राजनीति

चाय पर चर्चा -2

एक चाय की दूकान पर कुछ गाँव वालों और एक पत्रकार के बीच राजनितिक बहस छिड़ी है । अब आगे……………

” भ्रष्टाचार ही सारी बुराइयों की जड़ है । भ्रष्टाचार की वजह से ही महंगाई का भी बोलबाला है । आप लोगों को भ्रष्टाचार के खिलाफ लड़ाई में मोदीजी का हाथ मजबूत करना चाहिए । ” अजय भरसक समझाने का प्रयत्न कर रहा था ।

रामू थोडा शांत प्रतीत हो रहा था । बोला ” अरे बेटा ! हम सबने दिल खोल कर मोदीजी की बात पर बी जे पी को जिताया था । हम खुद अपना पहचानवाले और गाँव गढ़ी के और हित नात जितना भी आदमी हमको मिला सबको बोल बोल के मोदी को वोट दिलवाया ।
अब जब उ लोग कहता है ‘ भैया इ का हो रहा है मोदीजी के राज में ?  हम दू सौ रूपया किलो दाल कब तक खरीदूंगा ? ‘ तब हमरी का गति होती है तुमको का पता ? और कहते हो हाथ मजबूत करने को । और कितना मजबूत करें ? पूरे अकेले के दम पर बहुमत है और का चाहिए ? अब भैया हम तो एक ही बात जानते हैं कि नाच न जाने आँगन टेढ़ा । ”

अब तो अजय भी असहाय महसूस कर रहा था । बोला ” काका ! आपको दाल की पड़ी है । अपने देश के सम्मान की कोई चिंता नहीं है ? मोदीजी पूरी दुनिया में घूम कर भारत का सम्मान बढ़ा रहे हैं ……”

रामू बीच में टपक पड़े ” हाँ बेटा !तुम ठीक कह रहे हो लेकिन उ का है न की हम भी कभी कभी टी वि में समाचार देख लेते हैं । उ मोदीजी जो बाहर जाके बोले थे की 2014 से पहले भारत में पैदा होने पर शरम लगती थी उससे तो भारत वासियों का सीना चौड़ा हो गया होगा ? अगर तुमको मोदीजी की इस बात से भारत का सम्मान बढ़ता दिख रहा है तो इ सोच तुम ही को मुबारक । हम और हमारे जैसा करोड़ों गरीब लोग अपने देश के खिलाफ एक शब्द भी नहीं सुन सकते । फिर वो चाहे मोदी बोलें चाहे कोई और । हमको तो भारत में पैदा होने पर गर्व है । दू साल पहले तुमको शर्म आती थी का भारत में पैदा होने पर ? ”

रामू काका फिर से खासे उत्तेजित हो गए थे । साँसे तेज तेज चलने लगी थीं ।

बड़ी देर से खामोश हरीश ने अब मोर्चा संभाला ” अजय बाबू ! जाओ ! लगता है कहीं कौनो काम से जा रहे थे । हम लोग तो बेकार ठहरे । आपस में बात चीत करके मन की भड़ास निकाल रहे थे । हम लोग कौनो मोदीजी की बुराई थोड़ो न कर रहे हैं । ”

अजय की हिम्मत थोड़ी बढ़ गयी थी । ज्ञान देने वाले अंदाज में बोला ” नहीं हरीश भैया ! काका कुछ समझ ही नहीं रहे हैं । खाली मोदीजी की बुराई ही इनके दिमाग में भरी हुई है । तुम तो शहर में रहे हो । सब जानते ही होगे कि दाल की महंगाई के पीछे विरोधियों का हाथ है । राज्य सरकारें कालाबाजारियों के खिलाफ कुछ करती नहीं हैं इसीलिए दालों की कीमतें काबू से बाहर हैं । अब इसमें बेचारे मोदीजी क्या करेंगे ?

बड़ी देर से खामोश कलुआ से आखीर नहीं रहा गया । फट ही पड़ा ” बहुत खूब बेटा ! मोदी भक्ति में पगला गए हो का ? अगर दाल की महंगाई के पीछे विरोधी सरकारों का हाथ है तो आधे से अधिक भारत में जहाँ जहाँ बी जे पी की सरकार है वहाँ वहाँ मोदीजी दालों के दाम क्यों नहीं कम करा देते ? ”

अजय क्या कहता ? पैदावार कम हुई यह तो सभी जानते है फिर सरकारें किस मर्ज की दवा हैं ? कम उत्पादित जीवनावश्यक वस्तुओं का आयात करके सस्ते दरों पर वितरण करके जनता को राहत पहुँचाया जा सकता था । जनता को उसके हाल पर छोड़ देना क्या सरकार का पलायनवादी रवैया नहीं है ?

यही सब अजय मन में सोच रहा था और इन देहातियों की पीड़ा भी अब उसके समझ में आ रही थी । दाल वाली समस्या के लिए अब उसे भी सरकार की विफलता समझ में आ गयी थी लेकिन अभी भी उसकी नजर में मोदी सरकार बहुत से मोर्चों पर बहुत अच्छा कर रही थी ।

अजय ने सहमति में सर हिलाते हुए कहा ” रामू काका ! बात तो आप लोग सही कहे हो । अगर बी जे पी अपने राज्यों में दाल के भाव पर अंकुश लगाने में कामयाब हो जाती तो एक मिसाल देश के लोगों के सामने होता और विरोधी खुद ही बेनकाब हो जाते । लेकिन एक विफलता से सरकार के कामकाज और उसकी नियत पर सवाल नहीं खडा करना चाहिए ।

चीन और पकिस्तान भी अब मोदीजी से खौफ खाते हैं । सीमा पर पाकिस्तानी गोलियों का जवाब अब हमारे जवान गोलों से देते हैं । ”

क्रमशः

*राजकुमार कांदु

मुंबई के नजदीक मेरी रिहाइश । लेखन मेरे अंतर्मन की फरमाइश ।

8 thoughts on “चाय पर चर्चा -2

  • लीला तिवानी

    प्रिय राजकुमार भाई जी, लेखनी अति धारदार, विषय समसामयिक और यथार्थ, भाषा-शैली अति सुंदर व सटीक यानी कुल मिलाकर त्रिवेणी का संगम हो गया. एक सटीक एवं सार्थक रचना के लिए आभार.

    • राजकुमार कांदु

      श्रद्धेय बहनजी ! विषय थोडा विवादित है सो लिखने में थोडा संकोच अवश्य था लेकिन सच लिखने में कैसा डर ? यही सोचकर ही लिख सका । अब आपकी उत्साहवर्धक प्रतिक्रिया से सत्य लिखने का संबल मिला है । सटीक सार्थक व उत्साहवर्धक प्रतिक्रिया के लिए आपका धन्यवाद ।

      • लीला तिवानी

        प्रिय राजकुमार भाई जी, विषय भले ही विवादित हो, पर दुराग्रह या पूर्वाग्रह से अलग होकर मर्यादित रूप से यथार्थ लिखना अच्छा लगा.

      • लीला तिवानी

        प्रिय राजकुमार भाई जी, विषय भले ही विवादित हो, पर दुराग्रह या पूर्वाग्रह से अलग होकर मर्यादित रूप से यथार्थ लिखना अच्छा लगा.

  • गुरमेल सिंह भमरा लंदन

    लेख अच्छा लगा राजकुमार भाई . गरीब आदमी हर देश में मुसीबतों से सामना करता है .मह्न्घाई यहाँ भी बहुत है .देखने में तो लगता है, लोग गाड़ी ले कर घुमते हैं, मज़े कर रहे हैं लेकिन ऐसा नहीं है . जब से मैंने होश संभाला है, मह्न्घाई की बातें सुनता चला आ रहा हूँ .मनोज कुमार की फिल्म का गाना, ” मह्न्घाई है मह्न्घाई है, मुठी में पैसे ले कर जाते थे, थैला भर शक्कर लाते थे, अब थैले में पैसे जाते हैं, मुठी में शक्र आती है “, कितना समय इस फिल्म को हो गिया,मुझे तो ऐसा लगता है, समय के साथ साथ हम अपनी जरूरतों को भी बड़ा रहे हैं, अब हर कोई माबाइल लिए बातें करता जाता है, बाइसिकल छोड़ सकूटर लिए घुमते हैनं, सकूटर वाले कार लेने लगे हैं, घरों में एक दुसरे को देख कर हम अपने खर्चे बढ़ाते चले जाते हैं . अगर हम back to basics आ जाएँ तो बहुत बोझ कम किया जा सकता है लेकिन ऐसा हो नहीं पाता .हमारे गाँव में बिजली १९५८ में ई थी, इस से पहले हम लालटेन की रौशनी में पड़ते थे, किया हम ने अपने एग्जाम पास नहीं कीये? हमारे मोहल्ले में दो ही इलैक्ट्रिक रेडिओ थे साइकल भी आम लोगों के पास नहीं थे, बहुत घरों में तो मट्टी के तेल का दिया जलाते थे . गरीबी उस समय भी थी लेकिन लोगों की ज्रुरीआत कम थी .यह मह्न्घाई कभी नहीं जायेगी क्योंकि समय के साथ साथ हम भी अपने खर्चे बढ़ाते चले जा रहे हैं .

  • गुरमेल सिंह भमरा लंदन

    लेख अच्छा लगा राजकुमार भाई . गरीब आदमी हर देश में मुसीबतों से सामना करता है .मह्न्घाई यहाँ भी बहुत है .देखने में तो लगता है, लोग गाड़ी ले कर घुमते हैं, मज़े कर रहे हैं लेकिन ऐसा नहीं है . जब से मैंने होश संभाला है, मह्न्घाई की बातें सुनता चला आ रहा हूँ .मनोज कुमार की फिल्म का गाना, ” मह्न्घाई है मह्न्घाई है, मुठी में पैसे ले कर जाते थे, थैला भर शक्कर लाते थे, अब थैले में पैसे जाते हैं, मुठी में शक्र आती है “, कितना समय इस फिल्म को हो गिया,मुझे तो ऐसा लगता है, समय के साथ साथ हम अपनी जरूरतों को भी बड़ा रहे हैं, अब हर कोई माबाइल लिए बातें करता जाता है, बाइसिकल छोड़ सकूटर लिए घुमते हैनं, सकूटर वाले कार लेने लगे हैं, घरों में एक दुसरे को देख कर हम अपने खर्चे बढ़ाते चले जाते हैं . अगर हम back to basics आ जाएँ तो बहुत बोझ कम किया जा सकता है लेकिन ऐसा हो नहीं पाता .हमारे गाँव में बिजली १९५८ में ई थी, इस से पहले हम लालटेन की रौशनी में पड़ते थे, किया हम ने अपने एग्जाम पास नहीं कीये? हमारे मोहल्ले में दो ही इलैक्ट्रिक रेडिओ थे साइकल भी आम लोगों के पास नहीं थे, बहुत घरों में तो मट्टी के तेल का दिया जलाते थे . गरीबी उस समय भी थी लेकिन लोगों की ज्रुरीआत कम थी .यह मह्न्घाई कभी नहीं जायेगी क्योंकि समय के साथ साथ हम भी अपने खर्चे बढ़ाते चले जा रहे हैं .

    • राजकुमार कांदु

      जी आदरणीय भाईजी ! आपकी बात से पूरी तरह सहमत हूँ । विगत वर्षों में पुरे विश्व में तरक्की हुयी और हमारा हिंदुस्तान सभी क्षेत्र में प्रगति के पथ पर अग्रसर है । इंसानी जरूरतें अमर्यादित हैं जबकि सहूलियतें मर्यादित । आज हम जिन चीजों के बिना जीने की कल्पना भी नहीं कर सकते हमारे पुरखों ने उनकी कल्पना भी नहीं की थी । उपभोग का भुगतान तो करना ही पड़ेगा । और यही इंसानी समस्या की सबसे बड़ी वजह है । उत्साहवर्धक और सार्थक प्रतिक्रिया के लिए ह्रदय से आभार ।

    • राजकुमार कांदु

      जी आदरणीय भाईजी ! आपकी बात से पूरी तरह सहमत हूँ । विगत वर्षों में पुरे विश्व में तरक्की हुयी और हमारा हिंदुस्तान सभी क्षेत्र में प्रगति के पथ पर अग्रसर है । इंसानी जरूरतें अमर्यादित हैं जबकि सहूलियतें मर्यादित । आज हम जिन चीजों के बिना जीने की कल्पना भी नहीं कर सकते हमारे पुरखों ने उनकी कल्पना भी नहीं की थी । उपभोग का भुगतान तो करना ही पड़ेगा । और यही इंसानी समस्या की सबसे बड़ी वजह है । उत्साहवर्धक और सार्थक प्रतिक्रिया के लिए ह्रदय से आभार ।

Comments are closed.