सामाजिक

अन्धविश्वास : समाज में घुलता एक जहर

भारत के गौरवशाली इतिहास में यहाँ की मान्यताओं का भी एक विशेष स्थान रहा है. यह अपने रीति –रिवाज और परम्पराओं के लिए भी विशेष रूप से जाना जाता रहा है. पहले ये मान्यताएं हमारे हित में हमारे बड़ों द्वारा बनायीं गयी थीं, जो वैज्ञानिक आधार पर भी खरी उतरती थीं. जैसे…भोर की बेला में नहाधोकर तुलसी व् सूर्य को जल अर्पण करना. यहाँ तुलसी एक औषधि के रूप में कारगर है तथा उगते सूरज की किरणों से हमारे शरीर को विटामिन डी मिलता है. ऐसी ही अनेक रीतियाँ हमारे भले के लिए हमारे बुजुर्गों द्वारा बनायीं गई थीं, जिन्होंने आगे चलकर परम्पराओं का रूप ले लिया. लेकिन इन परम्पराओं में किसी दकियानूसी सोच के जुड़ जाने से कुछ गलत परम्पराएँ भी बन गयीं. जिन्हें हम रूढ़िवादिता या अन्धविश्वास कहते हैं.

तो जिन रीति रिवाजों से समाज में किसी का अहित होता हो वे अन्धविश्वास कहलाती हैं. मसलन विधवा स्त्री का किसी शुभ कार्य में शामिल होना अपशकुन माना जाना, या स्त्री का अपने पति की मौत पर सती के रूप में उसके साथ जिंदा जल जाना आदि. ऐसे अनेक कृत्य जो मानवता को तार तार करते हैं आज भी हमारे समाज में प्रचलित हैं. हांलाकि समय समय पर किसी न किसी समाज सुधारक द्वारा इन गलत मान्यताओं को सिरे से नाकारा गया है व् उनके खिलाफ आवाज भी बुलंद की गई है. फिर भी अपने स्वार्थ व् लालच के वशीभूत होकर कुछ लोग आज भी इन मान्यताओं और धर्म के नाम पर भोली भाली जनता को ठगने से बाज नहीं आते हैं. आज के दौर में जहाँ एक तरफ प्रौद्योगिकी व् तकनीकी विकास तेजी से हुआ है वहीँ दूसरी तरफ इन ढोंगी बाबाओं, अघोरियों, तांत्रिकों, पंडितों, ज्योतिषियों, अंकशास्त्रियों आदि का कारोबार भी लाखों, करोड़ों, अरबो, खरबों की शक्ल में फ़ैल चुका है. मजे की बात यह है कि, इन अंधविश्वासों में जकड़े लोग किसी वर्ग विशेष से संबंधित नहीं हैं. चाहे अमीर हो या गरीब, चाहे पढ़ा लिखा हो या अनपढ़, नौकरीपेशा हो या कोई नेता अभिनेता. सभी इन बाबाओं के मकडजाल में उलझे हैं.

नित नए बढ़ते चैनलों में भी मीडिया द्वारा लगातार ऐसे बाबाओं के प्रवचन व् प्रोग्राम रात दिन दिखाए जाते हैं, जो साफ़ साफ़ आडम्बरयुक्त नजर आते हैं. ये भक्तों के नाम पर सिर्फ अपने व्यापारिक ग्राहकों की संख्या बढ़ाते हैं. निकम्में, बेकार, मनमौजी व् आलसी व्यक्ति के पास एक यही बेहतर विकल्प होता है कि, बाबा बन कर लोगों को ठगा जाय. ये वो व्यापार है जिसमे कोई रिस्क नहीं होता, और ना ही रुपयों का कोई बड़ा इन्वेस्टमेंट. भक्तों से मिले दान व् चढ़ावे से इनकी रोजी रोटी चलती है और एक दिन इसी की बदौलत ये ख्यात बाबाजी का चोला धारण कर लोगों पर बड़ी आसानी से राज करते हैं. आलीशान गाड़ियों और बड़े बड़े आश्रमों के मालिक ये बाबा जल्द ही अपनी ताकत के बल पर सिद्ध पुरुष या किसी भगवान् का अवतार बन जाते हैं. और भोली भाली जनता इन्हें पूजकर अपने आपको धन्य मानती है.

इन बातों का ये मतलब कतई नहीं है कि आज के सभी संत महात्मा ऐसे ही ठग हैं. परन्तु संतों की जमात में ६०-७०% तक ऐसे ही लोग शामिल हैं. जो आमजन की परेशानियों व् तकलीफों की आंच पर अपने मतलब की रोटी सेंकने से बाज नहीं आते.

आजकल इंटरनेट के उपयोग में भी हमें इन अंधविश्वासों की झलक आसानी से देखने को मिल जाती है. उदाहरण के तौर पर फेसबुक और व्हाट्सअप  पर ऐसे सैकड़ों सन्देश रोजाना पोस्ट होते हैं जिनमे लिखा रहता है, तुरंत लाइक करें, नकारें नहीं. शाम तक कोई गुड न्यूज मिलेगी. या फिर ये मैसेज पढने के १५ सेकंड के भीतर ९ लोगों को सेंड करें, चमत्कार होगा. और फिर शाम तक ऐसी पोस्ट को लाखों लाइक मिल चुके होते हैं.

इसी तरह का एक वाकया मेरे साथ हुआ. अभी कुछ दिन पहले एक भाभीजी का व्हाट्सअप पर मैसेज आया, जिसमे एक विशाल पेड़ के अन्दर गणेश जी दिखाई दे रहे थे. लिखा था, ये फोटो तीन ग्रुप में सेंड करें. फोटो देखकर साफ़ लग रहा था कि ये ट्रिक फोटोग्राफी का कमाल है. जब कब उन भाभी जी के ऐसे ही मैसेज आते रहते थे. मैं परेशान हो चुकी थी. उस दिन मैंने कुछ हिम्मत जुटाकर उन्हें मैसेज किया कि मैं इन बातों पर विश्वास नहीं करती, कृपया आगे से मुझे ऐसे मैसेज न भेजें. फिर तो जैसे मेरी शामत आ गई. जवाब में तुरंत उन भाभी जी का फ़ोन आया, जिस पर उन्होंने मुझे खूब खरी खोटी सुनाई कि ज्यादा पढ़े लिखे होने से तुम्हारा दिमाग खराब हो गया है. ब्राह्मण कुल में जन्म लेकर भी तुम हिन्दू देवता का अपमान कर रही हो. मेरे लाख समझाने पर भी उन्होंने मुझे जी भर कोसा.

आज समाज में ऐसे कई उदाहरण रोजाना ही हमें देखने को मिलते हैं. क्या हम आशाराम बापू के घिनौने कृत्यों से वाकिफ़ नहीं हैं? फिर भी अंधभक्ति में जुटे कई लोगों को आज भी वे ईश्वरतुल्य नजर आते हैं. ये उजले वस्त्रधारी किन-किन संगीन गुनाहों में लिप्त हैं, ये कोई नहीं जानता या तो जानकर भी अपने फ़ायदे के लिए अनजान बना रहता है.

आज वक्त आ चुका है कि हम अपनी आधुनिकता का सही मायने में उपयोग कर समाज को इस गोरखधंधे से मुक्त करवायें. परम्पराओं और रूढ़िवादिता में अंतर समझें. विश्वास और अन्धविश्वास के बीच का महीन फ़र्क पहचानें. तभी हम अपने देश को दुनिया में आगे की पंक्ति में खड़ा कर पाएंगे.

— पूनम पाठक ‘पलक’

पूनम पाठक

मैं पूनम पाठक एक हाउस वाइफ अपने पति व् दो बेटियों के साथ इंदौर में रहती हूँ | मेरा जन्मस्थान लखनऊ है , परन्तु शिक्षा दीक्षा यही इंदौर में हुई है | देवी अहिल्या यूनिवर्सिटी से मैंने " मास्टर ऑफ़ कॉमर्स " ( स्नातकोत्तर ) की डिग्री प्राप्त की है | इंदौर में ही एकाउंट्स ऑफिसर के जॉब में थी | परन्तु शादी के बाद बच्चों को उचित परवरिश व् सही मार्गदर्शन देने के लिए जॉब छोड़ दी थी| अब जबकि बच्चे कुछ बड़े हो गए हैं तो अपने पुराने शौक लेखन से फिर दोस्ती कर ली है | मैं कविता , कहानी , हास्य व्यंग्य आदि विधाओं में लिखती हूँ |