सामाजिक

हिन्दी दिवस और आर्यसमाज

ओ३म्

आज हिन्दी दिवस है। आज के ही दिन सन् 1949 में हमारी संविधान सभा ने हिन्दी को देश की राजभाषा बनाने का सर्वसम्मति से निर्णय लिया था। हिन्दी भारत के सभी प्रान्तों में बोली व समझी जाने वाली देश की सबसे अधिक प्रचलित भाषा है। हिन्दी ऐसी भाषा है जिसे भारतीय व विदेशी बहुत कम समय में सीख सकते हैं। इसकी लिपी देवनागरी है जो संस्कृत की भी लिपी है। यह लिपी संसार में सर्वोत्कृष्ट भाषा-लिपी है। इसमें जो बोला जाता है वही लिखा जाता है और वही समझा जाता है। संसार की प्राचीनतम भाषा एकमात्र संस्कृत रही है। अनेक भाषाओं के शब्द कोषों को यदि ध्यान से देखा जाये तो उनमें बहुत से शब्द संस्कृत भाषा के ही रूपान्तर हैं। संस्कृत में माता को मातृ कहते हैं। अन्य भाषाओं मदर, अम्मा आदि व पितृ के लिए पिता, पीटर, फादर आदि संस्कृत शब्दों के ही रूपान्तर हैं। अज्ञान मनुष्यों को आपस में बांटता है और ज्ञान अज्ञान से उत्पन्न दूरियों को समाप्त कर लोगों को परस्पर जोड़ने का काम करता है। आज संसार में परस्पर व्यवहार करने संबंधी ज्ञान बढ़ रहा है जिससे लोग आपस में निकट आ रहे व परस्पर जुड़ रहे हैं। हम अनुमान करते हैं कि एक समय ऐसा आ सकता है कि जब सभी लोगों को इस बात का ज्ञान हो जायेगा कि संसार में जो मत-मतान्तर प्रचलित हैं वह सब अनावश्यक व अप्रसांगिक हैं और मनुष्यों के बीच दूरी पैदा करके उन्हें आपस में बांटने व लड़ाने का काम करते हैं। ऐसी स्थिति आने पर तर्क व युक्तियों से सिद्ध सर्वसम्मत मत को ही धर्म स्वीकार किया जायेगा और सत्य अर्थात् सत्य मान्यतायें ही संसार का एक मात्र धर्म होगीं। इसके लिए हमें जीवन के प्रत्येक व्यवहार में सत्य का व्यवहार करने के लिए तर्क व युक्तियों का सहारा लेना होगा और तर्क व युक्तियों के आधार पर संसार की सबसे प्राचीनतम पुस्तक वेद की भी परीक्षा करनी होगी। यदि वेद की सभी बातें सत्य हैं तो फिर उन्हें स्वीकार करने में झिझक व आपत्ति क्यों? जिस बात से सारे संसार के मनुष्यों को लाभ हो सकता है उसे स्वीकार क्यों न किया जाये? आज विज्ञान की तरह ‘‘सत्य बनाम् असत्य” का एक धर्म आन्दोलन देश-विदेश के सत्य प्रेमी प्रमुख बुद्धिजीवियों के नेतृत्व में समूचे विश्व में चलना चाहिये। मनुष्य जीवन के हर व्यवहार व कार्य की सत्य व असत्य के परिप्रेक्ष्य में समीक्षा की जानी चाहिये और सत्य को सर्वत्र समस्त संसार में सभी मनुष्यों द्वारा प्रतिष्ठित व स्वीकार करना चाहिये।

आज देश में हिन्दी दिवस मनाया जा रहा है। आज के दिन हमारी संविधान सभा ने हिन्दी को राजभाषा का दर्जा तो दे दिया गया था परन्तु किन्हीं बड़े राजनीतिक लोगों की अज्ञानता व स्वार्थों सहित कुछ अन्य कारणों से हिन्दी को उसका उचित स्थान प्राप्त न हो सका। भारत के लोगों ने इजराइल जैसे छोटे से देश से ही शिक्षा ले ली होती तो आज हिन्दी सम्पूर्ण भारत में राजभाषा के पद पर गौरवान्वित हो सकती थी। देश का दुर्भाग्य है कि यहां लोगों ने अपने अपने धर्म व मत के अनुसार धर्म पुस्तकों की भाषाओं को अधिक महत्व दिया जिससे देश में जो एकात्मता उत्पन्न होनी थी वह न हो सकी। एक प्रकार से इसे भाषा-फूट कह सकते हैं जिसका लाभ हमारे देश के लोगों को तो नही मिला अपितु भारत विरोधी विदेशियों ने ही इसका लाभ उठाया व अब भी उठा रहे हैं। हमारे देश के नेताओं के गलत निर्णयों के कारण भी समस्यायें उत्पन्न होती है जिसका कुपरिणाम सारे देश को भोगना होता है। नेता तो कुछ वर्ष सत्ता का सुख भोग कर परलोक पहुंच जाते हैं परन्तु वह देश के लिए हमेशा व सुदीर्घकाल तक के लिए समस्यायें पैदा कर जाते हैं। ऐसे ही कुछ कारणों से हिन्दी अपने स्थान से दूर से दूर होती जा रही है। नयी युवा पीढ़ी भी आजकल के नेताओं के झांसों में ही फंसी रहती है। उसे अपने कैरियर व भविष्य की चिन्ता अधिक होती है तथा राष्ट्रीय स्तर की समस्याओं में दिलचस्पी कम ही होती है। देशवासियों में अपनी जाति, वर्ग व समुदाय से ऊपर उठ कर सोचने व कार्य करने की प्रवृत्ति कम ही दीखती है। इसके कुपरिणाम सामने आते रहते हैं। यदि यह प्रवृत्तियां समाप्त न हुई, तो देश को इसकी भारी कीमत चुकानी होगी जिसका लाभ देश के शत्रुओं व विदेशी शक्तियों को होगा जो देश को कमजोर करना व कमजोर देखना चाहती हैं।

स्वामी दयानन्द (1825-1883) जन्म से गुजराती थे। उनकी मातृ भाषा गुजराती थी। उनका अध्ययन संस्कृत भाषा में हुआ था। संस्कृत के वह देश के सर्वोच्च विद्वान थे और धारा प्रवाह सरल संस्कृत में सम्भाषण करते थे। वेदों सहित धर्म व संस्कृति संबंधी उनका ज्ञान भी उच्च कोटि का था व प्रमाणिक था। देश के हित में उन्होंने उस ज्ञान का प्रचार कर लोगों को उसे जानने, समझने व अपनाने का आवाहान् किया। अपने उच्च कोटि के ज्ञान से उन्होंने जाना कि वेद सब सत्य विद्याओं की पुस्तक हैं। वेदों में धर्म व सामाजिक व्यवहार का जो स्वरूप उपलब्ध होता है वह सर्वोत्तम होने से संसार के सभी लोगों को मान्य व ग्राह्य होना चाहिये। उनके समय में भारत सहित समस्त विश्व अज्ञान व अन्धविश्वासों में आकण्ठ डूबा हुआ था। आज भी प्रायः डूबा हुआ है। उनके प्रयासों और जीवन में तर्क व युक्ति को महत्व देने के कारण कुछ सुधार अवश्य हुआ है परन्तु अभी बहुत आगे जाना शेष है। वेद की शिक्षाओं को उन्होंने मानव धर्म की संज्ञा दी और कहा कि यह न केवल हिन्दू व आर्यों के लिए ही श्रेयस्कर हैं अपितु संसार के सभी लोगों को इनकी परीक्षा कर श्रेष्ठता के आधार पर इन्हें अपनाना चाहिये। इनको अपनाकर ही मनुष्य अपने जीवन के लक्ष्य धर्म, अर्थ, काम व मोक्ष को प्राप्त कर सकता है।

स्वामी दयानन्द जी ने हिन्दी के महत्व को जाना व समझा था। इसी कारण ब्राह्म समाज के नेता श्री केशव चन्द्र सेन द्वारा सुझाव देने पर उन्होंने अपने भाषणों में इसे अपनाया और इसके बाद आर्यों की भाषा हिन्दी ही उनके व्याख्यानों, वार्तालाप और ग्रन्थों के प्रणयन की भाषा बन गई जिसका लाभ इस देश को यह हुआ कि साधारण कोटि का अक्षर ज्ञान रखने वाला व्यक्ति भी उनकी पुस्तकें सत्यार्थप्रकाश आदि को पढ़कर धर्म ज्ञान का ज्ञाता व वक्ता बन गया। स्वामी दयानन्द जी ने हिन्दी के प्रचार व प्रसार के लिए अथक कार्य किया। अंग्रेज सरकार द्वारा राजभाषा की संस्तुति के लिए स्थापित हण्टर कमीशन स्थापित करने पर उन्होंने देश भर में हिन्दी के पक्ष में एक प्रभावशाली आन्दोलन चलाया और देश भर के लोगों के हस्ताक्षर कराकर कमीशन को ज्ञापन सौंपे जिसमें हिन्दी को राज भाषा घोषित करने की मांग की गई थी। महर्षि दयानन्द जी अपने सभी व्याख्यान हिन्दी में ही देते थे, वार्तालाप भी मुख्यतः हिन्दी में करते थे अथवा विद्वानों के साथ संस्कृत में वार्तालाप करते थे, उन्होंने सत्यार्थप्रकाश, ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका, यजुर्वेद-ऋग्वेद वेदभाष्य, संस्कारविधि एवं अन्य अनेक ग्रन्थ हिन्दी में ही लिखे व प्रकाशित किये। स्वामी दयानन्द जी का समस्त पत्रव्यवहार भी हिन्दी में हुआ जो सम्प्रति चार भागों में उपलब्ध है। पंजाब के लोगों ने एक बारएक सभा में उनसे उनके ग्रन्थों का उर्दू में अनुवाद कराने का निवेदन किया तो हिन्दी व देवनागरी अक्षरों के प्रचार प्रसार में बाधा के कारण उन्होंने अनुमति नहीं दी और कहा कि जिन्हें उनके व उनके ग्रन्थों के प्रति श्रद्धा व प्रेम होगा व जो लोग वैदिक धर्म को वस्तुतः जानना चाहते हैं उन्हें इसके लिए हिन्दी को ही सीखना चाहिये। स्वामी जी ने आर्यसमाज की स्थापना कर उसका समस्त कार्य हिन्दी में ही करने का निर्देश किया। आर्यसमाज का विधान व नियम आदि सभी हिन्दी में बनाकर प्रकाशित किये। जहां विशेष कारणों से वह संस्कृत में लिखते थे तो साथ में उसका हिन्दी अनुवाद व आशय भी अवश्य देते थे जिससे हिन्दी भाषी लोग उससे परिचित रह सकें। आर्यसमाज ने विगत लगभग 140 वर्षों में जो प्रभूत साहित्य लिखा व प्रचार किया वह 95 प्रतिशत हिन्दी भाषा में ही है। आर्यसमाजी विद्वानों ने हिन्दी को न केवल गद्य साहित्य से ही समृद्ध किया अपितु पद्य साहित्य भी प्रचुर मात्रा में सृजित किया जिसमें संस्कृत व हिन्दी शब्दों की ही प्रचुरता है और जो प्रायः भाषा प्रदूषण से रहित है। आर्यसमाजों में सभी विद्वान, साप्ताहिक सत्संग हो या कोई उत्सव आदि, हिन्दी भाषा में ही प्रवचन करते हैं। यह बात अन्य धार्मिक संस्थाओं में नहीं है। हिन्दी के प्रचार प्रसार में ऋषि दयानन्द और आर्यसमाज की स्थापना के बाद आर्यसमाज के विद्वानों व साहित्यकारों सहित गुरुकुलों और दयानन्द ऐंग्लों-वैदिक कालिजों की भी महत्वपूर्ण भूमिका है। आज हिन्दी की जो भी स्थिति है उसमें आर्यसमाज की सर्वोपरि भूमिका है। यदि आर्यसमाज न होता और हिन्दी को न अपनाता तो आज हिन्दी की यह सुदृण स्थिति न होती। अतः हिन्दी दिवस मनाना आर्यसमाज की नीतियों व कार्यों के प्रति आभार व्यक्त करने का भी अवसर है और इसके साथ हिन्दी को उसका उचित स्थान दिलाने की दृष्टि से उसके प्रति अपने संकल्प को व्यक्त करने का पर्व है।

आज हिन्दी दिवस पर हम दिवंगत व जीवित सभी हिन्दी प्रेमियों को स्मरण कर उनको नमन करते हैं। ऋषि दयानन्द के वाक्य कि दयानन्द की आंखे वह दिन देखना चाहती है कि जब कश्मीर से कन्याकुमारी और अटक से कटक तक हिन्दी भाषा और देवनागरी अक्षरों का प्रचार हो, लेख को विराम देते हैं।

मनमोहन कुमार आर्य