सामाजिक

यह समाज किधर जा रहा है?

आज फिर एक बहू की यातना सहते सास का विषय खूब चर्चा में है। जब कोई घटना अति पार करती है तो दिखाई देती है…अति के भीतर की यातना भी कम नहीं होती…दैहिक उत्पीडन था तो दिखाई दे गया, लेकिन मानसिक और भावनात्मक यातनाएं आसानी से नहीं दिखती…लेकिन घाव तो वे गंभीर करती हैं…!

देश में सास-बहू का रिश्ता हमेशा ही चर्चा का विषय रहा है… अगर पति पत्नी की तरफ बोले तो मां नाराज, मां की तरफ बोले तो पत्नी रात को करीब नहीं आने देती…बाप अपनी पत्नी की तरफदारी करे तो बहू उसकी रोटियां जला देती हैं, सब्जी में नमक ज्यादा डाल देती है… अगर बहू का पक्ष ले तो पत्नी साक्षात रणचंड़ी हो जाती है। देवर भाभी की पहरेदारी करते हैं, ननद चुगलबाजी…।

एक अकेली युवती बचपन से जिस घर में पल-पोषकर बड़ी हुई, सब पीछे छोड़कर आ जाती है… न पिता दिखाई देते न मां…न बहनें न भाई न ही बचपन के दोस्त और वह घर जहां उसने एक-एक दिन गुजारा…पच्चीस-तीस की उम्र में एक नये ही परिवेश को अपना बनाना, अनजान लोगों को अपना मानना, ताकती पड़ोसी निगाहों के सामने चरित्र को उजला करना। जो बेटा अपनी मां की पल्लू से बंधा था, अब वह नई-नवेली छमिया के पीछे-पीछे चलने लगता…बाप अपने ही बेटे से मिलने को तरस जाता… तानें, तोहमतें, मान-अपमान, झकड़ा-झांसा, खींच-तान, अपना-पराया, एक-दूसरे को नीचा दिखाना…!

हम कब सुधरेंगे? क्या कोई आशा है? सालों पहले एक दिल्ली की युवती अचानक प्रसिद्ध हो गई– उसने दहेज मांगने वाली बारात वापस लौटा दी थी… बी बी सी ने लंदन बुलाकर उसका साक्षात्कार लिया…युवक के पिता हॉर्ट अटेक से मर गये, युवक दस साल जेल में रहा, नौकरी चली गई और साबित हुआ कि वह युवती किसी दूसरे लड़के से प्रेम करती थी, सारा मामला ही फर्जी था…!

हम अजीब-से समाज में रह रहे हैं…क्या इसे स्वस्थ समाज कहा जाये? पग-पग पर दुख, तनाव, तकलीफ…कैसे कोई स्वस्थ रहे? एक ही मोहल्ले में रहने वाले लोगों में से कोई इतना अमीर कि पैसा खर्च किये खतम नहीं होता, दीवार से लगे दूसरे घर में रोटी के लाले पड़े हैं। एक के घर के बाहर चमचमाती कार खड़ी, दूसरा सायकल का पंक्चर निकलवाता फिरता। एक के बच्चों को लेने कार आती, दूसरे के बच्चे खुद ही अपना बस्ता कंधे पर लिये टूटी चप्पल से घसीटते हुए स्कूल जाते। कोई हजार गलत धंधे करता फिर भी कोई कुछ नहीं कर पाता, कोई बिना कारण ही सताया जाता। कोई बीस घंटे काम करता फिर भी पेट नहीं भर पाता, कोई काम ही नहीं करता फिर भी ठाठ से रहता…।

नहीं, हम बेहद विक्षिप्त माहौल में रह रहे हैं…भ्रष्टाचार, रिश्वतखोरी, झूठ, भाग-दौड़, खींच-तान, लूट-खसोट…ये समाज अजीब स्थिति में पहुंच चुका है। बहू ने सास को मारा तो खबर बन गई, लेकिन घर-घर में रोज अनगिनत अपराध हो रहे हैं…क्या कोई इस पर विचार करेगा या बस यूं ही समाज रुग्ण से रुग्ण होता चला जायेगा…न साफ हवा, न शुद्ध पीने का पानी, न स्नेहील परिवार न ही आत्मीय रिश्ते…होगा क्या इस देश का?

— संतोष भारती

संतोष भारती (बनवारी)

स्वतंत्र विचारक, लेखक एवं ब्लॉगर निवासी पुणे