सामाजिक

जाति प्रथा देश का प्रबल शत्रु। आर्यसमाज ने जाति प्रथा को हिलाया तो परन्तु उसे समाप्त नहीं कर सके: डा. रघुवीर वेदालंकार

ओ३म्

 

देहरादून के श्रीमद् दयानन्द आर्ष ज्यातिर्मठ गुरुकुल पौंधा के तीन दिवसीय वार्षिकोत्सव के दूसरे दिन 4 जून, 2016 को वर्णाश्रम सम्मेलन आयोजित हुआ जिसका संचालन गुरुकुल के पूर्व ब्रह्मचारी रवीन्द्र कुमार आर्य ने योग्यता पूर्वक किया। इसमें प्रस्तुत किये गये विद्वानों के कुछ सम्बोधन प्रस्तुत कर रहे हैं।

……….

वर्णाश्रम सम्मेलन में पंडित धर्मपाल शास्त्री के बाद बहिन कल्पना शास्त्री जी का सम्बोधन हुआ। विदुषी बहिन कल्पना शास्त्री ने कहा कि वर्णव्यवस्था राष्ट्र को चलाने के लिए थी और आश्रम व्यवस्था समाज सहित मनुष्य की अपनी शारीरिक उन्नति के लिए थी। बाद में देश में आश्रम और वर्णव्यवस्था का रूप विकृत हो गया। उन्होंने कहा कि ब्रह्मचारी का अर्थ ब्रह्म के सान्निघ्य में रहते हुए विद्या का अर्जन व पढ़ना होता है। विदुषी बहिन ने वर्तमान शिक्षा की अपूर्णता व इसकी विकृतियों का चित्रण किया। उन्होंने कहा कि आज नींव में घुन लगाने का प्रयास किया जा रहा है। विदुषी वक्ता ने कहा कि वर्णव्यवस्था गुण, कर्म व स्वभाव पर आधारित होती है न कि जन्म पर। समय के साथ इसमें परिवर्तन आया। उन्होंने कहा कि पहले जाति के आधार पर जनगणना नहीं होती थी। अंग्रेजों ने हमें बांटने के लिए जातिगत आधार पर जनगणना आरम्भ की थी। सन् 1831 में पहली बार अंग्रेज अधिकारी रेशले ने जन्म व नस्ल के आधार पर जनगणना कराई। जातिगत आधार पर जनगणना होने से समाज में भिन्न भिन्न समुदायों में खाई बढ़ी है। उन्होंने कहा कि देश के हित के लिए कोई जाति उनका समुदाय सामने आकर आन्दोलन नहीं करता। जातिवाद हमें निरन्तर बांट रहा है जिस पर उन्होंन गहरी चिन्ता दुःख व्यक्त किया। उन्होंने बड़ी संख्या उपस्थित धर्मप्रेमी श्रोताओं को कहा कि हम हम सावधान रहते हुए जातिगत आधार पर आपस में बंटने से बचे।

 

सम्मेलन के अगले वक्ता डा. रघुवीर वेदालंकार ने कहा कि वर्णव्यवस्था हमें सुखी बनाने व हमारा लोक परलोक सुधारने के लिए है इसलिए हमारे वैदिक कालीन पूर्वजों ने वर्ण व्यवस्था को सुदृण किया था। विद्वान आचार्य ने कहा कि महाभारत काल में वर्णव्यवस्था का उच्छेद होने लगा था फिर भी यह किसी न किसी रूप में चलती रही। श्री कृष्ण व सुदामा जी का उदाहरण देकर विद्वान आचार्य ने कहा कि उज्जैन स्थित ऋषि सान्दीपनी के आश्रम में यह दोनों इतिहास प्रसिद्ध महापुरुष साथ साथ पढ़ते थे और दोनों के बाद में भी मैत्रीपूर्ण सम्बन्ध बने रहे। डा. रघुवीर जी ने कहा कि आचार्य द्रोण ने महाभारत काल में वर्णव्यवस्था को उच्छिन्न कर दिया। उन्होंने कहा कि आचार्य द्रोण ने भौतिक अध्यापक बनकर महलों में जाकर राजकुमारों को पढ़ाया। इसके बाद जाति प्रथा अस्तित्व में आई। आचार्य रघुवीर ने जाति प्रथा को देश का प्रबल शत्रु बताया। उन्होंने कहा कि आर्यसमाज आर्यों ने जाति प्रथा को हिला तो दिया परन्तु उसे पूर्ण रूप से समाप्त नहीं किया। आचार्य जी ने उत्तर प्रदेश का उदाहरण देकर कहा कि वहां यादव जाति के लोगों को सभी पदों पर भरा जा रहा है। बिहार व हरयाणा की स्थिति आप लोग देख चुके हैं। जाति प्रथा मनुष्य को रसातल में पहुंचाती है। इतना जुल्म तो आतंकवादी भी नहीं करते जो जातिप्रथा के द्वारा हुआ है होता है। हरयाणा में विगत समय जाति आन्दोलन के परिप्रेक्ष्य में आचार्य जी ने कहा कि वहां बड़ी संख्या में आर्यसमाजी भी है परन्तु फिर भी वहां मनुष्यता को शर्मसार करने वाली घटनायें घटी।

 

विद्वान आचार्य डा. रघुवीर वेदालंकार ने कहा कि बौद्धिक काम करने वाला ब्राह्मण वर्ग में आता है। समाज व देश की रक्षा के काम करने वाला क्षत्रिय वर्ण में आता हे। डा. रघुवीर ने कहा कि वर्ण उसे कहते हैं जिसे स्वेच्छा से स्वीकार किया जाये। आज इन प्राचीन व्यवस्थाओं को जन्म पर आधारित जाति से जोड़ दिया गया है। आचार्य जी ने कहा कि शूद्र हमारे समाज के अंग हैं। आचार्य रघुवीर जी ने कहा कि वर्तमान की राजकीय व्यवस्था भी जन्मना व्यवस्था की सहयोगी है। हमें संगठित होकर जन्मना जाति व्यवस्था का विरोध करना चाहिये। उन्होंने कहा कि जाति तोड़ों कहने से जाति कभी समाप्त नहीं होगी। आचार्य जी ने कहा की गुरुकुलीय शिक्षा में शिष्यों को गुरु का सान्निध्य मिलता है जिससे उनका चरित्र बनता है। स्कूली शिक्षा में गुरु व शिष्य का सान्निध्य न बनने से इनके आपस का संबंध और चरित्र समाप्त हो गया है। आचार्य जी ने कहा कि आर्यसमाज द्वारा इनका स्वरुप निखारने का प्रयास किया जाना चाहिये। इसी के साथ विद्वान वक्ता ने अपने वक्तव्य को विराम दिया।

 

वर्णाश्रम सम्मेलन के अगले वक्ता डा. सोमदेव शास्त्री, मुम्बई ने अपने सम्बोधन में बताया कि बड़ोदा नरेश सयाजीराव गायकवाड़ ने आर्य विद्वान पंडित आत्माराम अमृतसरी जी अपने राज्य में दलितों के कल्याण व जन्मना जाति प्रथा के उन्मूलन का कार्य करने के लिए आमंत्रित किया था। उन्होंने कहा कि डा. भीमराव अम्बेडकर को बड़ोदा नरेश से बीस हजार रूपयों का सहयोग कराया था जिससे वह विदेश जाकर अपनी पढ़ाई कर सके। विद्वान वक्ता ने कहा कि आर्यसमाज ने जातिवाद को जड़मूल से उखाड़ने का काम किया है। आर्यसमाज ने मलकाने राजपूतों को इस लिए शुद्ध किया कि यह लोग हिन्दुओं में घुलमिल जायें। उन्होंने यह भी बताया कि सैकड़ों की संख्या में आर्य समाजियों ने दलित कन्याओं से विवाह किये। 1901 की जनगणना की चर्चा कर उन्होंने बताया कि इसमें सिख व हिन्दुओं की पहली बार अलग अलग गणना दिखाई गई थी। उन्होंने बताया कि स्वर्णमन्दिर, अमृतसर का पुराना नाम हर मन्दिर है जहां पहले हिन्दू देवी देवताओं की मूर्तियां होती थीं। सिख बन्धु अपने विवाह भी हिन्दू रीति से हिन्दू पुरोहितों द्वारा ही कराते थे। उनके अनुसार अंग्रेजों ने हिन्दु व सिखों को आपस में बांटा।

 

आचार्य सोमदेव शास्त्री ने हिन्दू समाज से जाति सूचक शब्दों को हटाने का आह्वान किया। उन्होंने कहा कि ब्राह्मण वेदों का ज्ञानी व उनके लिए विहित कर्मों को करने वाला ही हो सकता है। उन्होंने श्रोताओं को पूछा कि आप सन्ध्या व हवन करते हैं या नहीं, इस पर आप विचार करें। विद्वान वक्ता ने कहा कि मनुष्य के जन्म के समय उसकी कोई जाति नहीं होती। उन्होंने कहा कि जब तक हम आर्यसमाज के नियमों को अपने जीवन व्यवहार में नहीं लायेंगे तब तक हम जन्मना जातिवाद से बच नहीं सकते। हमें अपने कार्यों व व्यवहार पर ध्यान देने की आवश्यकता है। आचार्य जी ने कहा कि संन्यासियों की कोई बिरादरी नहीं होती। संन्यासी सम्पूर्ण समाज का होता है और सम्पूर्ण समाज संन्यासी का अपना होता है। डा. सोमदेव शास्त्री ने वेद के नियमों के पालन और उन पर आचरण व व्यवहार करने पर बल दिया। उन्होंने धर्मप्रेमी श्रोताओं को कहा कि वैदिक धर्म को पारिवारिक धर्म बनायें। जब वैदिक धर्म पारिवारिक धर्म बनेगा तभी यह सामाजिक धर्म भी बनेगा। इसी के साथ उन्होंने अपने वक्तव्य को विराम दिया। इसके बाद गुरुकुल के आचार्य डा. धनंजय जी ने दानियों की सूची पढ़कर सुनाई जिसमें भजनोपदेशक ओम् प्रकाश वर्मा, यमुनानगर, माता आशा वम्र्मा, श्री कृष्णमुनि वानप्रस्थी जी, श्री वेदप्रकाश गुप्ता, माता सुरेन्द्र अरोड़ा तथा माता पुष्पलता आर्या आदि अनेक नाम थे।

 

सम्मेलन के समापन पर अध्यक्षीय भाषण देते हुए स्वामी प्रणवानन्द सरस्वती ने कहा कि 16 वर्ष पूर्व संस्थापित गुरुकुल पौंधा उत्तरोत्तर बढ़ रहा है। गुरुकुल के ब्रह्मचारियों ने अनेक ग्रन्थों को कण्ठस्थ किया हुआ है जिसमें से कुछ ने उन्हें आपके सामने प्रस्तुत किया है। स्वामीजी ने बताया कि आपके इस गुरुकुल को सुदूर दक्षिण भारत के तिरुपति नगर में प्रथम, द्वितीय व तृतीय पुरुस्कार प्राप्त कर एक रिकार्ड बनाया। उन्होंने कहा कि इस गुरुकुल को आपका पूरा सहयोग मिला है। स्वामीजी ने प्रमुख सहयोगियों के नाम भी श्रोताओं को बताये और उनका धन्यवाद किया। स्वामीजी ने 16 वर्ष पूर्व गुरुकुल की स्थापना के प्रथम दिवस देहरादून आने के संस्मरण भी सुनाये और कहा कि हमें देहरादून के लोगों का भरपूर सहयोग मिला। स्वामी जी ने इस वर्ष गुरुकुल में बने 17 कमरों की जानकारी दी और श्रोताओं से सहयोग करने की अपील की। स्वामीजी ने वर्णाश्रम सम्मेलन में बहिन कल्पना शास्त्री जी और डा. रघुवीर जी के व्याख्यानों का उल्लेख कर उनकी सराहना की। उन्होंने डा. रघुवीर जी से जुड़े अपने गुरुकुलीय जीवन के कुछ संस्मरण भी सुनाये और गुरुकुल की स्थापना और संचालन में पं. धर्मपाल शास्त्री और पं. ओमप्रकाश वर्मा, यमुनानगर के योगदान की चर्चा कर उनका धन्यवाद किया।

 

स्वामी जी ने कहा कि यदि हम वर्णाश्रम व्यवस्था को ठीक कर लेंगे तो हमारी सामाजिक गाड़ी अच्छी तरह से दौड़ेगी। उन्होंने कहा कि जातिवाद से समाज खोखला हो गया है।समान प्रसवः जाति’ के सिद्धान्त को ही उन्होंने ग्राह्य बताया। उन्होंने कहा कि सम्पूर्ण मनुष्य जाति एक जाति है जिस प्रकार से गाय, बकरी, भैंस, अश्व आदि जातियां हैं। वर्णव्यवस्था को उन्होंने ऋषियों की व्यवस्था बता कर उनका योग्यता के आधार पर होना बताया।  उन्होंने कहा कि समाज में सबके कर्तव्य अलग अलग होते हैं। योग्यता का प्रमाण पत्र आचार्य द्वारा दिया जाता है। वह जो कहेगा वही उसका वर्ण होगा। स्वामी जी ने चार वैदिक आश्रमों का भी उल्लेख किया। उन्होंने कहा कि विद्या और धर्म की उन्नति के लिए ब्रह्मचर्य आश्रम किया जाता है। वानप्रस्थ आश्रम कमियों को दूर करने के लिए होता है। संन्यास आश्रम पूर्ण विद्या और पूर्ण वैराग्य के होने पर होता है। आश्रम व्यवस्था में संन्यासी के लिए सब व्यवहार त्यागने योग्य होते हैं परन्तु वेद को छोड़ने का विधान नहीं है। स्वामी जी ने अपने बारे में कहा कि मैं ब्रह्मचारियों को पढ़ाकर व संन्यासियों के कुछ कर्तव्यों का पालन करने के बाद रोटी खाता हूं। उन्होंने कहा कि संन्यासी सब प्राणियों को अभय दान देता है। समाज स्वस्थ रहे, सबकी उन्नति हो इसलिए ऋषियों ने हमें वर्ण व्यवस्था दी है। अपने वक्तव्य को विराम देते हुए स्वामी जी ने सबका धन्यवाद किया।

 

मनमोहन कुमार आर्य

4 thoughts on “जाति प्रथा देश का प्रबल शत्रु। आर्यसमाज ने जाति प्रथा को हिलाया तो परन्तु उसे समाप्त नहीं कर सके: डा. रघुवीर वेदालंकार

  • लीला तिवानी

    प्रिय मनमोहन भाई जी, आपने बिलकुल दुरुस्त फरमाया है. जाति प्रथा देश का प्रबल शत्रु है. अति सुंदर व सार्थक आलेख के लिए आभार.

    • Man Mohan Kumar Arya

      नमस्ते एवं हार्दिक धन्यवाद आदरणीय बहिन जी सुंदर प्रतिक्रिया देने के लिए। सादर।

  • मनमोहन भाई , लेख अच्छा लगा ,जाती प्रथा भारत के माथे पर कलंक है .

    • Man Mohan Kumar Arya

      नमस्ते एवं हार्दिक धन्यवाद आदरणीय श्री गुरमेल सिंह जी। सुंदर प्रतिक्रिया देने के लिए आभार। सादर।

Comments are closed.