गीतिका/ग़ज़ल

ग़ज़ल

 

भूख सबकी मिटा ही दी जाये
रोटियाँ क्यों न बाँट ली जाये ।

रेत जैसे फिसल रही अब तो
जिंदगी क्यों न कैद की जाये ।

शायरी बन गई मेरी दुनियाँ
दर्द से जिंदगी थमी जाये ।

झूठ के पाँव कब टिके बोलो
बात बस लाजमी कही जाये

क्यों निहारे किसी गिरेबां को
‘धर्म’ अपनी कमी कही जाये ।

— धर्म पाण्डेय

One thought on “ग़ज़ल

  • विजय कुमार सिंघल

    वाह वाह !

Comments are closed.