बालगीत – दादा जी के चश्मे जी
कान पकड़कर चढ़े नाक पर रोब जमाते चश्मे जी
दादा जी की आँखें बनकर , राह दिखाते चश्मे जी
छपा हुआ अखबार मच्छरों जैसा लिपा पुता दिखता
अक्षर-अक्षर साफ दिखा खबरें पढ़वाते चश्मे जी
धूल गंदगी या उंगली का ठप्पा उन्हें पसंद नहीं
साफ मुलायम कपड़े से खुद को पुंछवाते चश्मे जी
दादा जी की हर दिनचर्या इनके बिना अधूरी है ,
सदा बुढ़ापे की लाठी बन साथ निभाते चश्मे जी
कभी भूल या लापरवाही से जब भी खो जाते ये
दादा जी को दादी जी से डॉट खिलाते चश्मे जी
— अरविदं कुमार ‘साहू’
सुंदर रचना