भावन मां (रेखाचित्र)
आज से 80 साल पहले उनके यहां पहला बेटा जन्मा था. बेटे का नाम रखा गया भावन, इसी के साथ मां का नामकरण भी ”भावन मां” हो गया. कारण वही, उस समय बच्चों के नाम से ही मां पुकारा जाता था, इससे पहले तो वह बहू, बेटी, या ”इधर आना” होती थीं. न पति पत्नि का नाम लेता था, न पत्नी पति का. उसके बाद पति के लिए भी वे ”भावन मां” हो गईं. पति के लिए ही क्यों पूरी आदर्श नगर सिंधी कॉलोनी के लिए वे ”भावन मां” हो गईं. हम बच्चे तो उन्हें दादी कहकर पुकारते थे. वे कॉलोनी के सभी बच्चों की दादी थीं. कारण जानना चाहेंगे? उनके अद्भुत गुण ही इसका कारण हैं.
न जाने कब और कैसे भावन मां को पता चला, कि वे किसी भी बीमारी का इलाज कर सकती हैं. उन्होंने इस गुण को सिर्फ़ अपने बच्चों तक ही सीमित नहीं रखा, सभी बच्चों को इसका लाभ मिला. हमारा भी ज़रा-सा गला खराब हो, हम शोर मचा देते थे- ”अम्मा, हम भावन मां के पास जा रहे हैं.”
कारण पूछा जाता तो खंखारकर जता देते, कि ”हमारा गला खराब है.”
अम्मा चूल्हे की थोड़ी-सी राख पकड़ा देती थीं और हम भावन मां के पास चले जाते थी. वे तुरंत राख से इस तरह हमारी पीड़ित नस को दबाती थीं, कि तुरंत ठीक हो जाता. फिर बहू को बोलतीं, कि बेटी को मक्खन-रोटी देना ज़रा. गरम-गरम फुल्के पर घर का ताज़ा मक्खन-चीनी खाकर हम दौड़कर वापिस आते थे. उस समय सभी घरों में तड़के-तड़के ताज़ा मक्खन निकलता था, ताज़े गुंदे आटे की ताज़ी-ताज़ी रोटियां मक्खन के साथ सेहत और स्वाद का ख़ज़ाना होती थीं, पर भावन मां के घर की मक्खन-रोटी की बात ही कुछ और थी. रोटी खाते समय वे हमारे सिर पर प्यार से हाथ फिराते हुए, जो जादू जगाती थीं, उसका तो कोई मुकाबला ही नहीं था. तीन दिन तक यह सिलसिला चलता था, ताकि फिर जल्दी से गला खराब न हो.
होली के ढेरों गीत याद होना भावन मां की दूसरी बड़ी विशेषता थी. होली से एक महीना पहले सबके घर रात का खाना छह बजे बन जाता था. पापा लोगों के नौकरी या व्यवसाय से आते ही सब खाना खाते थे, महिलाएं जल्दी-जल्दी बर्तन मांज-मूंजकर रसोईघर धो देती थीं और तैयार होकर बच्चों की फौज के साथ चल पड़ती थीं भावन मां के घर. तरह-तरह के गीत गाकर स्वांग रचे जाते थे और फिर सबके घरों से आए मिठाई-नमकीन का भोग लगता था. एक महीना यही रौनक लगती थी उनके बड़े-से आंगन में. बड़े दिल वाली भावन मां उम्र में न जाने कितनी बड़ी थीं, पर लगती थीं सबसे जवां. हमने 21 साल तक उनको वैसा ही देखा. हमारी शादी में भी उन्होंने बहुत गीत गाए, डांस भी किया, ढोलक भी बजाई. उसके बाद भी जब मैं मायके आती थी, भावन मां का हालचाल ज़रूर पूछती थी. धीरे-धीरे हमारा पूछना भी कम हो गया. फिर एक दिन पूछा तो पता चला- ”वे बिलकुल ठीक-ठाक थीं, एक दिन बैठे-बैठे ही रामप्यारी हो गई थीं.”
इस कथा में संस्मरणों का प्रस्तुतीकरण बहुत प्रभावशाली हुआ है। कीर्तियस्य सः जीवति। सादर।
भावन माँ का रेखा चित्र बहुत अच्छा लगा .इस भावन माँ के रेखा चित्र से मुझे बचपन का बूया पर्तापो का रेखा चित्र समरण हो आया, जिस का हवाला मैं अपनी कहानी में लिख चूका हूँ .
प्रिय गुरमैल भाई जी, आपने बिलकुल दुरुस्त फरमाया है. परतापो बुआ की सहृदयता भुलाना नामुमकिन है. अति सुंदर प्रतिक्रिया के लिए आभार.