लघुकथा : बुढ़ापे का दर्द
आज फिर रीटा और अभय घर देरी से आए थे ! लक्षमी के देहांत के बाद श्यामलाल बहुत तन्हा और बेबस महसूस करते थे उनकी तो ज़िन्दगी थम सी गई थी ।अपने कमरे मे सारा दिन बस घड़ी को निहारते रहते !साठ की आयु थी जब लक्षमी अचानक ही बीमारी से पीड़ित होकर चल बसी थी ।लाख कोशिशों के बावजूद भी वो लक्षमी को बचा नहीं पाए ।कहने को तो उनके दो बेटे और एक बेटी भी थी मगर फिर भी अपने दिल की बात वो खुलकर किसी से कह नहीं पाते थे बस सबकी ज़रूरतों के साथ ही उल्झे रहते थे ।खुद के लिए जीना तो वो जैसे भूल ही गए थे। बेटा और बहु दोनों नौकरी करते थे ।बहु सुबह खाना बनाकर निकल जाती थी ।ध्यान तो बहु और बेटा बहुत रखते थे पर उम्र के इस पड़ाव में जो देखभाल जीवन साथी कर सकता है वो शायद कोई नहीं कर सकता ।श्यामलाल भी उसी दौर से गुज़र रहे थे जब दोनो बेटे अपनी अपनी गृहस्थी में वयस्त थे ।
हर हाल में बस अपने बच्चों का ही भला सोचने वाले श्यामलाल बहुत तन्हा महसूस करते थे ,कभी कभी तो उन्हें लगता कि वो सिर्फ घर की देखभाल के लिए हैं । बहु और बेटे को अगर कोई छुट्टी होती भी तो वो अपने ऊपर व्यतीत करना पसंद करते । कहीं घूमने चले जाते या अपने काम निबटाने में मगन हो जाते । श्यामलाल बस जैसे खाना खाने के हिस्सेदार रह गए थे शायद !अगर उनको कुछ दिन के लिए कहीं जाना होता तो श्यामलाल खुद ही जैसे तैसे अपना खाना बना लेते। वो अपनी मर्जी से अपने लिए नहीं वक्त निकाल पाते थे ।अगर शहर से बाहर अपने भाई या बहन के पास जाने का मन करे तो उनको लम्बा इन्तज़ार करना पड़ता । दोनो बेटे अलग अलग रहते थे ।अपना जाने का प्रोग्राम वो स्थगित करते रहते कि बच्चों को कोई दिकक्त ना आए । बेटी भी कम ही आती जाती थी ।कभी अपने किसी हम उम्र दोस्त से मुलाकात हो जाती तो बातों के किस्से शुरू होते और वही दर्द उभर कर किसी ना किसी रुप में सामने आ जाता कि आखिर इस उम्र में इन्सान इतना बेबस और तन्हा क्यों हो जाता है ।चाहकर भी अपनी मर्जी से अपने लिए नहीं जी पाता ।जवानी अपने बच्चों की देखभाल में गुज़र जाती है और बुढ़ापा बच्चों के बच्चों का ध्यान रखने और बस घर की रखवाली में ही ।
श्यामलाल को ज्यादा दिककत अकेले पन से हो रही थी ।इस उम्र में शरीर में थकावट दर्द तो आम बात है पर बेटा बहु वयस्त होने के कारण वक्त नही निकाल पाते थे। जाने श्यामलाल जैसे और कितने ही बुजुर्ग होंगे जो ऐसे हालात से गुज़रते हैं औरतों की भी यही दास्तां होगी जरुरत है तो बस इस दर्द को समझने की और सहलाने की बस ज़रा सा वक्त निकालकर अपने वयस्त जीवन से यदि घर के बड़ों के साथ बिताया जाए अहम फैसलों में उनकी रज़ामंदी ली जाए कभी उनको भी साथ घुमाने ले जाएं क्योकि मन तो सबका एक जैसा होता है कहीं मन के किसी कोने मे जीने की खवाहीश तो होती है हंसकर !बस इन छोटी बातो से ही वो कितना खुश होंगे हम कल्पना भी नहीं कर सकते थोड़ा सा दबा देना मानो उनके दर्द को बरसों की राहत दे जाएगा !!!
— कामनी गुप्ता
बहुत ही सराहनीय प्रयास ..कामनी जी
Thanks ji
कामनी गुप्ता जी , आप बहुत अच्छा लिखती हैं . इस छोटी सी उम्र में आप ने बुढापे के बारे में इतना अच्छा लिखा ,आप को वधाई ही दूंगा .
हौंसला बढ़ाने के लिए आपका बहुत धन्यवाद सर जी