~औरत की कीमत ~
आदमियत क्यों हर बार
भारी पड़ जाती है
औरत क्यों हर बार
दबी-कुचली बनी रह जाती है|
औरत क्यों ताकतवर होते हुए भी
कमजोर सी हो जाती है
औरत क्यों हर हाल में
हारी-हारी सी स्वंय को पाती है|
कितनी भी ऊँचाईयाँ छू ले
पर मर्दों की नजरों में
क्यों नहीं ऊँचाईयाँ पाती है
औरत क्यों स्वयं को ठगा सा पाती है
जिस दुनिया को बनाया उसी में खो जाती है
खुद को खोकर भी खाली हाथ रह जाती है
औरत क्यों ठगी-ठगी सी रह जाती है|
हर हाल हर परिस्थिति में
अपने को ढाल लेती है
मर्दों पर भी राज कर लेती है
फिर भी क्यों नजरों में ओ़छी होती है
इन मर्दों की जननी औरत
मर्दों में ही सम्मान नहीं पाती है
मर्दों की हाथ का क्यों
खिलौना बन रह जाती है
कुछ भी कितना भी कर ले
अंततः मर्दों की ही बात रह जाती है|
औरत की कीमत क्यों
मर्दों के आगे कम हो जाती है
औरत दुर्गा,सरस्वती ,काली है
पर मर्दों की दुनिया में क्यों खाली-खाली है|
+++ सविता मिश्रा +++
अच्छी कविता, बहिन जी.