कविता

कविता : रोटी

ये लो आज वो फिर पिट गयी
रोटी शायद कही से जल गयी !
मार खा कर भी दूसरी रोटी बना लायी
सात चक्कर लिए थे , आज खुद चक्कर में आ गयी !
जीते जी मरने को तैयार थी
क्योकि वो उस इंसान की पत्नी थी !
सारे धर्म उसके हिस्से आ गए थे
सुबह की मार रात का दुलार था !
ये सोच वो जीती रही ,अब कहाँ जाउंगी
अकेली रह नहीं पाउंगी !
इस तनहा सी ज़िन्दगी के,कितने दावेदार हो जायेंगे
घर की दहलीज पार की तो, जाने कितने मर्द खड़े हो जायेंगे !
ये सोच जीती चली गयी
कल की वो लक्षमी आज कामवाली हो गयी !
रात का मनुहार , सुबह की गालियां हो गयी
लड़की
शायद इसलिए आज भारी हो गयी !!

डॉली अग्रवाल

पता - गुड़गांव ईमेल - dollyaggarwal76@gmail. com