हर एक पल कल-कल किए
हर एक पल कल-कल किए, भूमा प्रवाहित हो रहा;
सुर छन्द में वह खो रहा, आनन्द अनुपम दे रहा ।
सृष्टि सु-योगित संस्कृत, सुरभित सुमंगल संचरित;
वर साम्य सौरभ संतुलित, हो प्रफुल्लित धावत चकित ।
आभास उर अणु पा रहा, कोमल पपीहा गा रहा;
हर धेनु प्रणवित हो रही, हर रेणु पुलकित कर रही ।
सीमा समय की ना रही, मीमांसा भास्वर रही;
युग निकलते क्षण बिखरते, हैं पात्र मधुरम विचरते ।
हर देश शाश्वत हो रहा, रुन- झुन सुने झंकृत रहा;
‘मधु’ मानसी गति तज रहा, लय ले प्रमित थिरकित रहा ।
— गोपाल बघेल ‘मधु’, टोरोंटो, ओंटारियो, कनाडा
बढ़िया।
कविता अच्छी लगी .