कविता

कविता

यूँ तो तुम बहुत अच्छी हो
मन की सुन्दर हो
व्यवहार की भी बहुत अच्छी हो
सबसे मिलनसार हो
बस मुझसे ही बेरुखी पाली है तुमने
जाने क्यूँ इतनी सरहदें
बनाकर रखी हैं तुमने तेरे-मेरे दरमियान
न तुम खुद उस पार आती हो
न ही मुझे इस पार आने देती हो
नदी के दो किनारों सा रखना है तुमने
हमारे इस रिश्ते को जो कभी नहीं मिलते
बस साथ साथ चलते हैं अनंत तक
पर बीच में हमारे ये जो स्नेह का
मीठे जज्बातों का दरिया बहता है
तुम इसमें भीगना भी नहीं चाहती हो
लेकिन ये कभी-कभी बहुत ज्यादा
तेज़ बहाव से बहने लगता है
तोडना चाहता है किनारों को
आना चाहता है उस पार तुम्हारे करीब
पर तुम रोक देती हो आखिर क्यूँ
मैं चाहता हूँ तेरे मेरे दरमियाँ एक पुल
जिसे पार कर आ सकूँ तुमसे मिलने
पर तुम्हारी ये रोक-टोक बहुत खटकती है
बहुत रुला देती है मुझे
खुद पर ही शक होने लगता है कि
शायद मैं तुम्हारा भरोसा ही नहीं जीत पाया
क्यूँ भरोसा नहीं कर पाती हो आखिर
आजमाकर तो देखो हमें एकबार
जो विस्वास दिखाया है उसे कभी टूटने नहीं देंगे
भले ही उसके लिए हमें खुद टूट जाना पड़े
इतनी भोली और मासूम सूरत है तुम्हारी
फिर दिल क्यूँ इतना कठोर बनाया हुआ है
चट्टान के माफिक …
कभी तो अपने दिल की भी सुन लिया करो
क्यूँ रखती हो हर वक़्त उसे बेड़ियों में जकड़कर
उसको भी कभी तो जीने दो जैसे वो चाहता है जीना
उसको भी करने दो अपनी कुछ ख्वाहिशें पूरी
थोडा तो रहम करो उसपर आखिर है तो एक दिल ही न
मुझ से तो नाइंसाफी करती ही हो
अपने दिल से तो कभी इन्साफ कर लो
सुनो ना … बताओ तो आखिर तुम्हे
क्या डर है , क्यूँ तुम अपने दिल की नहीं सुनती हो
मेरा दर्द तो खैर तुम कहाँ समझोगी
तुमने तो अपने दिल को ही कैद में रखा है !!

— प्रवीन मलिक

प्रवीन मलिक

मैं कोई व्यवसायिक लेखिका नहीं हूँ .. बस लिखना अच्छा लगता है ! इसीलिए जो भी दिल में विचार आता है बस लिख लेती हूँ .....