गीत
पूछते हैं वो देशभक्ति क्या है हमको भी बतलाओ
कैसे साबित करते हैं इसको थोड़ा सा समझाओ
हम कहते हैं ये जज़्बा कहीं मिलता नहीं बाज़ारों में
चलना पड़ता है नंगे पाँव लेकर जलते अंगारों पे
कलम जहां काफी ना हो तलवार चलाना पड़ता है
भगतसिंह के जैसे अपना सर कटवाना पड़ता है
जंगल में रह कर घास की रोटी खानी पड़ती है
लेकिन फिर भी ना झुकने की कसम निभानी पड़ती है
भले ही अपने जिगर का टुकड़ा दीवारों में चुन जाए
लेकिन माँ रूपी इस मिट्टी पर कोई आँच ना आ पाए
जिसने अंग्रेजों को धूल चटाई उस मर्दानी का
हमारी नसों में खून दौड़ता है झांसी की रानी का
जिसने जान निछावर कर दी बस अपनी खुद्दारी पर
फिर क्यों उबले ना ये लहू अपनों की ही गद्दारी पर
मेरी लाश पे देश बटेगा जिसने आवाज उठाई थी
उसी ने देश के बंटवारे पर अपनी मुहर लगाई थी
खून लगा है आजतक कश्मीर घाटी के फूलों को
आज भी भुगत रहे हैं हम अपने चाचा की भूलों को
कभी लूटे गए अरूणाचल में कभी मरे हैं सिक्किम घाटी में
किस-किस बात का ज़िकर करें सौ ज़ख्म हैं अपनी छाती में
तुमने किया है महिमामंडन चोरों और लुटेरों का
छवि बना दी दुनिया में ये देश है सिर्फ सपेरों का
तुमको तो सदियों से आदत पड़ी हुई है गुलामी की
तुमने देश की इज्ज़त की बाजारों में नीलामी की
अब जो मान बढ़ा है अपना तो वो तुमको खलता है
बर्बादी का सपना अब भी कुछ आँखों में पलता है
हम निर्बल, दुर्बल हो सकते हैं लेकिन हम लाचार नहीं
वो आदमी पशु से भी बदतर है जिसको देश से प्यार नहीं
— भरत मल्होत्रा
बहुत खूब !