कविता

वे दाने-दाने को बिलबिला रहे थे

कोहरे के कोहरा’म की एक धुंधमय सुबह

कोहरे के पंख उड़ान की इतरन के आगोश में थे

उधर बालकनी की मुंडेर पर

उड़ने को बेताब पंखों वाले कबूतरों के पंख

कंपकंपाहट के आगोश के आक्रोश में थे

उन्हें कोहरे के कोहरा’म को शांत करने वाले

तपते-तेजोमय सूर्यदेव के दर्शन की प्रतीक्षा थी

शीघ्र ही कबूतरों को दाना देने वाले

लोगों की बेतहाशा तलाश थी

भला ऐसे में हीटर से हाथ तापने वाले लोगों को

हीटर के ताप को छोड़कर बालकनी के कोहरे के

कोहरा’म में आकर रौंगटे खड़े करने वाली

भयंकर सर्दी में

कबूतरों को दाना देने की याद कहां से आएगी

वे तो आनंद ले रहे थे

राहत देने वाले रज़ाईमय विश्राम का

बस

कोहरे में कबूतरों के पंख सिलसिला रहे थे

वे दाने-दाने को बिलबिला रहे थे.

*लीला तिवानी

लेखक/रचनाकार: लीला तिवानी। शिक्षा हिंदी में एम.ए., एम.एड.। कई वर्षों से हिंदी अध्यापन के पश्चात रिटायर्ड। दिल्ली राज्य स्तर पर तथा राष्ट्रीय स्तर पर दो शोधपत्र पुरस्कृत। हिंदी-सिंधी भाषा में पुस्तकें प्रकाशित। अनेक पत्र-पत्रिकाओं में नियमित रूप से रचनाएं प्रकाशित होती रहती हैं। लीला तिवानी 57, बैंक अपार्टमेंट्स, प्लॉट नं. 22, सैक्टर- 4 द्वारका, नई दिल्ली पिन कोड- 110078 मोबाइल- +91 98681 25244

7 thoughts on “वे दाने-दाने को बिलबिला रहे थे

  • विजय कुमार सिंघल

    संवेदना से परिपूर्ण कविता, बहिन जी !

    • लीला तिवानी

      प्रिय विजय भाई जी, संवेदना ही जीवन की जीवंतता की प्रतीक है. प्रोत्साहन के लिए शुक्रिया.

  • Man Mohan Kumar Arya

    इस कविता में कोहरे के कुहराम के कारण कबूतरों की मनोदशा का आपने यथार्थ चित्रण किया है। आदरणीय श्री गुरमेल सिंह जी की प्रतिक्रिया भी मन को छू रही है। इसे पढ़कर यजुर्वेद के एक मंत्र का भाव भी दृष्टिपटल पर उभर आया। मंत्र में कहा है कि जो मनुष्य अपनी आत्मा को दूसरे प्राणियों में देखता है और दूसरे प्राणियों की आत्मा को अपनी आत्मा में देखता है उसका मोह और शोक दूर हो जाता है। शायद यह आत्मा की समदर्शिता का सिद्धांत है। सादर एवं नमस्ते बहिन जी।

    • लीला तिवानी

      प्रिय मनमोहन भाई जी, आपने आत्मा की समदर्शिता का सिद्धांत बताकर इस कविता को आध्यात्मिक रंग में रंग दिया है. यह कविता अत्यंत भावुक क्षणों का ही सृजन है. अत्यंत मनोहारी प्रतिक्रिया के लिए शुक्रिया.

      • Man Mohan Kumar Arya

        धन्यवाद एवं नमस्ते बहिन जी।

  • गुरमेल सिंह भमरा लंदन

    लीला बहन, कविता अच्छी लगी ,अक्सर हम खुद तो मौसम की मार से बचने के लिए सौ इंतजाम कर लेते हैं लेकिन पशु पक्षिओं की तरफ धियान नहीं देते ,सभी पशु पक्षिओं के लिए तो कोई भी कुछ नहीं कर सकता लेकिन हम अपनी आँखों के सामने दीखते उन मासूमों के लिए तो कुछ न कुछ कर ही सकते हैं ,इस कविता से मुझे आप का वोह पुराना ब्लॉग याद आ गिया जो कबूतर एक बैलकनी में उदास बैठे थे .

    • लीला तिवानी

      प्रिय गुरमैल भाई जी, आपने बिलकुल दुरुस्त फरमाया है. आपने एक पुराने ब्लॉग की अच्छी याद दिला दी. वैसे वह कविता आपको दो साल से भूली नहीं है. प्रोत्साहन के लिए शुक्रिया.

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