ग़ज़ल
शायद अभी भी मुझको कोई तुमसे आस है
इस के लिए तो दिल मेरा इतना उदास है
संग गिरे तुझ पे और ज़ख्म हो मुझे
तू अब भी इस कदर मेरे दिल के पास है
तेरे बगैर तख्त ओ ताज भी नहीं कबूल
तू साथ है मेरे तो मुफलिसी भी रास है
साकी हटा ले जाम मेरे सामने से तू
मय से ना बुझेगी ये आँखों की प्यास है
ज़ख्म हो रुसवाई का या चाहे कर्ब-ए-ज़ात
अपने लिए हर चोट मुहब्बत की खास है
मेरी बरहनगी का उड़ाते हो क्यों मज़ाक,
हर शख्स तेरी बज़्म में तो बेलिबास है
मंजिल खुद आ गई है पता पूछते हुए
तू लग रहा है जैसे मेरे आस पास है
— भरत मल्होत्रा
सुन्दर ग़जल