सामाजिक

मां और मातृभूमि स्वर्ग से भी बढ़कर हैं

ओ३म्

अंतर्राष्ट्रीय मातृत्व दिवस 8 दिसम्बर के उपलक्ष्य में

8 मई, 2016 को मातृत्व दिवस है। माता की महत्ता को रेखांकित करने के लिए यह पर्व अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर मनाया जाता है। आज के संसार में मनुष्य का जीवन ऐसा व्यस्त हो गया है कि लगता है कि हम स्वयं को ही भूल गये हैं, अपने निकट संबंधों के प्रति अपने कर्तव्य का बोध होना तो बाद की बात है। अतः वर्तमान युग में हमें जो काम प्रतिदिन करने का है, उसे भी वर्ष में केवल एक दिन याद कर ही सम्पन्न करने की परम्परा चल पड़ी है। वैदिक धर्म व संस्कृति में मनुष्यों के पांच अनिवार्य दैनिक कर्तव्य हैं जो प्रतिदिन बिना किसी व्यवधान व नागा किये करने होते हैं। यह कर्म हैं ब्रह्म यज्ञ वा सन्ध्या, दूसरा अग्निहोत्र वा देवयज्ञ, तीसरा पितृ यज्ञ, चौथा अतिथि यज्ञ और पांचवा बलिवैश्वदेव यज्ञ। पितृ यज्ञ में माता-पिता व घर के वृद्ध सभी का मान-सम्मान, सेवा-शुश्रुषा, आज्ञा पालन, उनको भोजन, वस्त्र व औषध आदि से सन्तुष्ट रखना आदि कर्तव्य सम्मिलित हैं। यह कर्तव्य वर्ष में एक बार नही अपितु प्रतिदिन और हर समय करने के होते हैं। धन्य हैं हमारे ऋषि-मुनि जिन्होंने सृष्टि के आरम्भ में ही मातृ वा पितृ यज्ञ को प्रतिदिन करने का विधान किया था। यदि इस मातृ-पितृ यज्ञ को भारत सहित विश्व में उसकी भावना के अनुसार किया जाता तो आज मदर्स डे घोषित करने की आवश्यकता नहीं थी।

मनुष्य को मनुष्य इस लिए कहा जाता है कि वह एक मननशील प्राणी है। परमात्मा ने मनन व चिन्तन करने का गुण अन्य किसी प्राणी को नहीं दिया। मनन का अर्थ है कि उचित व अनुचित, कर्तव्य व अकर्तव्य, सत्य व असत्य आदि का चिन्तन कर अपने कर्तव्य का निर्धारण करना। जब माता का विषय आता है तो हमें कर्तव्य का निर्धारण करते समय यह ध्यान करना पड़ता है कि हमारा अस्तित्व ही माता के जन्म देने के कारण है। यदि हमारी मां न होती तो हम संसार में आ ही नहीं सकते है। इतना ही नहीं प्रत्येक माता दस माह तक अपनी सन्तान को अपनी कोख वा गर्भ में धारण कर अनेकविध उसका पालन व रक्षा करती है। इस कार्य में उसे अनेक प्रकार के कष्ट होते हैं जो केवल एक मां ही जान सकती है। प्रसव पीड़ा तो प्रसिद्ध ही है। इससे बड़ी पीड़ा शायद ही अन्य कोई हो जिससे होकर हर स्त्री को गुजरना पड़ता हो? सन्तान का जन्म हो जाने पर भी कई वर्षों तक सन्तान अपना कोई काम नहीं कर सकती। उसे समय पर दुग्धपान, आहार, वस्त्र धारण, मालिश व स्नान, मल-मूत्र साफ करना आदि सभी कार्य मां को ही करने होते हैं। यदि यह सब कार्य किसी नौकरानी से कराये जाते तो 24 घंटे के लिए 3 नौकरानियां रखनी पड़ती। काल्पनिक रूप में मान लेते हैं कि 8 साल तक बच्चे के सभी कार्यों को करने के लिए एक नौकरानी रखते और उसे सरकारी चतुर्थ श्रेणी कर्मचारी का वेतन देते तो यह धनराशि 20,000x3x12x8 = 57,60,000 रूपये हो जाते हैं। इसके अतिरिक्त निवास गृह, दुग्धपान, आहार, वस्त्र व औषधि को भी जोड़ा जाय तो यह राशि आरम्भ के 8 वर्ष के लिये ही लगभग 1 करोड़ रूपये हो जाती है। यह तो 8 साल की बात की। माता तो अपने जीवन की अन्तिम सांस तक हमारा रक्षण व पोषण करती है। माता के इस उपकार का बदला सन्तानें आजकल किस प्रकार से दे रही हैं, यह किसी से छुपा हुआ नहीं है। इसी कारण मदर्स डे का आरम्भ किया गया है जिससे सन्तानें अपनी-अपनी माताओं के प्रति अपने कर्तव्य का विचार कर उनका यथोचित पालन करें।

यदि माता के दिल की बात की जाये तो माता के दिल में अपनी सन्तान के लिए जो प्रेम, स्नेह व दर्द होता है वह संसार के किसी अन्य मनुष्यादि प्राणी में कदापि नही हो सकता। यह अनुभव सभी का है। यदि इसका अनुभव करना हो तो किसी चिकित्सालय में शिशुओं के कक्ष में जा कर देखा जा सकता है कि जहां मातायें अपने रूग्ण शिशुओं के लिए किस प्रकार से चिन्तित व दुख से पीडि़त रहती हैं। माता की इस भावना का जो ऋण सन्तान पर हो सकता है उसे संसार की कोई भी सन्तान कुछ भी कर ले, कदापि चुका नहीं सकती। इतना होने पर भी समाज में देखा जाता है कि अंग्रेजी व अंग्रेजी पद्धति के स्कूलों व कालेजों में पढ़े लिखें शिक्षित व सभ्य कहे जाने वाले लोग, धन सम्पत्ति वाले स्त्री व पुरुष दम्पत्ति अपने माता-पिता व अभिभावकों के प्रति तिरस्कार व अपमान का व्यवहार करते हैं। माता-पिता की उपेक्षा व तिरस्कार की प्रवृत्ति अमानवीय कार्य तो है ही, साथ ही यह  कृतघ्नता रूपी महापाप है। यह जान लेना चाहिये कि संसार में कृतघ्नता से बड़ा कोई पाप नही है। ऐसा ही पाप मनुष्य इस संसार व अपने उत्पत्तिकर्ता ईश्वर के सत्य व यथार्थ स्वरूप को जानने का प्रयत्न न कर और उसकी स्तुति-प्रार्थना-उपासना आदि न करके करते हैं। महर्षि दयानन्द ने गोरक्षा के सन्दर्भ में प्रश्न किया है कि क्या इससे अधिक कृतघ्न मनुष्य जो किसी भी प्रकार से गोहत्या करने, कराने में सहयोगी हैं अथवा इस पाप कर्म का विरोध नहीं करते, अन्य कोई हो सकता है? अतः माता-पिता सभी सन्तानों के लिए सदैव पूज्य हैं। सभी सन्तानों को श्रद्धा व भक्ति से उनकी सेवा शुश्रुषा किंवा स्तुति-प्रार्थना व उपासना करनी चाहिये जिससे उनके स्वयं के वृद्धावस्था में पहुंचने पर उनकी सन्तानें भी उनकी देखभाल व सेवा आदि करें।

माता व सन्तान विषयक कुछ उदाहरणों पर भी विचार करते हैं। सुना जाता है कि शंकराचार्य बालक थे। पिता का साया उन पर नहीं था। माता उनका पालन करती थी। शंकराचार्य जी को वैराग्य हो गया था। वह संन्यास लेना चाहते थे। एक माता जिसकी एक ही सन्तान हो, कैसे वह अपने एकमात्र पुत्र को संन्यासी बनने की अनुमति दे सकती थी। बताते हैं कि मां को मनाने के लिए शंकराचार्य जीएक नदी में स्नान करने के लिए गये। माता को भी साथ ले गये होंगे। वहां उन्होंने स्नान करते हुए मां को पुकारा और कहा कि एक मगरमच्छ ने उनका पैरा पकड़ रखा है। वह कहता है कि संन्यास ले लो नहीं तो वह मुझे खा जायेगा। हम अनुभव करते हैं कि उनकी माता बहुत भोली रहीं होंगी। सन्तान के हित को सर्वोपरि रखकर उन्होंने शंकराचार्य जी को संन्यास की आज्ञा दे दी। इस घटना से सिद्ध है कि सन्तान के हित के लिए माता अपने इष्ट व इच्छा को भी परवान चढ़ा सकती है। आज उन्हीं व कुमारिल भट्ट आदि के तप का प्रभाव है कि देश पूर्णतया नास्तिक नहीं बना। महर्षि मनु और महर्षि दयानन्द जी का भी उदाहरण हमारे सामने है। महर्षि मनु ने अपने प्रसिद्ध ग्रन्थ मनुस्मृति में कहा है कि यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवता’ अर्थात् जहां नारियों की पूजा होती है, वहां देवता निवास करते हैं। महर्षि मनु का आशय है कि जहां मातृशक्ति का सभी आदर करते वहां विद्वान, बुद्धिमान, ऋषि-मुनि, ज्ञानी-वैज्ञानिक उत्पन्न होते वा निवास करते हैं। यह सभी अर्थ देवता शब्द से अभिप्रेत है। महर्षि दयानन्द के समय में मातृशक्ति का घोर निरादर होता था। उन्होंने बाल विवाह को अवैदिक ही घोषित नहीं किया अपितु इसे मानवता के विरुद्ध भी सिद्ध किया। उन्होंने आधुनिक समाज को एक नया सिद्धान्त दिया कि समस्त पूर्वाग्रहों जिनमें जन्मना जातिवाद भी सम्मिलित है, उससे ऊपर उठकर पूर्ण युवावस्था में गुण-कर्म-स्वभाव के अनुसार विवाह होना चाहिये।

स्वामी दयानन्द ने नारी जाति के गौरव को पुनस्र्थापित करने के लिए जितने कार्य किये हैं, वह सब युगान्तरकारी हैं। उन्होंने बाल विवाह व बेमेल विवाह का निषेध तो किया ही साथ ही उनकी वैदिक विचारधारा से सतीप्रथा जैसी सभी कुरीतियों का निषेध भी होता है। उनके विचारों का आश्रय लेकर समाज में विधवा विवाह भी प्रचलित हुए जो अब भी जारी हैं। स्त्री व दलित शूद्रों को पुरूषों वा अन्य वर्णों के समान शिक्षा व वेदाध्ययन का अधिकार भी महर्षि दयानन्द की अनेक देनों में से एक बहुमूल्य देन है। वस्तुतः महर्षि दयानन्द ने नारी को जगदम्बा के उच्चस्थ सम्मानजनक गौरवपूर्ण स्थान पर प्रतिष्ठित किया। नारी जाति के लिए किए गये हितकारी कार्यों में महर्षि दयानन्द का विश्व में सर्वोपरि स्थान है। बाल्मीकि रामायण में भी एक स्थान पर मर्यादा पुरुषोत्तम श्री राम ने लक्ष्मण जी को जननी जन्मभूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी’ के वैदिक सिद्धान्त की याद दिलाते हुए कहा था कि कहीं कितना ही सुखमय वातावरण क्यों हो परन्तु अपनी माता और मातृभूमि स्वर्ग से भी बढ़कर होती है। जन्मभूमि स्वर्गादपि गरीयसी’ सूक्ति की भावना को महर्षि दयानन्द ने अग्रेजों से देश को आजाद कराने के लिए ही शायद अपने शब्दों में कहा कि कोई कितना ही करे किन्तु जो स्वदेशीय राज्य (जन्मभूमि पर) होता है वह सर्वोपरि उत्तम होता है, अथवा मतमतान्तर के आग्रह रहित, अपने और पराये का पक्षपात शून्य, प्रजा पर पिता और माता के समान कृपा, न्याय और दया के साथ भी विदेशियों का राज्य (पर-राज्य होता है स्व-राज्य नहीं) पूर्ण सुखदायक नहीं है। यहां उन्होने माता व स्वदेशभूमि वा जन्मभूमि को स्वदेशीय राज्य से जोड़़कर कहा कि स्वदेशीय राज्य, स्वदेशोत्पन्न लोगों का राज्य, होगा तभी वह स्वर्ग के समान हो सकता है, अन्यथा नहीं। हम यह भी बता दें कि माता शब्द का प्रयोग यद्यपि हमें जन्म देने वाली माता के लिए ही रूढ़ है परन्तु उपकारों में मां से कहीं अधिक उपकार ईश्वर के हम पर हैं, इसलिये वह माता से भी अधिक पूजनीय व उपासनीय हैं। इसी कारण वेद एवं वैदिक साहित्य सहित हमारे सभी ऋषि मुनियों ने मनुष्य को बाल्यकाल से मृत्यु पर्यन्त प्रातः व दोनों समय सायं ब्रह्मयज्ञ व सन्ध्या का विधान किया है। हमने 103 वर्षीय वेदों के विद्वान पं. विश्वनाथ विद्यालंकार जी को बिस्तर पर लेटे हुए ही सन्ध्या करते देखा है। वस्तुतः ईश्वर इस संसार को उत्पन्न व इसका पालन आदि करने के कारण सभी प्राणियों व संसार की माता है। सभी को उसके उपकारों को स्मरण कर सदा सर्वदा उसका उपकृत अनुभव करना चाहिये। वैदिक संस्कृति  संसार में सबसे प्राचीन एवं महान है।  इसमें कहा गया है मातृदेवो भव, पितृदेवो भव, आचार्य देवो भव।  अर्थात प्रथम माता पूजनीय देव है।

एक बात की ओर हम और ध्यान दिलाना चाहेंगे। कई परिवार आर्थिक दृष्टि से बहुत कमजोर होते हैं जहां परिवार के सभी लोगों के भोजन की पर्याप्त मात्रा नही होती। वहां क्या होता है? माताएं बचा-खुचा वा आधा पेट भोजन ही करती हैं। घर के अन्य सदस्यों को इसका ज्ञान ही नहीं होता। हमने सुना व देखा भी है कि आर्थिक अभाव से त्रस्त एक अपढ़ माता अपने बच्चों के पालन करने के लिए महीनें में 15 दिनों से अधिक दिन व्रत रखा करती थीं। उन्होंने अपनी योग्यतानुसार परिश्रम व अल्प धनोपार्जन भी किया। उन्होंने अपनी सन्तानों को भर पेट भोजन ही नहीं कराया अपितु सभी को शिक्षित किया और उनकी सभी सन्तानें गे्रजुएट व उसके समकक्ष शिक्षित हुईं। स्वाभाविक था कि कम भोजन, घर व बाहर काम करना, इससे उन्हें टूटना ही था। 50 वर्ष के बाद वह रोगों की शिकार हो गईं और संसार से असमय ही विदा हो गई। उनके विदा होने के बाद उनकी सन्तानें शायद इस बारे में विचार ही नहीं कर सकीं कि उनकी माता ने उनके लिए कितन त्याग व बलिदान किया था? देश में ऐसी लाखों व करोड़ों मातायें आज भी हैं। हमारा आज का समाज स्वार्थी-खुदगर्ज समाज है। महर्षि दयानन्द ने वेदों के आधार पर एक नियम भी बनाया था कि सब मनुष्यों को सामाजिक सर्वहितकारी कार्यों को करने वा नियम पालने में परतन्त्र रहना चाहिये। इसमें निर्बलों की सहायता व रक्षा भी सम्मिलित है परन्तु हमारा समाज आज भी इस भावना व विचारों से कोसों दूर है। इसे मनुष्यता का अभाव ही कहा जा सकता है। अतः मदर्स डे का मनाया जाना एक अच्छी परम्परा ही कहा जा सकता है। भले ही हम अपने माता-पिता की भरपूर सेवा कर रहे हों, तब भी हम सबको इस दिन यह विचार अवश्य करना चाहियें कि माता-पिताओं, मुख्यतः मातओं के प्रति, सन्तानों के किस-किस प्रकार के ऋण होते हैं। माताओं के उन त्याग व दुःखों के लिए हम जो कुछ कर सकते हैं, वह धर्म समझ कर अवश्य करें। मातृ सेवा भी परमधर्म के समान सब मनुष्यों का कर्तव्य है। कोई सन्तान किसी कारण यदि अधिक सेवा आदि न भी कर सके तब भी उसे मधुर वाणी से माता पिता का सत्कार तो नित्य प्रति अवश्य ही करलर चाहिये। शायद इतना करने से ही समाज के लोगों का मातृ ऋण कुछ कम हो जाये और वह परजन्म में ईश्वर द्वारा दुःखों से भरी अधिक बुरी भोग योनि में न भेजे जायें। आज मातृत्व दिवस पर हम सभी को बधाई देते हैं और निवेदन करते हैं कि वह इस विषय पर कुछ समय चिन्तन कर व अपने व्यवहार पर दृष्टिपात कर उसमें सुधार आदि की आवश्यकता की दृष्टि से विचार करें।

मनमोहन कुमार आर्य

8 thoughts on “मां और मातृभूमि स्वर्ग से भी बढ़कर हैं

  • राज किशोर मिश्र 'राज'

    प्रथम माता पूजनीय देव है।=============लाजवाब सृजन

    • Man Mohan Kumar Arya

      नमस्ते एवं हार्दिक धन्यवाद आदरणीय महोदय। सादर।

  • मनमोहन भाई , मदर्ज़ डे के उपलक्ष में लिखा आप का लेख अत्ति उतम लगा और इस में मेरे लिखने के लिए कोई शब्द नहीं हैं .बस माँ तो एक माँ है . मेरी अर्धांगिनी भी एक माँ ही है और जो उस ने बच्चों के लिए किया, वोह ही हर माँ करती है .अगर हम इस को गहराई से लें तो हर पती को अपनी पत्नी से अच्छा विवहार करना चाहिए, तभी यह घर संसार स्वर्ग बन सकता है .

    • Man Mohan Kumar Arya

      नमस्ते एवं हार्दिक धन्यवाद आदरणीय श्री गुरमैल सिंह जी. आपके विचार युक्तियुक्त एवं अति उत्तम है. वस्तुतः हम अपनी माँ का कुछ कुछ साक्षात्कार अपनी धर्मपत्नियों में भी कर सकते हैं। हमारा सर्वाधिक हित हमारी अपनी अपनी माँ से हुआ है और हमारी संतानों का हित व कल्याण हमारी पत्नियों के द्वारा ही हुआ है। हमारा इन दोनों मातृशक्तियों को नमस्कार है। सादर।

  • लीला तिवानी

    प्रिय मनमोहन भाई जी,

    ”मां अंतर्दृष्टा है,

    जो बिना बोले हमारे दुःख-सुख समझ जाती है,

    मां तिलस्मी जादूगर है,

    जो हमारे सपनों को साकार बनाती है.”

    और

    ”मां तो बस मां ही है,

    जिस के सम्मुख हर उपमा फीकी पड़ जाती है.”

    माता की महिमा को दर्शाते हुए एक अनुपम आलेख के लिए बधाई स्वीकारें.

    • Man Mohan Kumar Arya

      नमस्ते बहिन जी। वस्तुतः यह लेख कल मैंने आपके बलाग पर माँ के विषय में लेख पढ़कर ही लिखा है। आप इस लेख की प्रेरणादात्री हैं। हार्दिक धन्यवाद। यह मेरी लेखन रूचि से कुछ कुछ हट कर है। फिर भी मैंने प्रयास किया क्योंकि माँ जैसी चीज संसार में दूसरी कोई नहीं है। माता निर्माता भवति। आज हम जो कुछ बने हैं उसमे सबसे अधिक योगदान हमारी जन्मदात्री माता का है। स्तुता मया वरदा वेदमाता च जन्मदात्री माता। मैं वेद माता और जन्म देने वाली अपनी माता की स्तुति करता हूँ। आपकी कविता भी आत्माहलाद पैदा करने वाले एवं प्रेरक है। सादर।

      • लीला तिवानी

        प्रिय मनमोहन भाई जी, यह हमारे लिए अत्यंत हर्ष का विषय है, कि हमारे लेखन से आपको प्रेरणा मिली. आपका आलेख अति सुंदर व सटीक लगा.

        • Man Mohan Kumar Arya

          नमस्ते एवं हार्दिक धन्यवाद बहिन जी बहुमूल्य कमेंट्स के लिए।

Comments are closed.