सामाजिक

विपश्यना – सही ध्यान, नहीं व्यवधान

विपश्यना साधना मेडिटेशन की एक सही विधि है। शुद्ध सात्विक पवित्र, मंगलमयी, तन मन को ऊर्जा, शक्ति, हिम्मत, समता देती है। मित्रता, क्षमा, प्यार, स्नेह बांटना सिखाती है। अहं भाव कम करती है। दुःख, राग, द्वेष, विकार कम करती है। शांति, संतोष बढ़ाती है। हर व्यक्ति इसे सीख सकता है, सीखकर जीवन में आचरण कर पालनकर जीवन को सरल सुगम सात्विक सफल, सार्थक बना सकता है।
मैंने सितम्बर 2001 एवं जनवरी, 2012 में दो अवसर पर दस-दस दिनों का कोर्स किया है। राह सही है। यात्रा लम्बी है, निरन्तरता एवं अभ्यास की आवश्यकता है। इस सन्मार्ग पर अभी दो-चार कदम भर ही चल पाया हूँ। मंजिल तो दूर अभी तो पहला मील का पत्थर भी नहीं हासिल कर पाया, पर मन में एक विश्वास आस्था, श्रद्धा, भरोसा है कि अभ्यास की निरन्तरता बनी रहे, तो मंजिल तक पहुंचना चाहे आसान नहीं है, पर असंभव भी नहीं है।

इस विधि को सीखने के लिए अनुशासन परम आवश्यक है, नौ दिनों तक पूर्ण मौन रहना होगा, परिवार से सम्पर्क नहीं रहेगा, शिविर स्थल सीमा में रहना होगा, नशा नहीं कर पाऐंगे, पढ़ना, लिखना, मोबाइल, टी.वी. समाचार पत्र, ई-मेल, इन्टरनेट कुछ भी नहीं कर पाऐंगे, एक कड़ी आचार संहिता है। सात्विक आहार है। रात्रि का भोजन नहीं है, प्रातः 4 बजे जगना होगा, रात्रि को 9 बजे सो जाना होगा, अनुशासन नियम विधि सीखने के लिए आवश्यक हैं। इसलिए इनका पालन करना प्राथमिक आवश्यकता है।

इस संस्मरण का उद्देश्य इतना ही है कि अनुशासन संहिता से परेशान नहीं हों, अधिकांश व्यक्ति मात्र इसी कारण यह कोर्स करने से हिचकिचाते हैं कि नौ दिन चुप कैसे रहेंगे? मोबाइल के बिना कैसे जी पाऐंगे? गुटखा नहीं मिलेगा क्या? रात को भूख लगेगी, तो क्या होगा? जीवन साथी एवं बच्चों से 9 दिन बिना सम्पर्क किए कैसे परिवार चल पाएगा? इत्यादि। अपने दो शिविरों के अनुभवों से इन भ्रांतियों, शंकाओं, समस्याओं का एक छोटा सा प्रयास भर है, मेरे ये संस्मरण, ताकि कोई भी इच्छुक व्यक्ति निःसंकोच दृढ़ मन से इस कोर्स में प्रवेश ले कर अपने जीवन को सुधार सके। मन से डर दूर हो एवं सही दृष्टिकोण से अनुशासन नियमों की बारीकियां जान सके।

शिविर व्यस्थापक सेवक शिक्षक पूर्ण समर्पण भाव से जिम्मेदारी निभाते हैं, इसलिए बोलने की आवश्यकता महसूस ही नहीं होती। समय-प्रबंधन का अनुकरणीय उदाहरण-चाय, नाश्ता, भोजन, दैनिक आवश्यकताऐं गुणवत्तापूर्ण एवं निश्चित समय पर स्वतः ही होती चली जाती है। बिना बोले ही जब सबकुछ मिल जाता है तो ‘मौन’ रहना सजा नहीं लगती, परन्तु मौन में भी आनन्द आता है। साधक आपस में वार्तालाप नहीं कर सकते, परन्तु अत्यन्त आवश्यक हो तो सेवकों से संक्षिप्त शब्दों में कह सकते हैं। भोजन कक्ष में पर्ची-पेन रहता है उस पर लिखकर संदेश दे सकते हैं। शिक्षक से साधना ध्यान सम्बन्धी प्रश्न संक्षिप्त में पूछ सकते हैं इसलिए नौ दिनों का मौन पालन करने में कोई परेशानी या कठिनाई नहीं आती, सरल तरीके से इस नियम या पालन स्वतः ही होता चला जाता है। परिवार-समाज, संस्थान, व्यवसाय से सम्बन्ध दस दिनों के लिए नहीं रखना होता है। इस शील का पालन भी सरलता से हो जाता है। दस दिन मोबाइल, ई-मेल, टी.वी., समाचार पत्र, फेसबुक के बिना भी जी सकते हैं।

साधक बीमार होगा तो स्वयं सेवक प्राथमिक उपचार करेंगे या आवश्यक हुआ तो डाॅक्टर की व्यवस्था करेंगे। परिवार में कोई गंभीर संकट आया है, किसी की जीवन रक्षा करनी है एवं साधक की नितान्त आवश्यकता है तो उस सम्बन्धित साधक को एकांत में आवश्यकता बतलाकर बीच में शिविर छोड़ने की अनुमति मानवीय आधार पर दे दी जाती है। संस्थान व्यवसाय तब भी चलता है जब हम भारत दर्शन, अवकाश इत्यादि पर जाते हैं, परिवार के सदस्य भी साधक की परिवार से अनुपस्थिति के साथ छोटे-बडे निर्णय लेने सीखते है। समस्याओं का अपने ही बल पर समाधान करने से उनमें आत्मविश्वास आता है एवं साधक का अहं टूटता है कि बिना उसके परिवार में शायद पत्ता भी नहीं हिलता। इसलिए दस दिनों के लिए इस अनुशासन का पालन भी होता चला जाता है।

उपरोक्त दोनों नियम पालन कर लिए तो शेष तो स्वयं ही पालन होते चले जाते हैं। इसलिए इन नियमों को बन्धन नहीं माने, ये नियम तो साधना में सहायक होते हैं। मन को मजबूत कीजिए। पूरे भारत ही नहीं विश्वभर में इस ध्यान साधना के केन्द्र हैं। www.thali.dhamma.org  पर क्लिक करिए। पूरी जानकारी लीजिए। अगले शिविर के लिए अपना स्थान बुक करवाइए एवं अपने जीवन को सरल, सहज, सात्विक, सफल, सार्थक बनाइए। मंगल हो !

*दिलीप भाटिया

जन्म 26 दिसम्बर 1947 इंजीनियरिंग में डिप्लोमा और डिग्री, 38 वर्ष परमाणु ऊर्जा विभाग में सेवा, अवकाश प्राप्त वैज्ञानिक अधिकारी

One thought on “विपश्यना – सही ध्यान, नहीं व्यवधान

  • विजय कुमार सिंघल

    बहुत अच्छा और जानकारी पूर्ण लेख.

Comments are closed.