गीत
पहले दिल्ली फिसल गई उसके बाद बिहार गया।
देख सियारों के टोले से एक सिंह फिर हार गया।
15वर्ष के कुशासन को राज-ऐ-जंगल कहते थे।
ख़ून डकैती और फ़िरौती ख़ूब बिहारी सहते थे।
राजभवन के गलियारों में घूस के नाले बहते थे।
पशुओं का चारा खाने के लिए जेल जो रहते थे।
आज उसी भ्रष्टाचारी को चुन इसबार बिहार गया।
देख सियारों के टोले से एक सिंह फिर हार गया।
एक सुनहरे कल को जिसने आशावान निहारा था।
साथ मिलाके कन्धा जिसने जंगलराज सुधारा था।
क्योंफिर उसने देके कन्धा ठग को एक पुकारा था?
क्या वो इतना बेचारा था और न कोई चारा था?
कुर्सी की ख़ातिर अपनी ग़ैरत को मार कुमार गया।
देख सियारों के टोले से एक सिंह फिर हार गया।
महाठगबंधन की नौका में देखो कितने पाल रहे।
पप्पू चप्पू चला रहे और हवा हेकड़ीवाल रहे।
ठान लिया था अब कौरव ने चक्रव्यूह का जाल रहे।
अभी तो मिलके वोट बटोरो पीछे जो भी हाल रहे।
अपनी नौका में इक “माँझी” ले टूटी पतवार गया।
देख सियारों के टोले से एक सिंह फिर हार गया।
चक्रव्यूह की इस रचना में नहीं थे नेता ही केवल।
साथ निभाया अभिनेता ने और मीडिया का था बल।
उफ़न रहा जयद्रथ मीडिया बदले की ज्वाला में जल।
गैरों को क्या दोष यहाँ शत्रुघ्न ही गया राम को छल।
नौटंकी कर क़र्ज़ नमक का चुकता साहित्यकार गया।
देख सियारों के टोले से एक सिंह फिर हार गया।
यूँ तो उसको मिले वही कि जैसी किस्मत वाकी है।
ये न समझो आने वाले दिनों कि ये इक झांकी है।
उठके जन जागृति जगाओ शपथ ये भारत मां की है।
एक लड़ाई हार गए पर युद्ध अभी भी बाक़ी है।
ये न हो कि फिरसे गिद्ध विदेशी “पंजा” मार गया।
देख सियारों के टोले से एक सिंह फिर हार गया।
-पुनीत “कुमार”
बहुत शानदार गीत, पुनीत जी !