धर्म-संस्कृति-अध्यात्म

वानप्रस्थ साधक आश्रम रोजड़ में स्वामी सत्यपति जी के दर्शन, सत्संगादि और जोधपुर यात्रा के हमारे कुछ संस्मरण

ओ३म्

टंकारा से 8 मार्च, 2016 को पूर्वान्ह में राजकोट आकर हमनें रेलमार्ग से अहमदाबाद के लिए प्रस्थान किया और अहमदाबाद पहुंच कर बस मार्ग से रोजड़ पहुंचे जहां वानप्रस्थ साधक आश्रम’ पहुंच कर निवास करने के साथ रात्रि व प्रातःकालीन सत्संग में भाग लिया। आश्रम में श्रद्धेय स्वामी सत्यपति जी के दर्शन किये और उनसे काफी देर तक वार्तालाप किया व उनके उपदेशों को सुना।

अहमदाबाद रेलवे स्टेशन से बाहर आकर हमने रोजड़ के रास्ते मुडासा जाने वाली बस ली। लगभग 2 घंटे की यात्रा के बाद रोजड़ चैकड़ी स्थान आया। वहां से लगभग 1.5 किमी. दूरी पर स्थित वानप्रस्थ साधक आश्रम पहुंचे। आश्रम का बाह्य परिवेश देखकर मन प्रसन्न हो गया। आश्रम के द्वार के पास ही अतिथि स्वागत कार्यालय है जहां आश्रम के सभी गुजराती व हिन्दी भाषा के प्रकाशनों को भी भव्य व आधुनिक रूप से प्रदर्शित किया गया है। कार्यालय को स्वच्छ, सुन्दर व आधुनिक रूप में देखकर मन प्रसन्न हुआ। ऐसा सुन्दर कार्यालय इससे पूर्व कहीं किसी आर्य संस्था का नहीं देखा। वहां के कार्यालय प्रभारी युवक श्री अशोक जी से पहले ही दूरभाष पर बात हो गई थी। उन्होंने जल पिलाकर हमारा सत्कार किया। एक ब्रह्मचारी को बुलाकर समझाया और वह हमें हमारे निवासार्थ अतिथि कुटिया में ले गया। वहां हमने देखा कि दूसरी मंजिल पर हमें दिये गये कमरे में बिस्तर लगा हुआ है। कीचन में गैस आदि अनेक सामान हैं। एक फ्रिज भी वहां था जिसमें फलों का 1 लिटर रस व साथ की टेबल पर नमकीन आदि के पैकेट रखे थे। ब्रह्मचारी ने हमें रात्रि भोजन का समय बताया और कहा कि वह समय पर आकर हमें भोजन कक्ष में ले जायेगा जो वहां से कुछ ही दूरी पर था। पाकशाल पहुंचकर वहां भोजन कक्ष में हमने देखा कि कुछ स्त्री व पुरुष भोजन कर रहे हैं। सभी मौन थे। कोई किसी से बोल नहीं रहा था। हमने भी औरों का अनुकरण करते हुए भोजन किया और अपने कमरे में आ गये। भोजन के बाद कुछ देर विश्राम किया और रात्रि सत्संग का समय हो गया। जैसा हमें बताया गया था हम अपने निवास वाले कमरे के पीछे वाली वृहत, भव्य व आधुनिक सुविधाओं से पूर्ण कई मंजिली इमारत में प्रविष्ट हुए। वहां अनेक ब्रह्मचारी पंक्तिबद्ध होकर, मन्त्र पाठ व भजनों का गान करते हुए, आये और यज्ञशाला की एक परिक्रमा कर अपने-अपने स्थानों पर बैठ गये। 6 महिलाओं व 8 पुरुषों सहित हम पहले से ही वहां रखी हुईं कुर्सियों पर अवस्थित थे।

कुछ ही देर में सत्संग आरम्भ हो गया। इस सत्संग में स्वाध्याय एवं प्रवचन का कार्यक्रम ब्रह्मचारी सन्तोष जी द्वारा प्रस्तुत किया गया। रात्रि 8.07 बजे एक भजन प्रस्तुत किया गया। भजन था तेरे दर को छोड़कर किस दर जाऊं मैं, सुनता मेरी कौन है जिसे सुनाऊं मैं। जब से याद भुलाई तेरी लाखों कष्ट उठाये हैं, क्या जानू इस जीवन अन्दर क्या-2 पाप कमायें हैं। हूं शर्मिदा आपसे क्या बतलाऊं मैं। तेरे दर को छोड़ कर किस दर जाऊं मैं।।’ इस भजन के बाद स्वाध्याय के अन्तर्गत ऋग्वेदादिभाष्य भूमिका के उपासना विषय का स्वाध्याय ब्रह्मचारी जी ने कराया। इस स्वाध्याय में ईश्वर कौन है? वह कैसा है? आदि प्रश्नों के उत्तर बताये गये। कहा गया कि, बिना सृष्टिकर्त्ता ईश्वर के, प्रकृति नाम वाली जड़ सत्ता से सृष्टि की रचना होकर पालन नहीं हो सकता अर्थात् संसार चल नहीं सकता। यह भी बताया गया कि जीवात्मा एकदेशी सत्ता होने से संसार के समस्त कार्यों को नहीं कर सकती। ईश्वर का वर्णन करते हुए योगदर्शन के सूत्र  का उच्चारण करके बताया गया है कि क्लेश, कर्म कर्मफल से रहित पुरुष विशेष को ईश्वर कहते हैं। विद्वान वक्ता ने कहा कि स्वाध्याय तथा योग के द्वारा ईश्वर को प्राप्त करना चाहिये।

दिनांक 9 मार्च के प्रातः कालीन सत्संग में ब्रह्मचारी देव मित्र जी ने इन्द्रियों द्वारा विषय सेवन की तुलना बिच्छू व सांप के डंक से की। उन्होंने कहा कि यदि हम जागें रहेंगे तो बचे रहेंगे और यदि आंखे बन्द कर लेंगे तो विषयों व सर्प दंश से बच नहीं सकेंगे और मृत्यु निश्चित है। आचार्य जी ने माता मदालसा का उदाहरण देकर बताया कि उन्होंने अपने पुत्र को कहा था, उठ जा, सोना नहीं, तेरा जन्म जागने के लिए किया है। जा ब्रह्म को प्राप्त कर। उन्होंने गंगेतु राजा की पुत्री गंगा और सात पुत्रों की चर्चा की जो एक के बाद एक समाप्त हो गये। उनका आठवां पुत्र गंगशीत ब्रह्म को जानने का प्रयत्न करने से कौटिल्य कहलाया। माता ने अपनी मृत्यु आने पर अपने अन्तिम समय में अपने पुत्र को कहा कि मेरा जीवन समाप्त हो रहा है, अन्तिम श्वास ले रही हूं, कुछ समय में ही परलोक जा रही हूं। उन्होंने इस अवस्था में अपने पुत्र को आदेश दिया कि तू अखण्ड ब्रह्मचर्य का पालन करना जिससे मृत्यु तुझे छू सके। माता कहती है कि मेरा जीवन तब सफल होगा कि जब वह अपने जीवन को ब्रह्मचर्यपूर्वक व्यतीत कर महान बनायेगा। आचार्य जी ने बताया कि यही बालक आगे चलकर भीष्म पितामह बना। आचार्य जी ने वेद की सूक्तियों को प्रस्तुत कर उनका आशय बताते हुए कहा कि इनमें कहा गया है कि हे मनुष्य ! तू सूर्य के समान तेजस्वी और महान बन। अन्धकार को समाप्त कर। राष्ट्र को उच्च महान बना। वेदों की महत्ता बताते हुए उन्होंने कहा कि भारत की आरम्भ से ही यह विशेषता रही है कि यहां नारी पुरुषों को उपदेश कर सकती है। वक्ता महोदय ने श्रोताओं को एक कथा सुनाई और कहा कि एक नारी ने अपने पतिदेव को कहा कि यह मेरा मृत्युकाल है। परिवार में मैं, आप और हमारा पुत्र तीन लोग हैं। उस देवी ने अपने पति को कहा कि यह मेरा आदेश है कि यदि आपको संसार की इच्छा हो तो अपना दूसरा संस्कार करा लेना। यदि संस्कार किये बिना किसी कन्या को भ्रष्ट कर दिया तो इससे राष्ट्र भ्रष्ट हो जायेगा। आप विवाह कर लेना परन्तु राष्ट्र भ्रष्ट करना क्योंकि तुम राजा हो। तुम्हारे किसी भी बुरे कर्म से राष्ट्र को हानि होगी। आप जब राज्य छोड़े तो आपका राज्य निर्मल, शुद्ध पवित्र हो, ऐसे राज्य को ही परमेश्वर को लौटना। यह कह कर वक्ता महोदय ने कहा कि यह राजा शन्तनु के जीवन का प्रसंग था। इसके बाद आचार्य जी ने देवव्रत भीष्म का अपनी दूसरी माता के पिता से संवाद का वर्णन किया। इस संवाद की पृष्ठ भूमि में ही उन्होंने आजीवन ब्रह्मचर्य व्रत का पालन करने का वचन उन्हें दिया। उन्होंने बताया की भीष्म जी की दूसरी माता से चित्रांगद और विचित्र वीर्य का जन्म हुआ था। आचार्य जी ने कहा कि गलत मार्ग को छोड़ कर सही मार्ग पर चलने का प्रयत्न करें। सही मार्ग ही पगदण्डी होता है। अपने सम्बोधन में आचार्यजी ने प्रेय और श्रेय मार्ग की चर्चा की और इसे चित्र के द्वारा श्रोताओं को समझाया। दौड़ने की गति का उल्लेख कर उन्होंने कहा कि यह कोई नियम नहीं कि जो पहले चला वह पहले ही मंजिल पर पहुंचेगा। उन्होंने कहा कि यदि कोई असीम बल से दौड़ेगा तो वह पहले चले हुओं से बहुत आगे जा सकता है।

इस सत्संग की समाप्ति के बाद हम अपनी निवास कुटिया में आये। कुछ देर बाद हमें सूचना मिली की स्वामी जी अपने कक्ष के बाहर आ गये हैं और आश्रम में पधारे लोग यदि चाहें तो उनसे मिल सकते हैं। पूर्वान्ह 10.00 बजे का समय था। हम तत्काल स्वामी जी की कुटिया जो हमारे निवास की कुटिया के काफी निकट थी, वहां पहुंच गये और स्वामी जी के चरण स्पर्श कर उनके पास बैठ गये। स्वामी जी के पास उनकी परिचर्या करने वाले दो ब्रह्मचारी उपस्थित थे। वानप्रस्थी श्री शशि मुनि जी (पूर्व नाम श्री शशि भूषण मलहोत्रा) तथा श्री गिरीश जी भी वहां उपस्थित थे। हमारे स्वामी जी के पास आने के बाद श्री रामदास सेवक जो टंकारा से 8 मार्च, 2016 की रात्रि को आश्रम पहुंचे थे, वह भी आ गये। स्वामी जी ने हम सबको लगभग आधा घण्टा सम्बोधित किया। आरम्भ में स्वामी जी ने हमसे हमारी रुचि पूछी। हमने स्वामी जी को आर्यसमाज के साहित्य का अध्ययन व लेखन बताया। स्वामी सत्यपति जी ने हमें योग साधना की प्रेरणा की। स्वामी जी ने योग दर्शन पर व्यास भाष्य की चर्चा की और अपने ब्रह्मचारी सेवक से उसकी प्रति मंगा कर कुछ स्थलों को देखकर ऋषि व्यास जी के वचनों का उल्लेख कर उस पर अपने विचार व्याख्यानरुप में कहे। हमें भी इस ग्रन्थ को ले जाकर अध्ययन की प्रेरणा की। बाद में हमने यह ग्रन्थ कार्यालय से प्राप्त कर लिया और अब यह हमारी बहुत बड़ी पूंजी है। स्वामी जी ने आर्यसमाज के प्रथम नियम सब सत्य विद्या और जो पदार्थ विद्या से जाने जाते हैं उनका आदि मूल परमेश्वर है’ की चर्चा कर कहा कि सभी विद्याओं का आदि मूल परमेश्वर है। स्वामी जी ने इस नियम पर विचार करते हुए अपने कुछ विचार भी प्रस्तुत किये। स्वामी जी ने सत्यार्थ प्रकाश के नवम् समुल्लास में आये बन्धन और मोक्ष विषय की चर्चा कर मोक्ष के स्वरुप उसके विभिन्न पहलुओं पर विस्तार से प्रकाश डाला। ऋग्वेदादि भाष्य भूमिका में आत्मा के शरीर में निवास के स्थान पर ऋषि दयानन्द के वचनों की चर्चा करते हुए उन्होंने कहा कि गले उदर के मध्य दोनों स्तनों के बीच में जीवात्मा रहता है। ऋषि दयानन्द जी के मोक्ष विषयक विचारों को प्रस्तुत कर स्वामीजी महाराज ने उन की सरल व्याख्या की और उपस्थित सभी लोगों को मोक्ष की प्राप्ति के लिए साधना करने की प्रेरणा की। स्वामीजी ने कहा कि मोक्ष कोई स्थान विशेष नहीं अपितु ईश्वर में ही है। स्वामी सत्यपति जी ने ऋषि दयानन्द के वचनों कि मनुष्य जब अच्छा काम करता है तो उसके मन आत्मा में सुख, प्रसन्नता, उत्साह आनन्द की अनुभूति होती है और जब बुरा काम करता है तो भय, शंका लज्जा उत्पन्न होती है, को प्रस्तुत किया और कहा कि जीवात्मा में यह अनुभूतियां ईश्वर की ओर से कराई जाती हैं। वार्तालाप में स्वामी सत्यपतिजी की सत्संग प्रवचन विषयक तीन खण्डों में प्रकाशित पुस्तक बृहती ब्रह्म मेधा’ की चर्चा भी हुई। स्वामीजी लगभग आधा घण्टे से निरन्तर बोले जा रहे थे, तभी ब्रह्मचारी ने उनके कान में कहा कि स्वामीजी काफी समय हो गया। डाक्टर ने आपको मना किया है। स्वामीजी ने ब्रह्मचारी की बात सुनकर वार्तालाप को वहीं समाप्त कर दिया। वह खड़े हुए और सबका नमस्ते द्वारा अभिवादन कर ब्रह्मचारी के साथ अपनी कुटियां के अन्दर चले गये।

स्वामीजी से भेंट के बाद एक ब्रह्मचारी के मार्गदर्शन में हमनें श्री रामदास सेवक जी के साथ वानप्रस्थ साधक आश्रम की बहुमंजिली भव्य यज्ञशाला का अवलोकन किया। इस भव्य भवन में नीचे से ऊपर व ऊपर से नीचे जाने के लिए लिफ्ट लगी हुई है। इस यज्ञशाला व भवन को हम State of the art वा आधुनिक तकनीक व सुविधाओं से युक्त भवन कह सकते हैं। इस पूरे भवन का भ्रमण कराने से पूर्व हमें दूसरी मंजिल पर ले जाकर आश्रम की गतिविधियों से सम्बन्धित एक चलचित्र दिखाया गया जो बहुत ही अच्छा व प्रभावशाली बना हुआ है। एक प्रकार से यह इस प्रयोजन को पूरा करने के लिए छोटे सिनेमाघर का सा स्थान बनाया गया है। चलचित्र देखने के बाद हम एक-एक कर सभी मंजिलों पर गये और वहां विशद जानकारी से युक्त प्रदर्शनियों सहित सूचना पटो व चित्रों को देखा। इस भव्य भवन का पूरा अवलोकन करने के बाद आश्रम को अपनी सेवायें देने वाले प्रौढ़ सेवाभावी बन्धु श्री गिरीश जी हमें मिले और उन्होंने हमें आश्रम के विभिन्न प्रकल्पों व प्रमुख स्थानों को वहां-वहां ले जाकर बताया और परिसर का भ्रमण कराते हुए एक भव्य एवं विशाल हाल तक ले गये जहां आश्रम द्वारा आयोजित शिविर आदि लगते हैं। इस भवन के बेसमेन्ट में आश्रम द्वारा प्रकाशित सभी पुस्तकों को प्रदर्शित किया गया है। हमने अपनी आवश्यकता की पुस्तकें और महर्षि दयानन्द जी के कुछ चित्र लिये और गिरीश जी के साथ आश्रम के कार्यालय में आये। वहां इन पुस्तकों को पैक कर हमें दिया गया है। हमने पुस्तकों का दाम पूछा तो श्री अशोक जी ने श्री गिरीश जी से मंत्रणा की और हमें इसे निःशुल्क देने की बात कही। हमें यह सुनकर आश्चर्य हुआ और अवर्णनीय प्रसन्नता हुई। ऐसा तो कभी कहीं किसी आर्यसंस्था में होता नहीं देखा। यह समस्त साहित्य लगभग एक हजार रुपये मूल्य का था। अतः हमने आग्रहपूर्वक अपनी सामथ्र्यानुसार आश्रम को कुछ धनराशि दान की। इस प्रकार हमारा वानप्रस्थ साधक आश्रम का भ्रमण प्रवास लगभग पूरा हो गया।

हमने ब्रह्मचारी जनक जी को दर्शन योग महाविद्यालय जाने की अपनी इच्छा व्यक्त की थी। कार्यालय का काम समाप्त कर हम भोजनशाला गये और भोजन किया। वहां से ब्रह्मचारी जी ने हमें दर्शनयोग महाविद्यालय का पगदण्डी वाला मार्ग दिखाया। हम वहां से चले और 10-15 मिनट में ही दर्शन योग महाविद्यालय के कार्यालय में पहुंच गये। कार्यालय के सेवाभावी प्रबन्धकों ने हमारा स्वागत किया। हमें चाय भी पिलाई। वहां उपस्थित कुछ अन्य ऋषि भक्तों से बहुत सौहार्दपूर्ण बातें हुई। इसके बाद कार्यालय प्रमुख श्री वेलाणी जी हमें आश्रम की गाड़ी में वहां से कुछ दूरी पर एक निर्माणाधीन भवन तक ले गये। भवन लगभग बनकर तैयार था जिसमें एक कन्या गुरुकुल खोला जाना प्रस्तावित था। अन्तिम सफाई आदि का कार्य चल रहा था। उन्होंने बताया कि अप्रैल, 2016 में इसका उद्घाटन होगा जिसमें पधारने के लिए उन्होंने हमें भी आमंत्रित किया। कन्या गुरुकुल के इस सुन्दर व विशाल परिसर वाले भवन का आपने हमें भ्रमण कराया और उससे सम्बन्धित विस्तृत जानकारियां दीं। यह भव्य भवन सभी आधुनिक सुविधाओं से सुसज्जित है। शिक्षिकाओं व छात्राओं का परस्पर अच्छी प्रकार से सम्पर्क व संवाद आदि रहे, इन व अन्य अनेक बातों को ध्यान में रखकर भवन का निर्माण कराया गया है। वहां से लौटते हुए मार्ग में गोशाला आदि भी देखी। पुनः कार्यालय आये। हमने रसीदें कटाईं और स्वामी विवेकानन्द परिव्राजक जी से मिलने का निवेदन किया। लगभग 3.00 बजे का समय उन्होंने सूचित किया। श्री वेलाणी जी और कार्यालय के अन्य लोगों को कहीं जाना था, अतः वह चले गये। नई जगह होने के कारण हमें समय व्यतीत करना कठिन हुआ तो हम पुनः वानप्रस्थ आश्रम आ गये और अहमदाबाद जाकर जोधपुर की रेलगाड़ी पकड़ने के लिए तैयारी आरम्भ की। तभी दर्शनयोग महाविद्यालय से फोन आया कि स्वामी विवेकानन्द जी से मिल सकते हैं। दूरी, समय की उपलब्धता, आयु व शारीरिक स्थिति के कारण हम वहां न जा सके, इसका हमें खेद है व सदा रहेगा। अपने कमरे से कार्यालय जाकर अशोक जी को अपने प्रस्थान के बारे में बताया। उन्होंने अपना एक व्यक्ति हमें दो पहिया वाहन से बस अड़डे तक छोड़ आने के लिए दिया। कुछ देर प्रतीक्षा के बाद बस आ गई जिससे हम लगभग दो-ढ़ाई घण्टे बाद अहमदाबाद रेलवे स्टेशन पहुंच गये और वहां से अगले दिन 10 मार्च, 2016 को प्रातः जोधपुर पहुंच आ गये।

10 मार्च, 2016 को हम जोधपुर में अपने बहनोई के यहां गये। दिन में अपनी जोधपुर में रहने वाली भांजी के परिवार में गये और अपरान्ह महर्षि दयानन्द स्मृति न्यास, जोधपुर गये जहां जोधपुर प्रवास काल में महर्षि दयानन्द रहते थे। इसी स्थान पर उनको विष दिया गया था। कुछ वर्ष पूर्व यहां एक भव्य व विशाल यज्ञशाला का निर्माण आरम्भ किया गया था जो हमारे वहां जाने पर अपने अन्तिम चरण में था। वहां उपस्थित अधिकारियों ने प्रेमपूर्वक व्यवहार व सत्कार किया। जिस कक्ष व हाल में स्वामीजी रहते वा सोते थे, उसे इन दिनों मार्च, 2016 में विवाह आदि कराने के लए सशुल्क लोगों को दिया जाता था। कुछ लोग वहां कुछ पौराणिक मिथ्या-परम्पराओं का निर्वाह भी करते थे। इसे देखकर हमें दुःख हुआ। वहां उपस्थित अधिकारियों ने हमें बताया कि निर्माण कार्य में धन की आवश्यकता के लिए ही उस पवित्र स्थान को किराये पर दिया जाता है। यज्ञशाला का निर्माण हो जाने के बाद ऋषि दयानन्द के जोधपुर निवास वाले स्थान को विवाहार्थ उत्सवों आदि के लिए किराये पर देना बन्द कर दिया जायेगा। जोधपुर में हम अपने अन्य कुछ सम्बन्धियों से भी मिले। 11 मार्च की प्रातः हमें जोधपुर से देहरादून के लिए रेलगाड़ी से प्रस्थान करना था। अतः हम यथासमय चलकर अगले दिन 12 मार्च की प्रातः सहारनपुर पहुंचे और वहां से बस से 2 घंटे बाद देहरादून लौट आये। इस प्रकार हमारी टंकारा, रोजड़ और जोधपुर की यात्रा पूरी हुई जो रोचक व अनुभवों से पूर्ण थी। इसी के साथ लेखनी को विराम देते हैं।

मनमोहन कुमार आर्य