ग़ज़ल
मुहब्बत में इतना जो तड़पाओगे तुम
तो अपने किए की सज़ा पाओगे तुम
कहीं भी रहूँ दिल में ठानूँगी जिस दिन
मिरे पीछे पीछे चले आओगे तुम
कहीं ज़िंदगी में वफ़ा ना मिलेगी
किसी की वफ़ा को जो ठुकराओगे तुम
सदा अपनी उलझन में जकड़े रहोगे
कभी मेरी ज़ुल्फ़ें न सुलझाओगे तुम
तुम्हारी भी इज़्ज़त उछालेगा कोई
जो पुरखों की इज़्ज़त को ठुकराओगे तुम
अगर हो सके अपने ग़म मुझको देदो
कहो क्या कभी ऐसा कर पाओगे तुम
— नमिता राकेश,”मैं तेरी ग़ज़ल हूँ” से