कविता

कविता : वो यादें

जो संवारा था घर आँगन
डूबा है विरह में
खोजता-फिरता हूं दलहीज पर उन स्पर्शों को
जब याद दिलाती वो यादें
अच्छे थे मौसम कहावतों के
उमड पडा सैलाब दु:ख दर्द बनकर.
न जाने कहाँ था खडा
असामान्य स्थिर हृदय गति होती है
जब न्याय से चिल्लाती हैं वो यादें
जन-जन रोता है
पल-पल अच्छाई से वाकिफ होता है
चार दीवारी से ज्यों टकराकर.
घाव को नासूर बनाती हैं वो यादें
दिलों को चीरकर.
सागर सी लहरों की उमड
नि:सहाय होकर सीप पर
उमड-घुमड कर आती हैं वो यादें
आती हें सदा यों निकलकर
आत्माओं को कर खोखला
है विराजमान शांन्ति के बिन्दु पर
न रहा कोई लाडला
विहस जब एहसास कराती हैं वो यादें

संतोष पाठक

संतोष पाठक

निवासी : जारुआ कटरा, आगरा