आत्मकथा

स्मृति के पंख – 36

30 अप्रैल 1957 को राज की शादी हुई। डोली जाने के बाद कुछ ही दिन बाद मुझे तार मिला कि राज बीमार है। हम दोनों मुजफरनगर चले गये। वहाँ ऐसा चर्चा सुना कि पृथ्वीराज का भूत राज को चमड़ गया है और कुछ लोग घूंआ जलाकर राज से पूछताछ कर रहे थे। जब मैंने ऐसी हालत देखी, तो मुझसे बरदाश्त न हो सका और गोकुलचन्द को कहा कि भई राज ओर पृथ्वीराज का बहुत प्यार था। यह भूतभात वाली बातें तुम कैसे सोचने लगे। बीमारी तो मान सकता हूँ, लेकिन ऐसी बातें मैं नहीं मानता। अगर तुमने इस तरह का इलाज कराना है, तो उसे मेरे हमराह भेज दो और हम राज को साथ लेकर आ गये। यह ठीक था कि राज को होश न था। वह हमें भी पहचान नहीं सकी।

लुधियाना आकर मैंने बंसी लाल (विद्या बहन का बड़ा लड़का), जो मेडिकल रिप्रेजेंटेटिव था, डाक्टर के साथ उसकी अच्छी वाकफियत थी। उसकी सलाह से मेंटल अस्पताल गोविन्दगढ़ में राज को दिखलाया। सरदार डाक्टर था। उसने देखभाल के बाद राज को दाखिल कर लिया। हफ्ते में दो दिन बिजली का शाक लगाता, राज को सब कुछ याद आने लगा। तकरीबन एक महीना वहाँ इलाज चलता रहा। अब मुझे भी लगता कि राज ठीक है। मुझे ठीक तरह बातचीत करती और फिर हम छुट्टी लेकर घर आ गये। कुछ हिदायतें डाक्टर ने दी। कुछ वक्त तो राज हमारे पास रही, फिर जब यशपाल उसे लेने आये, तब मैंने उसे ताकीद की कि राज का वातावरण रहन सहन ठीक रखा जाये और उसकी मर्जी के मुताबिक सब कुछ हो, ऐसी ही डाक्टर की हिदायत है।

इसके बाद यशपाल ने तिलकराज की सलाह मशवरा से मुलाजमत ढूढ़ने के लिए दरख्वास्तें दीं। तिलकराज उन दिनों दिल्ली में पोस्ट आफिस (टेलीग्राफ) में मुलाजिम थे। और कुछ अरसा बाद यशपाल को रेलवे में नौकरी मिल गई। मुझे अब लगता कि राज के अलग रहने से उसकी दिमागी हालत सामान्य रहेगी। गोकुलचन्द के साथ रहने में उसका वातावरण ठीक न था, इसलिए मुझे ज्यादा फिक्र रहती। फिर भी राज को दुबारा तकलीफ हो गई और दुबारा उसे हमने अमृतसर मेंटल अस्पताल में दाखिल करवाया था। वहाँ का डाक्टर बहुत काबिल था। शाम को मरीजों और उनके वारिसों को बैठाकर लेक्चर देता। ज्यादा यह समझाने की कोशिश करता कि मरीज को खुशी का माहौल मिले और ऐसे मरीज आमतौर पर जिनके दिमाग बहुत अच्छे होते हैं और उनकी ख्वाहिशात भी बड़ी होती हैं पर ज्यादा असर करता है। इलाज के साथ-साथ मरीज का माहौल बहुत खुशगवार होना चाहिए। वहाँ भी हम दोनों तकरीबन एक महीना रहे और यशपाल भी कुछ दिन रहा।

बाद में बेबी (राज की बड़ी लड़की) का जन्म हुआ और उसके बाद रमा का। रमा का रंग काला था, इसलिए हम सब लोग उसे काली कहते थे। राज ने कहा- मैं दो-दो बच्चों को नहीं संभाल सकती। इसलिए काली को हमने अपने पास रख लिया। इसके बाद भी राज की तबीयत एक बार (जब वह लुधियाना में थी) खराब हो गई। मैंने डाक्टर सूद को बुलाने के लिए सुभाष को भेजा। सुभाष ने आकर कहा- पिक्चर देखने गया है। मैंने दुबारा सुभाष को उसकी कोठी पर भेजा, जब पिक्चर खत्म होने का समय था। राज की हालत काफी परेशानकुन थी। बस उठती-बैठती सर कभी एक तरफ कभी दूसरी तरफ चारपाई से लगाती, काफी बैचेन थी। डाक्टर ने आकर कुछ दवाइयां लिख दीं।

मैं दवाइयां लेने के लिए जाने ही वाला था (यह उन दिनों की बात है जब निर्मला की मंगनी हो चुकी थी) कि निर्मला के ससुर (श्री हुकुमचन्द जी) जो कभी-कभी हमारे घर आया करते थे, आये। मुझसे पूछा- कहाँ जा रहे हो? मैंने कहा- राज की तबियत ठीक नहीं है। दवाइयाँ लेने जा रहा हूँ। उसने मुझे ठहरने को कहा और राज को देखकर कहने लगा- खालिस शहद और देसी घी है घर में? उसने दोनों को थोड़ा-थोड़ा मिलाकर थोड़ी सी आंच दी और दो चम्मच राज को खिला दिया। बस थोड़ी ही देर बाद राज को नींद आ गई। उसने मुझसे दवाई लाने से मना कर दिया। कहने लगा- अगर इसे नींद न आती, तो मैं तुझे न रोकता। लेकिन मेरा तजुरबा है। थोड़े दिन इसे शहद और देसी घी देना है। उसके बाद मैं खुद दवाई बनाऊंगा।

फिर एक पत्थर सा था, जिसे हकीक बोलता था, बाजार से लाया। उसे केले के छिलकों में रखकर उस पर कपड़ा बांधकर गुँथे आटे में लपेट कर गोला बना लिया और ऊपर से रस्सी बांध दी उपलों की आग में पूरी रात रखा रहा। सुबह निकालकर खरड़ किया और रत्ती भर माखन या मलाई के साथ रोजाना दोनों समय खिलाने को कहा। उसके इस इलाज से राज की सेहत व दिमागी हालत काफी अच्छी हो गई। उसने दुबारा भी ऐसा किया, लेकिन यशपाल राज को ले गया और शायद वहाँ पूरी तरह वह नुस्खा इस्तेमाल किया गया या नहीं, मैं नहीं कह सकता, लेकिन उसके बाद कभी राज को ज्यादा तकलीफ न तो सेहत की और न दिमाग की हुई। वैसे उसकी जिंदगी गुमसुम रहने वाली थी।

इससे पहले बेटी सुमन का जन्म सन् 1955 में हुआ था। पृथ्वी राज की मौत के बाद अभी तक राज मायूस ही रहती अकसर गुमसुम। सुमन (हैप्पी) की शक्ल पृथ्वीराज से मिलती थी और खूबसूरत भी वैसी ही थी। दाई ने राज को प्यार से बुलाकर कहा, बेटी इधर आकर देख, तेरा भाई आया है। हैप्पी को देखकर राज के चेहरे पर भी हंसी आई थी और कुछ दिन बाद बंसी लाल (विद्या बहन के लड़के) की मंगनी देहरादून में हुई थी। हरिकिशन खन्ना ने एक पार्टी की थी। उस रात मैंने, रघुनाथ, दीनानाथ, हरिकिशन ने मिलकर शराब पी थी। दीनानाथ कुछ बहक गया, जिससे दूसरे कमरे में बैठी राज को पता चला गया कि मैंने भी शराब पी है। वह रोती रही। जब मैंने देखा तो मुझे लगा जैसे उसकी आंखें सूज गई हों और अब भी वह रो रही थी। उस दिन मुझे अपने आप से घृणा हुई। मैंने राज के सर पर हाथ रखकर कहा- बेटी आज के बाद मैं शराब को छुऊंगा भी नहीं और उसके बाद शराब की लत से छूट गया और एक बुरी आदत जाती रही।

राधा कृष्ण कपूर

जन्म - जुलाई 1912 देहांत - 14 जून 1990

4 thoughts on “स्मृति के पंख – 36

  • विभा रानी श्रीवास्तव

    प्रेरक कहानी

  • Man Mohan Kumar Arya

    श्री राम कृष्ण कपूर जी का जीवन दुःख एवं संघर्षों से भरा हुआ है। वह जिस तरह से कठिनाइयों का सामना कर रहें है , वह प्रेरणादायक है। सभी मनुष्यों का भाग्य एक जैसा नहीं होता, यह श्री कपूर जी के जीवन को देखकर सिद्ध होता है।

  • गुरमेल सिंह भमरा लंदन

    बहुत दफा जब लड़किओं की शादी होती है तो सुसराल में वातावरण अच्छा न होने से लड़किओं को दीप्रैशन हो जाता है. लेखक की जिंदगी में दुःख ही दुःख दीख रहे हैं .आर्थिक मुसीबतों पर तो जीत हासल कर ली होगी लेकिन घर में दुःख बहुत सहे ,फिर भी इरादे के मजबूत थे.

  • विजय कुमार सिंघल

    लेखक ने अपनी बेटी के कहने से शराब पीना हमेशा के लिए छोड दिया यह प्रसन्नता की बात है।

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