धर्म-संस्कृति-अध्यात्म

वेद और सत्यार्थप्रकाश मनुष्य जीवन की इहलोक व लोकोत्तर सम्पत्ति

ओ३म्

 

मनुष्य में अज्ञान को हटा कर ज्ञान प्राप्ति करने वाला मन सहित एक प्रमुख बुद्धि तत्व होता है जिससे वह किसी विषय का अपने मन से चिन्तन, विचार व मनन आदि करके अपनी बुद्धि से अपने कर्तव्य व अकर्तव्य का निश्चय करता है। मनन करने के लिए भी उसे शिक्षा की आवश्यकता होती है। यदि वह अपढ़ व अशिक्षित है तो वह भली प्रकार से मनन नहीं कर सकता जिससे वह सत्य व असत्य अथवा कर्तव्य व अकर्तव्य को बोध व ज्ञान प्राप्त नहीं कर सकता। वेदों का व्याकरण, पाणिनी अष्टाध्यायी-महाभाष्य-निरुक्त, को पढ़कर ही वेदों को जाना व समझा जा सकता है। इसमें अध्येता को वेद को यथार्थ स्वरुप से जानने वाले आचार्यों की भी आवश्यकता होती है। यदि अच्छे आचार्य मिल जायें तो एक साधारण मनुष्य भी उनसे व्याकरण पढ़कर वेद ज्ञान को प्राप्त कर सकता है। वेद का सबसे अधिक महत्व इस कारण से है कि वेद ईश्वर प्रदत्त ज्ञान है जो सृष्टि के आरम्भ में ईश्वर ने चार ऋषियों अग्नि, वायु, आदित्य और अंगिरा को दिया था। ईश्वर निराकार एवं सर्वव्यापक है तब वह मनुष्य को एक आचार्य की भांति ज्ञान कैसे दे सकता है? क्योंकि आचार्य बोलता है और शिष्य सुनकर व उसको समझ कर उसे आत्मसात करता है। ईश्वर के निराकार होने से उसके पास मुख व अन्य भौतिक इन्द्रियां नहीं है। अतः शिष्य को यह ज्ञान कैसे मिल सकता है? इसका उत्तर है कि ईश्वर सर्वान्तर्यामी होने से जीवात्मा के भीतर भी हर पल व हर क्षण प्रविष्ट व उपस्थित है। मनुष्य व आचार्य जब बोलता है तो उसका मुख आत्मा की प्रेरणा से ही शब्दोच्चारण कर बोलता है। बोलने में मुख्य कारण आत्मा की मुख आदि इन्द्रिय को प्रेरणा होती है। मुख से बोले गये शब्द को दूसरा मनुष्य अपने कानों से सुन कर उसे दूसरे व्यक्ति की आत्मा तक पहुंचाता है। इसका अर्थ यह होता है कि एक जीवात्मा को दूसरी जीवात्मा को अपनी प्रेरणा पहुंचाने में मुख व कर्णेन्द्रियों की आवश्यकता होती है। कारण पर विचार करने से ज्ञात होता है कि दोनों मनुष्यों की जीवात्मायें अलग-अलग होने के कारण ही बोल व सुन कर ज्ञान प्राप्त किया जाता है। अब किसी पुस्तक का उदाहरण लेकर देखें तो पुस्तक बोलती नहीं और हम कानों से सुनते नहीं। कान बन्द कर व बिना बोले व सुने भी पुस्तक का ज्ञान हमें सुलभ होता है। यह पुस्तकीय ज्ञान प्राप्त करने के लिए वाणी के बोलने व सुनने की किंचित आवश्यकता नहीं है। गर्भवती माता का गर्भस्थ शिशु भी माता के बिना बोले व शिशु बिना सुने अपनी माता व पिता के संस्कारों को ग्रहण करता है। उसके हाव-भाव व व्यवहार में अपने माता-पिता के अनुरुप गुणों का उत्पन्न होना यह बताता है कि उपासना व संगति से अपने से अधिक गुणों वाली सत्ता का प्रभाव इतर जीवात्म पर होता है। इसी प्रकार ईश्वर सर्वव्यापक और सर्वान्तर्यामी होने से जीवात्मा के भीतर ही आत्मा को प्रेरणा कर ज्ञान दे देता है। ऐसा करके ही ईश्वर ने सृष्टि के आरम्भ में चार आदि-आरम्भिक ऋषियों को ज्ञान दिया था जिसे उन ऋषि ने अपनी मुखादि इन्द्रियों द्वारा अन्य मनुष्यों में प्रचार किया जिससे आज तक वह ज्ञान प्रचारित होता हुआ हमें प्राप्त है। संसार के रचयिता सृष्टिकर्ता और हमारे जन्मदाता ईश्वर द्वारा प्रदत्त होने के कारण वेद ज्ञान ही हमारा सबसे अधिक हितकारी ज्ञान है जबकि इतर ज्ञान अल्पज्ञ, एकदेशी व ससीम जीवात्मा द्वारा प्राप्त होने से उसमें नाना कारणों की त्रुटियां व न्यूनताओं सहित सत्य व असत्य दोनों का समावेश होता है। अतः वेद ज्ञान संसार के सभी मनुष्यों के लिए श्रद्धापूर्वक ग्रहण व धारण करने योग्य हैं, तभी जीवात्मा वा मनुष्य का  कल्याण हो सकता है।

 

ज्ञान सांसारिक व अन्य सभी जड़-चेतन पदार्थों के सत्य व असत्य स्वरूपों व व्यवहारों को यथावत जानने को कहते हैं। सत्य को सत्य और असत्य को असत्य जानना ही ज्ञान है। सत्य में प्रीति व उसके लिए जो भी पुरुषार्थ अपेक्षित हो, उसे करना ही मनुष्य का धर्म व कर्तव्य है और असत्य को जानकर उसका त्याग करना व उससे होने वाले किसी भी प्रकार के भौतिक लाभ की उपेक्षा करना व उससे दूर रहना व द्वेष करना ही मनुष्यों का कर्तव्य व धर्म है। सभी विषयों का सत्य ज्ञान प्राप्त करने का साधन व उपाय ईश्वर प्रदत्त चार वेद हैं जिनके मुख्य विषय ज्ञान, कर्म व उपासना हैं। वेदों का अध्ययन करने पर ज्ञात होता है कि संसार में दो प्रकार की विद्यायें व ज्ञान हैं। एक परा विद्या और दूसरी अपरा विद्या। परा विद्या से ईश्वर व जीवात्मा को जानकर ईश्वर की स्तुति, प्रार्थना व उपासना कर उसे प्राप्त करना होता है अर्थात् अपने दुर्गुण, दुव्र्यस्नों और दुःखों को छोड़कर ईश्वर के सान्निध्य से श्रेष्ठ गुण, कर्म, स्वभाव, सुख व पदार्थों को प्राप्त करना होता है। स्तुति में ईश्वर के सत्य गुणों का वर्णन कर गुण-कीर्तन वा स्तुति की जाती है, प्रार्थना में ईश्वर से श्रेष्ठ बुद्धि, वेदों का ज्ञान, ऐश्वर्य व सुख आदि की प्राथर््ना की जाती है। उपासना ईश्वर के सर्वव्यापक व सर्वान्तर्यामी स्वरूप को जानकर उसके गुणों का ध्यान करते हुए उसमें स्वयं को एकाकार व एकाग्र कर देने को कहते हैं। इस ध्यान व आत्मा-परमात्मा के योग व जुड़ने से ईश्वर के गुणों का प्रभाव जीवात्मा पर पड़ता है जिससे आत्मा शुद्ध व पवित्र होकर ईश्वर के ज्ञान व आनन्द से युक्त हो जाता है। इसे जान लेने पर जीवात्मा का भावी जीवन बुरे व असत्य कर्मों से छूट कर श्रेष्ठ कार्यों को करने में व्यतीत होने लगता है। यह ध्यान रखना चाहिये की ईश्वर की उपासना का अर्थ इतर कर्मों व कर्तव्यों की उपेक्षा नहीं है। वेदाध्ययन और ईश्वर की उपासना करते हुए भी शेष समय में मनुष्य को अपने माता-पिता, आचार्यों व अतिथियों सहित देश व समाज के प्रति अपने सभी आवश्यक कर्तव्यों का पालन करना होता है। इसके साथ ही आजीविका हेतु भी कुछ कार्य करने होते हैं जो अपरा विद्या के अन्तर्गत आते हैं। वैदिक साहित्य को देखें तो ज्ञात होता है कि आजीविका हेतु ज्ञान का प्रचार व प्रसार, यज्ञ करना व करवाना, दान देना व लेना, कृषि, गोपालन व वाणिज्य से संबंधित कार्यों को करना, देश की सुरक्षा, रक्षा, अन्याय पीढ़ितों के प्रति न्याय, इन कार्यों में लगे लोगों की सेवा व सहायता करना आदि नाना प्रकार के कार्य होते थे। आज भी यह कार्य लोग करते ही हैं परन्तु समय के साथ-साथ इसका अत्यन्त विस्तार हुआ है। इन कार्यों में बहुत से अच्छे भी है और बहुत से अच्छे नहीं भी हैं। जिन कार्यों को करने से हमारे आध्यात्मिक जीवन में बाधा आती हो, उन्हें सोच-विचार कर नियंत्रित करना चाहिये। इस प्रकार से वेदों का अध्ययन कर उनके ज्ञान के अनुसार कर्तव्यों का पालन कर जीवन को स्वस्थ, सुखी एवं अभ्युदय व निःश्रेयस को प्राप्त करने वाला बनाया जा सकता है।

 

समय के साथ साथ संस्कृत भाषा के प्रचलन व वेदों के यथार्थ ज्ञान में बाधायें उत्पन्न हुईं। लोगों वेदों के यथार्थ स्वरूप को भूलकर अविद्या में फंस गये और अविद्याग्रस्त होकर अच्छे कामों को न कर अहितकर कार्यों को करने लगे। इसका परिणाम बौद्धिक, सामाजिक व शारीरिक पतन के रूप में सामने आया। मुण्डे मुण्डे मतिर्भिन्ना’ के अनुसार नय- नये मत स्थापित होने लगे परन्तु इन सबमें अविद्या होने के कारण इनसे मनुष्य जाति का उपकार होने के स्थान पर नाना प्रकार से हानि ही हुई है। इस अविद्या के कारण ही कुछ लोगों ने दूसरों को गुलाम बनाया और दूसरे अविद्या के कारण ही गुलाम बन गये। समाज में अनेक मिथ्या विश्वास, नवीन मिथ्या परम्परायें, कुरीतियां व सामाजिक असमानतायें भी उत्पन्न हुईं। अवतारवाद का मिथ्या सिद्धान्त और फलित ज्योतिष आदि भी अविद्या के कारण ही अस्तित्व में आये। ऋषि दयानन्द (1825-1883) ने 14 वर्ष व उसके बाद घटी कुछ घटनाओं के कारण सत्य की खोज को अपने जीवन का उद्देश्य बनाया और इसी के परिणामस्वरुव वह सच्चे योगी और वेदों के उत्कृष्ट व ऋषि कोटि के विद्वान बने। अपने गुरु प्रज्ञाचक्षु दण्डी स्वामी विरजानन्द सरस्वती की प्रेरणा से उन्होंने संसार से असत्य व मिथ्या ज्ञान अर्थात् अविद्या को दूर करने का संकल्प किया और उसके प्रचार-प्रसार में डट गये। सत्य के मण्डन और असत्य के खण्डन में सहायक उन्होंने वैदिक मान्यताओं का एक उत्तम ग्रन्थ सत्यार्थ प्रकाश” का सन् 1875 में निर्माण किया। इसका संशोधित संस्करण 30 अक्तूबर, सन् 1883 को उनकी मृत्यु के बाद सन् 1884 में प्रकाशित हुआ। वैदिक साहित्य में यही एक ऐसा ग्रन्थ है जिसमें सभी वेदों व वैदिक साहित्य का मानव जीवन उत्थान व पतन विरोधी लगभग सम्पूर्ण ज्ञान मनुष्यों की बोलचाल की भाषा सरल हिन्दी में दिया गया है। इस ग्रन्थ में 14 समुल्लास हैं जिनमें ईश्वर के सत्य स्वरूप व उसके 100 नामों की व्याख्या से लेकर सन्तान का जन्म, माता-पिता के कर्तव्य, बालकों की शिक्षा, विवाह, गृहस्थ जीवन के कर्तव्य, वानप्रस्थ व संन्यास आश्रम का स्वरूप व उनसे जुड़े विषय, वेद सम्मत राजधर्म व शासन के संचालन विषयक जानकारी, जीवात्मा, परमात्मा का स्वरूप, वेद सम्बन्धी विषय, मुक्ति व मोक्ष का सप्रमाण वर्णन, आर्यावर्तीय मत-मतान्तरों का वर्णन व उनका खण्डन-मण्डन व अन्तिम 3 समुल्लासों में नास्तिक चारवाक, बौद्ध व जैन मत समीक्षा और उसके पश्चात ईसाई मत तथा कुरआन की समीक्षा व परीक्षा की गई है। हम इसे वेद की भांति जनकल्याण की भावना से बनाया गया ऋषि दयानन्द निर्मित एक सर्वांगपूर्ण धर्मग्रन्थ ही कह सकते हैं। संस्कारविधि, ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका, आर्याभिविनय, पंचमहायज्ञविधि, व्यवहारभानु स्वामी दयानन्द ही प्रणीत सत्यार्थ प्रकाश के पूरक ग्रन्थ हैं। इन सबमें वैदिक सत्य सिद्धान्तों का प्रतिपादन किया गया है। वेदों का पूर्णता से अध्ययन सभी मनुष्यों के बस की बात नहीं है परन्तु सत्यार्थप्रकाश ग्रन्थ को सभी मनुष्य पढ़ सकते हैं और इसके अनुसार अपना जीवन व्यतीत कर सत्य धर्म के पालन से होने वाले लाभों से लाभान्वित हो सकते हैं। इससे ग्रन्थ से मिलने वाली प्रेरणा से मनुष्य धर्म, अर्थ, काम व मोक्ष की प्राप्ति कर सकता है। यही जीवन के चरम लक्ष्य भी हैं। हम यह अनुभव करते हैं कि मनुष्य जीवन को धर्म-अर्थ-काम-मोक्ष को प्राप्त कराने में केवल वेद और सत्यार्थप्रकाश व इसके पूरक ग्रन्थ ही समक्ष व समर्थ हैं।

 

अतः वेद और सत्यार्थ सभी मनुष्यों की इह लोक और लोकोत्तर जीवन की महनीय सम्पत्ति है। सभी मनुष्यों को वेद और सत्यार्थप्रकाश की शरण में आकर अपने जीवन को सफल बनाना चाहिये। इति।

 

मनमोहन कुमार आर्य