गीत/नवगीत

गीत

शीतलता से रहित चांदनी ,सूरज करे तपन ,
धुंधला,धुंधला सा दीखता है मन का ये दर्पण !

प्रथम मिलन में कभी हुआ था ,दोनों में सम्बन्ध,
किन्तु मोतियों ने तोडा है, माला से सम्बन्ध !
ये गुलाब के बागीचे ,अब नागफनी के वन !

धुंधला , धुंधला सा दीखता है, मन का ये दर्पण !

विषम परिस्थितियों ने दी ,कुछ ऐसी मजबूरी,
कमल प्रथक भौरों से दीखते, म्रग से कस्तूरी !
ऋषि ,मुनियों के हाथ जल रहे करते हुए हवन !

धुंधला, धुंधला सा दीखता है मन का ये दर्पण !

इक्षाएं विधवा की देहरी फांदें बेमोके ,
कपट कोठरी छल की सांकल दरवाजी धोखे
घर का सूना, सूना लगता अनब्याहा आँगन !

धुंधला, धुंधला सा दीखता है मन का ये दर्पण !

2 thoughts on “गीत

  • प्रीति दक्ष

    badiya geet

  • विजय कुमार सिंघल

    बहुत अच्छा गीत ! वाह वाह !

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