक मित्र डॉ. दिनेश चमोला जी ने भी अपनी किसी आरंभिक कृति के प्रकाशन के बारे में बताते हुए कहा था कि जब वह प्रकाशित हुई तो उस पर किसी अन्य लेखक का नाम देखकर उन्हें हैरानी हुई थी। पूछने पर उत्तर मिला था कि गनीमत समझो कि हमने तुम्हारी कृति प्रकाशित कर दी। आज दूसरी बार इससे मिलते जुलते आपके अनुभव पढ़कर लेखक पर जो बीतती है, उसका कुछ अनुभव हुआ। आज पहली बार पता चला कि आपकी कई दर्जन पुस्तके प्रकाशित हो चुकीं हैं। आशा है आगामी किस्तों में सभी के या कुछ के नाम जानने को मिलेंगे। आज की क़िस्त रोचक एवं ज्ञानवर्धक है, धन्यवाद एवं बधाई।

    • विजय कुमार सिंघल

      मान्यवर, सादर प्रणाम ! आपकी सूचना के लिए मेरी अब तक कम्प्यूटर विषय पर 75 पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं. इनके अतिरिक्त छुटपुट 4-5 पुस्तकें भी प्रकाशित हैं. आत्म कथाएं अभी कम्प्यूटर पर ही हैं यानी कागज़ पर नहीं छपीं.
      दुनिया में हर प्रकार के लोग होते हैं. मेरे कई प्रकाशक बहुत ही अच्छे हैं. अनेक बहुत अच्छे मित्र भी हैं.
      आपको हार्दिक धन्यवाद!

      • Man Mohan Kumar Arya

        हार्दिक धन्यवाद श्री विजय जी इस जानकारी के लिए।

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