कविता

कविता

तुम्हें जाना था
सो तुम चले गये
चाहा तो बस
इतना ही था
तुम रहो साथ हर दिन
फिर जी लूं
एक सदी सी ज़िन्दगी
ख्वाब टूटा साथ छूटा
एक पल में
ताश के पत्तों सी
बिखर गई सब खुशी
तुम्हें जाना था
सो चले गए
मैं चुप सी खड़ी
देखती रही जाते
नीर बहाते
रोकना चाहती थी
तुम रुक भी जाते
पर तुम्हें ले गयी
गलतफहमी की हवा
जो बह रही थी मेरे विरुद्ध
तुम बढ़ते चले गये
ओझल होते देखती रही
मैं बुत बनके खडी
तुम्हें जाना था
चले गये तुम
बिखरे हुए मोती सी
मेरी ज़िन्दगी तकती है
राह तुम्हारी काश
तुम स्नेह का धागा लाओ
फिर एक बार आओ
पिरोने जीवन माला
और मैं फिर एक बार
जियूं सदी सी जिन्दगी

……….सरिता .

One thought on “कविता

  • विजय कुमार सिंघल

    बहुत सुन्दर !

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