मल विसर्जन : देसी या विदेशी
यह आश्चर्य और अत्यन्त दुःख की बात है कि अधिकांश उच्च शिक्षित भारतीय नागरिक अपनी परम्पराओं को अवैज्ञानिक और हेय दृष्टि से देखते हैं और उन्हें त्यागने में गर्व का अनुभव करते हैं. इसके साथ ही साथ पश्चिम की प्रथाओं और रिवाज़ों को बिना जाने और सोचे समझे विज्ञानसम्मत मानते हुए उन्हें अपनाने में अपना बड़प्पन मानने में कतई भी देर नहीं करते हैं. हम भारतीयों को लगने लगता है कि यदि अपनाने में देर कर दी तो पुरातनपंथी होने का टीका हमारे साफ़ सुथरे सुशिक्षित – दीक्षित भाल पर कलंक की तरह हमेशा के लिए चस्पा हो जाएगा.
मल विसर्जन के पाश्चात्य तरीके को ही लें, उसे हमने इतनी तेजी से अपनाया कि सारी दुनिया इस मामले में हमसे पीछे छुट गई. इसे अपनाने के शुरुआती दौर के बाद भी हमारी शरीर विज्ञानियों की बिरादरी चुप्पी साधे बैठी रही. सच कहें तो चिकित्सा विज्ञानियों की लगभग पूरी जमात ने ही इसे बिना आगा पीछा देखे स्वयं भी अपना लिया है. जबकि अमेरिका के प्रेसिडेंट जिमी कार्टर के एक दिन के कष्ट ने वहां के चिकित्सकों और मीडिया को अपनी ही परम्परा के औचित्य के बारे में सोचने के लिए मजबूर कर दिया था. यह 1978 के क्रिसमस के कुछ पहले की बात है, जब श्री कार्टर व्हाइट हाउस के अधिकारियों – कर्मचारियों को क्रिसमस पार्टी दे रहे थे. अचानक गम्भीर खूनी बवासीर (सिवियर हिमोरायड्स ) के कारण अत्यधिक कष्ट और दर्द ने इतना परेशान किया कि उन्हें पार्टी छोड़कर एक दिन की छुट्टी लेना पड़ी और एक शल्यक्रिया से गुजरना पड़ा. इजिप्ट के राष्ट्रपति अनवर सादात ने अपने परम मित्र की व्यथा से उद्वेलित होकर अपने देशवासियों से अपील की कि वे सभी जिमी कार्टर के लिए प्रार्थना करें.
इस घटना के कुछ सप्ताह बाद टाइम मैगजीन ने वहां के सुप्रसिद्ध प्रोक्टोलाजिस्ट डॉ.माइकेल फ्रेलिच (Michael Freilich) से प्रेसिडेंट की बीमारी के बारे में पुछा तो उन्होंने दो टूक जवाब दिया कि हमारा शरीर सिटिंग टायलेट (कमोड) के लिए बना ही नहीं है बल्कि यह स्क्वेटिंग (भारतीय शैली) के लिए ही बना है. उन्होंने मीडिया को बताया था कि हिमोरायड्स में एनल केनाल की रक्त शिराएं (वेंस) फुल जाती हैं और कभी कभी उनसे रक्तस्राव भी होने लगता है. वैसे तो हिमोरायड्स मोटापे, एनल सेक्स और प्रिगनेंसी के कारण हो सकता है परन्तु सबसे बड़ा कारण है मलत्याग के समय का जोर (स्ट्रेन). सिटिंग पोजिशन में स्क्वेटिंग की अपेक्षा तीन गुना ज्यादा ज़ोर लगता है, जिसके कारण रक्त शिराएं फुल जाती हैं. यही वज़ह है कि लगभग पचास प्रतिशत अमेरिकन इस रोग से ग्रस्त हैं. डॉ.माइकेल फ्रेलिच ने अपने चिकित्सा विज्ञान के ज्ञान तथा अनुभवों के आधार पर बताया था कि स्क्वेटिंग कोलोन कैंसर से भी बचाती है पर इस दिशा में उन्होंने कोई रिसर्च नहीं की है.
इजरायली शोधकर्ता डॉ. डोव सिकिरोव ने 2003 में किये अपने एक अन्य अध्ययन में पाया कि स्क्वेटर्स को मल निष्कासन में औसत 51 सैकंड लगते हैं और सिटर्स को 130 सैकंड. उनका यह शोध अध्ययन डायजेस्टिव डिसीजेस एंड साइन्सेस में प्रकाशित हुआ था. उन्होंने इसके लिए एनो रेक्टल एंगल को जिम्मेदार ठहराया था, जो कि सिटिंग पोजिशन में कम हो जाता है और मलमार्ग को कुछ ज्यादा ही संकरा कर देता है.
इस अध्ययन को आगे बढाते हुए जापानी चिकित्सकों ने मलाशय यानी रेक्टम में रेडियो कंट्रास्ट साल्यूशन डाल कर वीडियोग्राफी की और पाया कि सिटिंग में एनो रेक्टल एंगल 100 डिग्री का होता है और स्क्वेटिंग पोजिशन में यह 126 डिग्री का हो जाता है. उनका यह अध्ययन लोअर यूरिनरी ट्रेक्ट सिमटम्स नामक मेडिकल जर्नल में प्रकाशित हुआ था.
हालांकि सिटिंग टायलेट के खिलाफ़ वैज्ञानिकों ने मोर्चा जिमी कार्टर को हुए कष्ट की घटना से काफ़ी पहले ही खोल दिया था. दरअसल 1960 और 1970 के दशक के दौरान इस अभियान ने अच्छा ज़ोर पकड़ा. बोकूस की गेस्ट्रोएंट्रोलाजी की टेक्स्ट बुक (1964) जो कि उस समय की बेहद प्रचलित और मानक पुस्तक मानी जाती थी, में स्पष्ट लिखा है कि मलत्याग के लिए स्क्वेटिंग ही आदर्श स्थिति है, जिसमें जांघे मुड़कर पेट को दबाती हैं. प्रसिद्ध आर्किटेक्ट एलेक्जेंडर कीरा ने 1966 में अपनी पुस्तक “द बाथरूम्स” में स्पष्ट लिखा है कि स्क्वेटिंग पोजिशन मानव शरीर के लिए सर्वथा अनुकूल है.
वर्तमान में एक अध्ययन के अनुसार अमेरिका में ही 1.2 बिलियन लोग शौचालय नहीं होने से स्क्वेटिंग पोजिशन में ही मलत्याग करते हैं. उससे भी कहीं बहुत ज्यादा संख्या में लोग एशिया, मीडिल इस्ट और यूरोप के कई हिस्सों में आज भी स्क्वेटिंग के हिसाब से बनी टायलेट्स का ही इस्तेमाल करते हैं.
सिटिंग शौच का इतिहास
बताया जाता है कि अठारवीं सदी में शौच के लिए पूरी दुनिया के लोग घर से बाहर (यानी खुले में) ही ऊंकडू बैठकर शौच करते थे. सन 1850 के आसपास ब्रिटेन के किसी राजपुरुष की बीमारी के दौरान सुविधा की दृष्टि से शौच के लिए कुर्सीनुमा शौच शीट यानी कमोड जैसी व्यवस्था का आविष्कार किया था. बाद में तो गौरे अंगरेजों के राजा – रानियों को ख़ुश करने की नीयत से सुतारों और प्लम्बरों ने कुर्सी की डिजाइन में थोड़ा परिवर्तन करते हुए बैठक वाली शौच सुविधा को प्रचलित कर दिया. राजघराने के पीछे बिना सोचे – समझे भागने की मानवीय प्रवृति के चलते कमोड ने पश्चिम में व्यापक रूप धारण कर लिया. हालांकि उन्नीसवी सदी तक यह राजघरानों और प्रभावी लोगों की बपौती ही बनी रही. प्लंबर और केबिनेट बनाने वाले सोचते थे कि वे लोगों का जीवन स्तर उठा रहे हैं.
जबकि हकीक़त यह है कि शरीर रचना और क्रिया विज्ञान के मुताबिक़ मल विसर्जन का प्राचीन तरीका ही पूर्णरूपेण वैज्ञानिक है. समूचे विश्व में यही प्राकृतिक तरीका सबसे ज्यादा प्रचलित रहा है. प्रसिद्ध चिकित्सक डॉ.विलियम विल्स ने कमोड शैली को मानव शरीर रचना के सर्वथा विपरीत निरूपित किया है.
यह भी सच है कि आज भी दुनिया के लगभग साठ प्रतिशत से अधिक लोग कमोड का प्रयोग न करते हुए प्राकृतिक यानी ऊंकडू बैठकर की शौच करते हैं.
क्रिया विज्ञान की दृष्टि से शौच (फिजियोलॉजी ऑफ़ डिफिकेशन)
यदि हम शौच की क्रिया की फिजियोलॉजी का एक बार पुनरावलोकन करें तो शौच के श्रेष्ठ तरीके को समझने में आसानी होगी. पौष्टिक तत्वों को ज़ज्ब करने के बाद छोटी आंत शेष बचे हुए अवशिष्ट पदार्थ को इलियोसिकल वाल्व के जरिये बड़ी आंत को सौंप देती है. सिकम एक छोटे से थैले की तरह फुला रहता है. इसके नीचले हिस्से से अपेंडिक्स लटका होता है. यहां से बचा हुआ भोजन यानी जलयुक्त मल बड़ी आंत के प्रथम सोपान यानी एसेन्डिंग कोलोन में मल से जल की अधिकांश मात्रा सोख ली जाती है, शेष बचा मल पेरिस्टाल्सिस (आंतों की गति) के जरिये एन्टीग्रेविटी चढ़ता है और फिर ट्रांसवर्स कोलोन से होते हुए, डिसेन्डिंग कोलोन की यात्रा कर सिग्माइड कोलोन होते हए रेक्टम (मलाशय) तक पहुँचता है. शौच (डिफिकेशन) के पूर्व जब मास पेरिस्टाल्सिस तथा डिफिकेशन रिफलैक्स के साथ अन्य तरह के रिफ्लैक्सेस एकजूट हो जाते हैं तथा मलविसर्जन के लिए व्यक्ति को अनुकूल माहौल मिलता है तो ही शौचक्रिया सफल हो पाती है. परन्तु इन सब के अलावा पेट पर लगभग 200 मिलीमीटर ऑफ़ मर्करी तक के प्रेशर की भी जरूरत पड़ती है. पेट पर जाँघों का दाब, लम्बी गहरी सांस, ग्लाटिस का बंद होना, एब्डामिनल मसल का संकुचन तथा पेडू (पेल्विक फ्लोर) की शिथिलता (रिलैक्सेशन) तथा नीचे की तरफ मोवमेंट मलविसर्जन के लिए जरूरी होते हैं.
(यह है बड़ी आंत का चित्र जो सिकम से शुरू होता है और रेक्टम में समाप्त होता है.)
स्क्वेटिंग पोजिशन में जब दायीं जांघ का दबाव सिकम पर पड़ता है तो बचे हुए (अपशिष्ट) भोजन की ऊपर की तरफ की यानी एन्टीग्रेविटी यात्रा बहुत ही आसान हो जाती है. यदि यह अपशिष्ट पदार्थ ज्यादा देर तक सिकम या एसेन्डिंग कोलोन में रहेंगे तो मल कण एपेंडिक्स में प्रवेश कर सकते हैं, जो छोटी आंत के संक्रमण का कारण बन सकता है. यदि मल पदार्थ अधिक समय तक एसेन्डिंग कोलोन में रुकता है तो जल का अवशोषण होता रहता है, लिहाजा मल कठोर हो जाता है और कब्ज का खतरा भी शुरू हो जाता है. सिटिंग पोजिशन में ही ऐसा संभव है, स्क्वेटिंग पोजिशन में न के बराबर.
क्या है एनो रेक्टल एंगल
रेक्टम और एनल केनाल के सन्धि स्थल पर जो कोण यानी एंगल बनता है, उसे एनो रेक्टल एंगल कहा जाता है. इसे सबसे पहले नापा था, 1966 में वैज्ञानिक टगर्ट ने. “टाउन सेंड लेटर फार डॉक्टर्स एंड पेशेन्ट्स” शीर्षक से टगर्ट का एक लेख प्रकाशित हुआ. उन्होंने शौच की विभिन्न स्थितियों में एनो रेक्टल एंगल को नापा और पाया कि स्क्वेटिंग में यह कोण थोड़ा सीधा हो जाता है, जिसके कारण मल निष्कासन में समय तथा जोर (स्ट्रेन) कम लगता है. इस कारण से कब्ज तथा हिमोराइड्स के रोगियों के उपचार में यह मददगार होती है.
सामान्यतया यह 90 डिग्री का होता है. इस कोण को यानी रेक्टम और एनल केनाल के जंक्शन (मिलन स्थल) को पुबो रेक्टेलिस मसल थामे रखती है. जैसा कि चित्र में दिखाई दे रहा है. यदि यह मसल रिलैक्स रहती है तो रेक्टम और एनल केनाल एक सीध में आ सकते हैं तथा रास्ता खुल जाता है और यदि यह मसल कांट्रेक्टेड रहती है तो रेक्टम और एनल केनाल के बीच 90 डिग्री का कोण बनता है, जिसके कारण मलमार्ग संकरा हो जाता है.
अप्रैल 2002 में ईरान के रेडियोलाजिस्ट डॉ. सईद राद ने अपने एक क्लीनिकल अध्ययन के दौरान पाया कि सिटिंग टायलेट के समय एनो रेक्टल एंगल लगभग 92 डिग्री का रहता है जबकि उकडू स्थिति (स्क्वेटिंग पोजिशन) में यह कोण सामान्यतया 132 डिग्री से 180 डिग्री तक का हो जाता है. जिसके कारण मल का विसर्जन पूर्णरूपेण तथा आसानी से हो जाता है. उन्होंने 11 से 75 वर्ष के 21 पुरुषों तथा 9 महिलाओं पर दोनों ही स्थितियों में बेरियम एनिमा के माध्यम से अपने अनूठे क्लीनिकल अध्ययन को अंजाम दिया. अपने शोध अध्ययन के निष्कर्ष में उन्होंने बताया कि सिटिंग पोजीशन के कारण रेक्टोसिल हो जाता है. डॉ. सईद ने पाया कि उकडूं स्थिति में पुबो रेक्टेलिस मसल आसानी से पूरी तरह रिलैक्स हुई, जिसके कारण मल का निष्कासन पूर्णरूपेण शीघ्र सम्पन्न हो सका. जबकि सिटिंग पोजिशन में पुबो रेक्टीलिस मसल के रिलैक्स न होने के कारण मल विसर्जन पूर्णरूपेण भी नहीं हो पाता है और रेक्टोसिल (रेक्टम की बीमारी) की भी संभावना हो जाती है.
(ऊपर दर्शाए चित्रों में सिटिंग तथा स्क्वेटिंग पोजिशन में रेक्टम और अनल केनाल यानी मल मार्ग की स्थितियां बताई गई हैं. चित्रों से स्पष्ट है कि सिटिंग स्थिति में पुबो रेक्टेलिस मसल का संकुचन रेक्टम को चोक करता है जबकि स्क्वेटिंग की स्थिति में मसल रिलैक्स रहती है और रास्ता सीधा हो जाता है ताकि मल विसर्जन आसानी से हो सके ).
नैसर्गिक है स्क्वेटिंग
विश्व के अधिकांश शिशु नैसर्गिक रूप से स्क्वेटिंग के जरिये ही मल निष्कासन करते हैं. अध्ययन बताते हैं कि अच्छे स्वास्थ्य के लिए जिन बुनियादी बातों की जरूरत होती हैं, उनमें स्क्वेटिंग, पानी का ख़ूब सेवन, अच्छी नींद, संतुलित आहार और नियमित व्यायाम सम्मिलित हैं.
(चित्र से स्पष्ट प्रतीत होता है कि स्क्वेटिंग की स्थिति में सिकम पर दायीं जांघ का स्वत: ही पर्याप्त दबाव पड़ता है, जिससे मल का उर्ध्वगमन आसान हो जाता है. जांघों के दबाव के अभाव में ज्यादा जोर जरूरी हो जाता है, जिसके कारण मल मार्ग की रक्त शिराएं फूल जाती हैं. )
इजरायली शोधकर्ता डॉ. बेरको सिकिरोव ने अपने शोध के निष्कर्ष में पाया कि सिटिंग मेथड कब्जियत का करण बनती है, जिसके कारण व्यक्ति को मल त्यागने के लिए लगभग तीन गुना अधिक जोर लगाना पड़ता है, जिसके कारण चक्कर और हृदयतंत्र की गड़बडियों के कारण लोग मर जाते हैं. इसके अलावा स्क्वेटिंग की तुलना में कोलोनिक डाइवरटीकुलोसिस की संभावना 75 प्रतिशत अधिक रहती है. सिकिरोव ने अपने एक अन्य शोध के तहत हीमोराइड्स के रोगियों के एक छोटे समूह को स्क्वेटिंग पद्धति से शौच करने की सलाह दी. उन्होंने पाया कि बीस रोगी हीमोराइड्स से पूरी तरह मुक्ति हो चुके हैं, लगभग पचास प्रतिशत रोगियों को कुछ दिनों में ही काफी लाभ हुआ जबकि शेष की स्थिति में सुधार होने में अधिक समय लगा. यानी सभी को लाभ जरूर हुआ.
स्क्वेटिंग के पश्चिमी प्रचारक मानते हैं कि सिटिंग के दौरान मल का पूरी तरह निष्कासन नहीं होने से यानी फिकल स्टेगनेशन के कारण अपेंडीसाइटिस तथा क्रोंस डिसीज हो जाती है, जो कि परम्परागत स्क्वेटिंग को अपनाने वालों में तुलनात्मक दृष्टि से बहुत कम (रेयर) होती हैं, जबकि वेस्टर्न पद्धति को अपनाने वालों में तुलनात्मक रूप से अधिक लोग इन रोगों के शिकार होते हैं. इसके लिए उनका वैज्ञानिक तर्क है कि सिटिंग के दौरान एनो रेक्टल एंगल के संकुचित होने के कारण रेक्टम में बचा मल दबाव के कारण विपरीत दिशा में गतिमान होता है. वे इसे समझाने के लिए टूथपेस्ट की ट्यूब को बीच से दबाने पर होने वाले प्रभाव का उदाहरण देते हैं, जिसमें पेस्ट नीचे तथा ऊपर की तरफ गतिमान होता है. उनके अनुसार लम्बे समय का मल का रुकाव (फिकल स्टेगनेशन) अंततः मल को सिकम की तरफ धकाता है, जो एपेंडिक्स के लिए खतरनाक सिद्ध होता है.
माइचीलीन ड्यूक्लेफ़ ने बिल और मेलिंडा गेट्स फाउन्डेशन के एक कार्यक्रम के दौरान शौच की वेस्टर्न पद्धति को कब्जियत तथा हीमोराइड्स के लिए दोषी ठहराते हुए मायो क्लीनिक के हवाले से बताया कि पचास वर्ष की उम्र तक आते आते पचास प्रतिशत अमेरिकन्स हिमोराइड्स के लक्षणों से पीड़ित हो जाते हैं. वे मानते हैं कि इसमें सिटिंग पद्धति का बड़ा हाथ है.
शोधकर्ताओं ने पाया कि वेस्टर्न वर्ल्ड में कोलोन कैंसर, डाइवरटीकुलोसिस, कब्ज, इरिटेबल बावेल सिन्ड्रोम, प्रोस्टेट व गर्भाशय सम्बन्धी डिसआर्डर्स तथा अन्य कुछ बीमारियों के प्रकरण तुलनात्मक रूप से ज्यादा होते हैं. इन सबका उत्तर खोजने के बाद उन्होंने मल विसर्जन की सिटिंग पोजिशन को दोषी पाया. शोधों में पाया कि स्क्वेटिंग पोजिशन कई बीमारियों का अंत करने में समर्थ है.
वैज्ञानिकों के अनुसार गर्भवती माताएं यदि नियमितरूप से प्राचीन यानी भारतीय शैली को अपनाएं तो सामान्य प्रसव की सम्भावनाएं बढ़ती हैं और मल निष्कासन के दौरान गर्भाशय में पल रहे शिशु पर प्रतिदिन पड़ने वाले दबावों से भी बचा जा सकता है.
कमर भी रहती है ठीक :- कमर के लिए भी स्क्वेटिंग को वैज्ञानिक बेहतर मानते हैं. एक अध्ययन “गिव यूअर स्पाइन ए बेनिफिशिअल स्ट्रेच” में कहा गया है कि स्क्वेटिंग शैली से पीठ और कमर दर्द में आराम पड़ता है.
डेनिस बर्किट नामक चिकित्सक यूगाण्डा में मेडिसिनल प्रैक्टिस करते थे. जब उन्होंने देखा कि वहां के लोग कोलोन कैंसर, कब्ज, डाइवरटीकुलोसिस, इरिटेबल बावेल सिन्ड्रोम आदि से पीड़ित नहीं होते हैं, तो उनका दिमाग ठनका . सूक्ष्म अध्ययन के बाद उन्हें दो बातें समझ में आई एक तो शौच के लिए स्क्वेटिंग पोजिशन और दूसरा भोजन में फायबर्स की अधिक मात्रा. डेनिस बर्किट मानते है कि स्क्वेटिंग पोजिशन कोलोरेक्टल कैंसर से बचाती है.
जापान में सन 2010 में हुए एक अध्ययन का निष्कर्ष है कि यदि हिप जाइंट पर अधिकतम फ्लैक्शन (मुड़ना) हो तो एनो रेक्टल कोण अधिक सीधा होता है और मल निष्कासन के लिए स्ट्रेन (शक्ति) कम लगता है. अमेरिका के चिकित्सक तथा आधुनिक गेस्ट्रोइंट्रोलाजी के शोधकर्ता डॉ.एम.के.रिज्क स्क्वेटिंग पोजिशन को बेसबाल की कैचर्स पोजिशन का नाम देते हैं और उनका कहना है कि स्क्वेटिंग पोजिशन श्रेष्ठ है.
कैलीफोर्निया के श्री ई.एस. का कथन है कि स्क्वेटिंग ने मुझे हीमोराइड्स से मुक्त कर दिया.
सार्वजनिक शौचालयों में कमोड का उपयोग स्वच्छता और संक्रमण की दृष्टि अत्यधिक अवैज्ञानिक और अनहेल्दी सिद्ध हो सकता है क्योंकि मूत्र संस्थान के संक्रमण से ग्रस्त व्यक्ति के मूत्र की सूक्ष्म बूंदे (ड्रापलेट्स) में मौजूद रोगाणु पानी डालने के बाद भी बैठक की रिम पर विराजमान रह जाते हैं अथवा यदि जांघ की त्वचा के संक्रमण से ग्रस्त व्यक्ति द्वारा कमोड का इस्तेमाल किया गया तो बाद में बैठने वाले अनेक लोगों की त्वचा के संपर्क में रोगाणुओं के आने की संभावना अत्यधिक रहती है और वे भी सम्पर्कजन्य त्वचा रोग (कान्टेक्ट डर्मेटाइटिस) से ग्रस्त हो सकते हैं.
स्क्वेटिंग के अपने अनुभवों का वर्णन करते हुए अमेरिका के जे.लियू ने वहां स्क्वेटिंग का प्रचार करने वाले लोगों का उत्साह बढाते हुए बताया था कि मैंने अपनी चीन यात्रा के दौरान स्क्वेटिंग को अपनाया और मल निष्कासन के आनन्द का अनुभव किया है. उन्होंने मलत्याग के वेस्टर्न तरीके को कोसते हुए कहा है कि आप लोग वेस्टर्न वर्ल्ड को मल त्याग के अंधे युग से निकालकर उन्हें सिविलाइज्ड बनाने का प्रयास कर रहे हैं. उन्हीं के शब्द पढ़िए “I’m so glad you guys are encouraging the Western world to finally come out of the dark ages and revert back to the more civilized natural way to excrete! Keep up the good work!!!”.
जोनाथन इस्बिट का जिक्र किये बिना स्क्वेटिंग पोजिशन की वैज्ञानिक महिमा का गान अधूरा रह जाता है. अपने वैज्ञानिक आलेख “हैल्थ बेनिफिट्स ऑफ़ द नैचरल स्क्वेटिंग पोजिशन” में जिन लाभों का विश्लेषणात्मक वैज्ञानिक विवरण दिया है, वह इस लेख की परिसीमा के परे है. फिर भी उन लाभों को संक्षिप्त में गिनाना उचित रहेगा.
स्क्वेटिंग पोजिशन के सात प्रमुख लाभ –
1. मल विसर्जन शीघ्र, पूर्णरूपेण, आसान और तीव्रता से हो जाता है, जिसके कारण फिकल स्टेग्नेशन नहीं होने से कोलोन कैंसर, एपेंडीसायटिस तथा इन्फ्लेमेटरी बावेल डिसीज नहीं होते हैं.
2. प्रोस्टेट, मूत्राशय तथा गर्भाशय की तंत्रिकाओं (नर्व्स) के खिंचाव (स्ट्रेच) को तथा उनकी क्षतिग्रस्त (डेमेज) होने से बचाती है.
3. इलियोसिकल वाल्व के सील (बंद) हो जाने से छोटी आंत में बैकफ्लो के कारण बड़ी आंत से मल प्रवेश नहीं हो पाता है. यानी छोटी आंत न तो प्रदूषित होती है और न ही संक्रमित.
4. पुबो रेक्टीलिस मसल पूरी तरह रिलैक्स होने से रेक्टम चोक नहीं होता है.
5. जांघों के सहयोग से कोलोन पर नैसर्गिक दाब के कारण ज्यादा ज़ोर (स्ट्रेन) नहीं लगाना पड़ता है. अधिक समय तक यदि अधिक ज़ोर लगाना पड़े तो हर्निया, डाइवरटीकुलोसिस तथा पेडू के अंगों के शरीर से बाहर आने (पेल्विक आर्गन्स के प्रोलेप्स) का खतरा हो सकता है.
6. यह हीमोरायड्स का अत्यधिक प्रभावशाली तथा बिना चीरफाड़ वाला (नॉन इन्वेजिव) उपचार है.
7. गर्भवती स्त्री यदि नित्य इस स्थिति (पोजिशन) में मल विसर्जन करें तो गर्भाशय पर दबाव नहीं पड़ता है तथा यह स्थिति नैसर्गिक प्रसव के लिए पेडूक्षेत्र (पेल्विक फ्लोर) को तैयार करने में सहायक सिद्ध होती है.
कब्ज के कारण एक दिन ऐसा भी आयेगा, जब शौच, ताज़ी हवा का सेवन, नाश्ता और कामकाज सब एक साथ करना होगा,
शौच के बाद धोएं या पौंछे ?
अमेरिका में मलद्वार को टायलेट पेपर से पौंछने का चलन है. परन्तु वहां के वैज्ञानिकों का कहना है कि धोना ज्यादा प्रभावी और सर्वश्रेष्ठ है,क्योंकि इसमें गंदा रह जाने का अहसास नहीं बना रहता है जो कि पौंछने में हमेशा ही बना रहता है.
अमेरिका में भी पानी से धोने का चलन शुरू हुआ है , उसके विषय में वैज्ञानिकों का कथन है कि इससे एक नये स्तर का सुखद अहसास होने लगा है. (A New Level of Comfort ).
टायलेट पेपर से कोमल त्वचा में होने वाले घावों के खतरों से वैज्ञानिक चिन्तित हैं. इसके अतिरिक्त टायलेट पेपर को सुगन्धित बनाने के लिए मिलाए गये रसायन भी त्वचा में खुजली पैदा करते हैं. अमेरिका में प्रतिवर्ष 15 मिलियन पेड़ों के गुदे से बने 36.5 बिलियन टायलेट पेपर रोल इस्तेमाल किए जाते हैं. इन्हें बनाने में 473.6 बिलियन गैलन पानी और साफ़ करने में 253000 टन क्लोरीन खर्च हो जाती है. इसके अतिरिक्त टायलेट पेपर के कचरे का निपटान भी एक बड़ी समस्या है.
बैक्टीरिया पनपते हैं टायलेट पेपर से
धोने से गुदा में बैक्टीरिया के प्रजनन के अवसर कम हो जाते हैं जबकि टायलेट पेपर बैक्टीरिया को पनपने और फैलाने का काम करते हैं. वैज्ञानिकों के अनुसार खूनी बवासीर के रोगियों को धोने से ज्यादा आराम मिलता है क्योंकि पेपर से घाव होने के खतरों से बच जाते हैं. मासिक धर्म के दौरान और नव प्रसूताओं को गुदाद्वार धोना चाहिए क्योंकि मल के रोगाणुओं से संक्रमण का ख़तरा रहता है.
(नोट – यहां प्रकाशित सभी चित्र नेट से जनहितार्थ साभार लिए गए हैं, मेरा कोई निजी स्वार्थ नहीं है.)
अफ़सोस
150 साल पहले किसी को पता नहीं था कि किसी शाही परिवार के सदस्य की बीमारी के समय सुविधा की दृष्टि से आविष्कृत कमोड (जिसे अंधानुकरण के चलते विश्व के सम्पन्न लोग अपना चुके हैं), बीमारियों का जखीरा भेंट करने वाली दुविधा सिद्ध होगी. अनेक पाश्चात्य चिकित्सक कमोड को अनेक गम्भीर बीमारियों का प्रतिशत बढ़ने का कारण मानते हैं. इजराइल की जर्नल ऑफ़ मेडिकल साइंस में प्रकाशित एक शोध पत्र के अनुसार पाश्चात्य संस्कृति से प्रभावित देशों में पेडू और आंतों की बीमारियों में बढ़ोतरी का कारण कमोड है.
नेट पर उपलब्ध एक लेख में लिखा है “कितने अफ़सोस और दुःख की बात है कि लगभग 150 सालों से पाश्चात्य देश के नागरिकों को एक रोगकारी एक्स्परिमेंट का शिकार बनना पड़ा. उन्हें एक दुर्घटनावश शौच के लिए कमोड को अपनाने के लिए विवश होना पड़ा, जबकि दुनिया के दो तिहाई लोग उसी आजमाई हुई पद्धति का प्रयोग कर रहे हैं.
मैं अपने अनुभव के आधार पर कह सकता हूँ कि इस लेख की बातें सत्य हैं। इसीकारण मैं स्वयं देशी तरीके के शौचालय में शौच करना पसंद करता हूँ। लेकिन दुर्भाग्य से अब ये दुर्लभ हो गये हैं।