धर्म-संस्कृति-अध्यात्म

महर्षि दयानन्द को राष्ट्रकवि रवीन्द्रनाथ टैगोर की भाव-भरित श्रद्धांजलि

ओ३म्

महर्षि दयानन्द ने वेद प्रचार की अपनी यात्राओं में बंगाल वा कोलकत्ता को भी सम्मिलित किया था। वह राष्ट्रकवि श्री रवीन्द्रनाथ टैगोर के पिता श्री देवेन्द्रनाथ टैगोर व उनके परिवार से उनके निवास पर मिले थे। आपका जन्म कोलकत्ता में 7 मई सन् 1861 को हुआ तथा मृत्यु भी कोलकत्ता में ही 7 अगस्त सन् 1941 को हुई। आप अपनी विश्व प्रसिद्ध रचना ‘‘गीतांजलि” के लिए सन् १९१३ में सर्वोच्च साहित्यिक सम्मान नोबेल पुरुस्कार से सम्मानित थे। श्री टैगोर ने देश व समाज में जो उच्च स्थान प्राप्त किया, उसके कारण उनके ऋषि दयानन्द विषयक विचारों व स्मृतियों का महत्व निर्विवाद है। गुरुदेव रवीन्द्रनाथ टैगोर द्वारा सन् 1937 में लाहौर के डी.ए.वी. कालेज के सभागार में ऋषि दयानन्द को भावपूर्ण श्रद्धांजलि दी थी। ऐतिहासिक व गौरवपूर्ण होने के कारण हम गुरुदेव के शब्दों को प्रस्तुत कर पाठकों को भेंट कर रहे हैं।

गुरुवर रवीन्द्रनाथ टैगोर ने कहा था-‘‘जीवन में कुछ घटनायें ऐसी घट जाती हैं जो अपना सम्पूर्ण उस क्षण उद्घाटित न करके भी हृदय पर अमिट छाप छोड़ जाती है। ऐसी ही एक घटना उनके (गुरुदेव के) जीवन में तब घटी, जब महान् ऋषि दयानन्द कोलकाता में हमारे घर पर पधारे थे। ऋषिवर दयानन्द के गम्भीर पण्डित्य की कीर्ति तब तक हमारे कर्ण गोचर हो चुकी थी। हम यह भी सुन चुके थे कि वेद मन्त्रों के आधार पर वे मूर्तिपूजा का खण्डन करते हैं। मैं उन महान् विद्वान के लिए लालायित था, पर तब तक इस बात का हमें आभास नहीं था कि निकट भविष्य में वे इतने महान् व्यक्तित्व के रूप में हमारे सामने प्रसिद्धि पायेंगे। मेरे भाई ऋषि जी से वेदार्थ में विचार-विमर्श में निरन्तर तल्लीन थे। उनका वार्तालाप गहन अर्थ प्रणाली तथा आर्य संस्कृति पर चल रहा था। मेरी आयु तब बहुत छोटी थी। मैं चुपचाप एक ओर बैठा था, परन्तु उस महान् दयानन्द का साक्षात्कार मेरे हृदय पर एक अमिट छाप छोड़ गया। उनके मुखमण्डल पर असीम तेज झलक रहा था। वह प्रतिभा से दीप्त था। उनके साक्षात्कार की वह अक्षुण्ण स्मृति अब तक मैं अपने मन में संजोय हुए हूं। हमारे सम्पूर्ण परिवार के हृदय को आनन्दित कर रही है। उनका सन्देश उत्तरोत्तर मूर्त रूप लेता गया। यह सन्देश देश के एक कोने से दूसरे कोने तक गूंज उठा। आश्चर्य तो इस बात पर होता है कि भारतीय गगन में घटाटोप घिरे वे संकीर्णता व कट्टरता के बादल देखते ही देखते छितरा कैसे गये?’’

प्रा. राजेन्द्र जिज्ञासु आर्यसमाज के वयोवृद्ध एक प्रसिद्ध विद्वान, साहित्यकार एवं धर्म-प्रचारक हैं। आपने विपुल आर्य-सामाजिक साहित्य की रचना की है। परोपकारी मासिक पत्रिका में आप ‘कुछ तड़प कुछ झड़प’ शीर्षक से एक लेखमाला चलाते हैं। इस पत्रिका के नये अंक में आपने गुरुवर रवीन्द्र जी का उपर्युक्त प्रसंग प्रस्तुत किया है। इसकी महत्ता को विचार कर हम इसे पाठकों के लाभार्थ प्रस्तुत कर रहे हैं। जिज्ञासु जी के अनुसार ऋषि दयानन्द भक्त श्रीयुत् हरविलास सारदा आदि सब पुराने विद्वानों ने कविवर ठाकुर रवीन्द्रनाथ जी की ऋषि के प्रति भावपूर्ण श्रद्धांजलि अपने ग्रन्थों व लेखों में दी है। इस श्रद्धांजलि का आर्य पत्रकार पं. भारतेन्द्रनाथ की कृपा से पुनरुद्धार हो गया। कवि गुरु के ये उद्गार जन-ज्ञान साप्ताहिक के 18 अप्रैल, 1976 के अंक में प्रकाशित हुए थे। सन् 1935 के उन दिनों में यह श्रद्धांजलि ट्रिब्यून आदि दैनिक पत्रों में भी प्रकाशित हुई थी। हम ऋषिभक्त श्रद्धेय जिज्ञासु जी व परोपकारी पत्रिका का इस ऐतिहासिक प्रसंग को प्रस्तुत करने के लिए आभार व्यक्त करते हैं। हम आशा करते हैं कि पाठक इसे पढ़कर आनन्द प्राप्त करेंगे।

-मनमोहन कुमार आर्य