उपन्यास अंश

नई चेतना भाग –८

नारायण की बातों से अमर को थोड़ी राहत महसूस हुयी । वैसे ही जैसे डूबते को तिनके का सहारा मिल गया हो । अमर अचानक उठ खड़ा हुआ।

“चलो नारायण जी ! मेनेजर के पास चलें । देर करना मुनासिब नहीं है । शायद वहीं से कुछ पता चल जाये । हमें अपनी पूरी कोशिश करनी चाहिए । ” नारायण से मुखातिब होते हुए अमर बोल उठा । अमर के उठते ही नारायण ने भी तत्परता दिखाते हुए तुरंत ही अपनी गन्दी सी कमीज और पतलून पहनी और निकल कर बाहर आ गया ।

तख्ते नुमा दरवाजे पर छोटा सा ताला लगाने के बाद दोनों मिल की तरफ बढ़ रहे थे । इन गलियों और यहाँ की गंदगी का अभ्यस्त नारायण आगे आगे चल रहा था और अमर उसीका अनुसरण करते उसके पीछे पीछे चल रहा था । मुख्य सड़क पर आकर अमर की गति आश्चर्यजनक रूप से बढ़ गयी । वह तेजी से आगे आगे चलने लगा जबकि नारायण काफी पिछे छूट गया था । अमर जल्द से जल्द मेनेजर से मिलकर सरजू के गाँव का पता लगा लेना चाहता था ताकि समय रहते वहाँ पहुंचकर धनिया को सरजू के चंगुल से बचा सके ।

सड़क पर अँधेरे का साम्राज्य फैला हुआ था लेकिन अब अमर की आँखें इन अंधेरों की अभ्यस्त हो गयी थीं । इतना ही नहीं अब उसके नथुने भी यहाँ की सड़ांध से जुगलबंदी कर रहे थे। शीघ्र ही दोनों मेनेजर की ऑफिस के सामने जा पहुंचे । अमर ऑफिस के दरवाजे के बाहर ही ठिठक कर खड़ा हो गया था। ऑफिस का दरवाजा खुला हुआ था । नारायण के नजदीक आते ही उसका इंतजार किये बिना ही अमर ऑफिस में दाखिल हो गया । ऑफिस में सन्नाटा पसरा हुआ था । मेनेजर की कुर्सी खाली पड़ी हुयी थी जबकि उसके करीब ही एक शख्स एक दुसरे टेबल के पीछे कुर्सी पर बैठा हुआ था ।

अमर को देखते ही उसने उसकी तरफ सवालिया नज़रों से देखा । मुंह में पान की पीक भरी होने से इशारे में ही पूछना उसकी मज़बूरी भी थी । अभी उसका आशय समझकर अमर कुछ कहता की नारायण भी ऑफिस में दाखिल हो गया । नारायण ने उस शख्स को देखते ही सलाम किया और उनसे मेनेजर के बारे में पुछा । उसने इशारे से ही नारायण को बताया कि मेनेजर अब उनसे सुबह आठ बजे के बाद ही मिलेंगे । किसी काम से बाहर गए हुए हैं ।

नारायण तुरंत ही ऑफिस से बाहर आ गया जबकि अमर ने अभी हार नहीं मानी थी । नारायण के पीछे पीछे अमर भी ऑफिस के कमरे से बाहर तो आ गया लेकिन अपनी कोशिश जारी रखी । नारायण से बोला ” नारायणजी ! हमें सरजू के घर का पता ही तो चाहिए उसके लिए मेनेजर की क्या जरुरत है ? इतना काम तो वो जो आदमी ऑफिस में बैठा है वही कर सकता है । आप उससे एक बार बोल कर देखिये तो सही । ”

नारायण ने उसे बताया कि वह शख्स जो कुर्सी पर बैठा है लल्लन मिसिर बहुत ही दुष्ट और खडूस प्रवृत्ति का व्यक्ति है । वह सिर्फ मेनेजर साहब के आदेश पर ही कोई काम करता है । मिल मालिकों से उसकी कोई दूर की रिश्तेदारी है इसीलिए मेनेजर साहब भी उसको झेलने के लिए बाध्य हैं लेकिन मेनेजर साहब बहुत ही भले आदमी हैं ।

अमर के निवेदन पर नारायण फिर एक बार ऑफिस में जाकर लल्लन मिसिर से सरजू के बारे में पूछताछ करने के लिए राजी हो गया । नारायण ऑफिस में दाखिल हुआ और साथ ही पीछे पीछे अमर भी । दोनों को पुनः देखकर लल्लन ने वहीँ बैठे बैठे नजदीक ही खिड़की से पान की पीक पिच्च से बाहर दे मारी और उलटे हाथों से अपना मुंह साफ़ करते हुए नारायण पर चीख पड़ा “नारायण ! तुमसे कहा न मेनेजर साहब कल सुबह मिलेंगे । फिर वापस क्यूँ आ गया ? ”

नारायण की घिग्घी बंध गयी थी । दोनों हाथ जोड़ते हुए गिडगिडाने के से स्वर में वह बोल पड़ा  ” साहब ! हमको माफ़ कर दीजिये । काम ही इतना जरुरी था की हमको आपको फिर से तकलीफ देना पड़ा।”

“ठीक है बको ! क्या बकना चाहते हो ? ” कुर्सी से उठकर मेज पर बैठते हुए लल्लन ने नारायण पर मेहरबानी करने वाले अंदाज में कहा ।

नारायण ने होशियारी दिखाते हुए लल्लन को कुछ अलग ही बताया ” वो साहब ! सरजू नामका एक कर्मचारी आपकी मिल में चपरासी का काम करता है । अभी-अभी पता चला है कि वह कोई लड़की भगा ले गया है जो की इन बाबूसाहब के गाँव की है । और सरजू तो सुबह ही हमसे मिला था और बता रहा था क़ि वह आज गाँव जायेगा । इसका मतलब ये हुआ कि उसकी पहले से ही उस लड़की को भगा ले जाने की योजना रही होगी । ”

अभी नारायण कुछ और कहता कि लल्लन मिसिर बिच में ही टपक पड़े “तो फिर यहाँ क्यों आये हो ? थाने में जाके रपट लिखाओ । ”

” नहीं नहीं साहब ! वो क्या है कि लड़की का मामला है न  । थाने जाकर हमें समाज में अपनी बेइज्जती नहीं करानी। आपकी बड़ी मेहरबानी होगी साहब ! बस आप हमें उसका पता बता दो । रजिस्टर में उसका पूरा पता नाम वगैरह सब अवश्य दर्ज होगा । साहब ! आपसे हाथ जोड़ कर विनती है हमारी मदद करो साहब ! लड़की का मामला है मतलब हमारी इज्जत का मामला है।” अबकी नारायण गिडगिडा ही पड़ा था ।
अमर को कुछ समझ में नहीं आ रहा था । कभी नारायण को तो कभी लल्लन मिसिर को देख रहा था । उसे लल्लन मिसिर पर गुस्सा भी बहुत आ रहा था । उसकी संवेदनहीनता अमर को खल रही थी लेकिन मौके की नजाकत को समझते हुए सब्र रखे हुए था ।

लल्लन मिसिर अचानक उठे और कमरे में एक तरफ पड़े फाइलों के ढेर में कुछ तलाश करने लगे । उठते हुए नारायण को बाहर जाने का नसीहत देना नहीं भूले । उसकी बात मानकर अमर और नारायण दोनों बाहर आकर खड़े हो गए थे। बाहर ऑफिस के सामने एक बल्ब टिमटिमा रहा था जो चारों ओर फैले घनघोर अँधेरे से दो दो हाथ करता प्रतीत हो रहा था । हलकी सर्दी शुरू हो चुकी थी । अमर ने नारायण की तरफ देखा और बोलने लगा “आपको क्या लगता है यह लल्लन जी हमारी मदद करेंगे । मुझे तो शक हो रहा है । ”

” अब हम और कर भी क्या सकते हैं अमर बाबू ? विनती करने के सीवा हमारे पास और चारा भी क्या है ? ” नारायण ने अमर को समझाने वाले अंदाज में बताया ।

इन सारी बातों के बीच अमर के दिल में हर वक्त धनिया ही समायी हुयी थी । उसका दिमाग उससे बार बार चीख चीख कर कह रहा था कि आखिर बाबू काका को अचानक धनिया के शादी की इतनी जल्दी क्यों होने लगी ? और फिर धनिया इतनी जल्दी शादी के लिए कैसे मान गयी ? मेरा तनिक भी इंतजार नहीं किया । वह कोई गाय भैंस तो नहीं जिसे चाहे जिसके खूंटे से बाँध दिया ? अगर वह समय से सरजू के गाँव तक नहीं पहुँच पाया तो ? पहुँचने के बाद भी अगर बाबू काका और धनिया ने उसकी बात नहीं मानी तो ? ऐसे ही अनगिनत सवालों से उसका मन मस्तिष्क जूझ रहा था । जबकि ऊपर से वह काफी शांत दिख रहा था ।

थोड़ी देर तक दोनों बाहर खड़े रहे । थोड़ी देर बाद ही लल्लन जी ने नारायण को पुकारा । नारायण तुरंत ही अन्दर गया । पीछे पीछे अमर भी पहुंचा । अन्दर एक टेबल के पीछे कुर्सी पर बैठा लल्लन मिसिर चश्मा लगाये एक फाइल में उलझा हुआ था । पान चबाते चश्मा निकालते हुए लल्लन मिसिर नारायण से मुखातिब हुए ” हाँ ! तो क्या नाम था उस आदमी का जो लड़की लेकर भागा है ? ”

” सरजू ! ” बीना एक पल भी गंवाए नारायण चट से बोल उठा ।

” अच्छा ! तो सरजू है उसका नाम । हम तो कलुआ चपरासी समझ बैठे थे । ये ससुरा सरजुआ तो शकल से ही हरामी लगता है । छोड़ना नहीं स्साले को । ”  कहते हुए मिसिरजी दुसरी फाइल निकालने लगे । फाइल खोलते हुए उसमें कुछ पढ़ने लगे। एक कागज़ पर कुछ लिखते हुए नारायण से बोले ” मैं सरजू का पूरा पता साफ़ साफ़ लिख रहा हूँ । यह पड़ोस के शहर के नजदीक ही एक गाँव का पता है । ”   एक कागज़ नारायण की तरफ बढ़ाते हुए बोले ” यह लो कागज । इसमें उसका पता साफ साफ़ लिखा हुआ है । रात ग्यारह बजे की ट्रेन है जो तड़के उसके शहर पहुँच जाती है । चाहो तो अभी ही जा सकते हो ।”

उम्मीद के विपरीत लल्लन जी तो नारायण को पूरा ही सहयोग कर रहे थे । अमर लल्लन के बदलते रंग को देखकर सोच रहा था कहीं यह उसके लिए शुभ संकेत तो नहीं । नारायण लल्लन से वह कागज लेकर उसे सलाम कर ऑफिस से बाहर आ गया ।

बाहर आकर अमर ने अपनी घडी देखी । रात के नौ बज रहे थे और लल्लन ने रात ग्यारह बजे की गाडी बताई थी यानि अभी भी लगभग दो घंटे का समय बाकी था । अमर सोच रहा था ‘ यह गाड़ी पकड़ने के लिए अभी ही निकलना पडेगा क्योंकि रेलवे स्टेशन शहर के दुसरे छोर पर था । वहाँ तक पहुँचाने के लिए रिक्शेवाला भी आधा घंटा समय खा जायेगा और फिर टिकट वगैरह भी तो लेना है । थोडा समय पहले ही पहुंचना ठीक होता है । अब कोई लापरवाही नहीं होनी चाहिए । ‘

नारायण के साथ चलते हुए अमर फिर उसी बस्ती के नजदीक आ पहुंचा । नारायण को बस्ती में जानेवाली कच्ची सड़क पर छोडकर अमर एक बार फिर बढ़ गया था अपनी धनिया की ओर। सड़क सुनसान थी । अमर अब और इंतजार नहीं करना चाहता था । पैदल ही रेलवे स्टेशन की तरफ चल दिया।

(क्रमशः)

*राजकुमार कांदु

मुंबई के नजदीक मेरी रिहाइश । लेखन मेरे अंतर्मन की फरमाइश ।