गीत
बन के चारण भाट जो पैसे वालों के गुण गाते हैं
सरस्वती के पुत्र वो खुद अपना अपमान कराते हैं
हमने ज्ञानी जान के इनको पलकों पर बैठाया था
स्नेह और सम्मान दोनों हाथों से बरसाया था
लेकिन मौका मिलने पर ये राजनीति ही करते हैं
गिरगिट भी शरमा जाए कुछ ऐसे रंग बदलते हैं
हमको दंगे याद हैं सारे सैंतालिस से अब तक के
तब क्या ये सब सोए हुए थे पुरस्कार घर पे रख के
सांप्रदायिक एकता की खातिर फर्ज़ निभाया है
जेब में रख के रकम इनामी पुरस्कार लौटाया है
पैसा वापिस माँगो तो ये हमको आँख दिखाते हैं
गैरतमंद हैं इतने ही तो क्यों हराम की खाते हैं
हालातों से नहीं कोई जांबाज कभी घबराया है
अशोक चक्र महावीर चक्र ना कोई लौटाने आया है
चुप हैं वो जिन्होंने मेहनत से सम्मान कमाए हैं
उछल रहे हैं वही जिन्होंने चापलूसी से पाए हैं
जिनके पास नहीं कुछ लौटाने को वो भी ऐंठे हैं
और कुछ बेचारे हैं जो मुँह लटकाए बैठे हैं
इनको भी ईनाम कोई दे दो ये भी लौटा देंगे
इसी बहाने अखबारों में अपना नाम छपा लेंगे
आओ हम सब करें किनारा ऐसे साहित्यकारों से
मुक्त करें माँ शारदा को अब झूठे, चाटुकारों से
— भरत मल्होत्रा।
सत्य कथन
उम्दा रचना