धर्म-संस्कृति-अध्यात्म

जन्म व मृत्यु ईश्वरीय सृष्टि के अटल नियम

ओ३म्

आज संसार में लगभग 7 अरब व उससे भी अधिक मनुष्य हैं। प्रत्येक क्षण सैकड़ों लोग संसार में मृत्यु को प्राप्त हो रहे हैं और जितने मरते हैं उससे कहीं अधिक जन्म भी लेते हैं। जन्म का परिणाम मृत्यु होता है और मृत्यु का परिणाम जन्म होना निश्चित है। जन्म होने पर जड़ व भौतिक पदार्थों से बना शरीर प्राप्त होता है परन्तु इसमें एक चेतन तत्व जीवात्मा विद्यमान है जो कि अभौतिक व अविनाशी पदार्थ है। वृद्धावस्था एवं अन्य कुछ अवस्थाओं में इससे पूर्व भी मृत्यु होने पर यह जीवात्मा शरीर से निकल कर आकाश व वायु में चला जाता है व उसमें रहता है। कोई भी मनुष्य अनेकानेक विपरीत परिस्थितियों में मरना नहीं चाहता। मृत्यु के समय संसार की एक अदृश्य सत्ता व शक्ति उसे बलपूर्वक शरीर से निकालती है। उसे तो ईसाई हो या इस्लाम, हिन्दू हों या यहूदी, पारसी, बौद्ध, जैन व सिख आदि सभी को स्वीकार करना ही पड़ता है। शरीर से आत्मा को पृथक कर संसार में मनुष्य व अन्य योनियों में जो नये बच्चे जन्म लेते हैं, उनमें उन आत्माओं को जन्म देने वाली शक्ति का नाम ही ईश्वर है। ईश्वर व जीवात्मा के अन्य भाषाओं में पृथक-पृथक नाम हैं व हो सकते हैं। इसमें किसी को कोई आपत्ति नहीं हो सकती। ईश्वर और उसकी सृष्टि का बहुत अनोखा नियम है कि किसी भी मनुष्य को यह पता नहीं होता कि उसका कितना जीवन शेष है अर्थात् उसकी मृत्यु कब होनी है। इसकी मीमांसा करने पर विद्वान इस निष्कर्ष पर पहुंचते हैं कि यदि किसी मनुष्य को अपनी मृत्यु की तिथि व समय ज्ञात होता तो उसका जीवन दूभर हो जाता। वह मृत्यु की चिन्ता में ही डूबा रहता और संसार में वह मृत्यु को भुलाकर या उसे भूल कर जो शुभ-अशुभ व पुण्य-पाप कर्म करता है, वह न कर पाता। हमने देखा है कि जब भी किसी मनुष्य पर कोई रोग या मुसीबत आती है तो वह उसके भावी परिणामों की चिन्ता करने लगता है जिसमें मृत्यु का दुःख व पीड़ा भी होती है। जब वह मृत्यु को भुला रहता है तो किंचित सुखी रहता है और जब उसे वहयाद आ जाती है तो उसका चित्त खिन्नता व क्षोभ से भर जाता है। यह भी आश्चर्य है कि हम सब मनुष्यों की एक न एक दिन मृत्यु अवश्य होनी है फिर भी सभी मनुष्य मृत्यु को जानने व उससे बचने तथा मृत्यु के दुःख पर विजय पाने का प्रयास नहीं करते।

मृत्यु का कारण शरीर की नश्वरता है। सृष्टि का यह नियम है कि जिस पदार्थ की उत्पत्ति होती है उसका विनाश भी अवश्य ही होता है। संसार में हम जिस भी चीज को बनाते हैं, बनने व तैयार होने के साथ उल्टी गिनती आरम्भ हो जाती है। सरकारी नियमों के अनुसार तो भोजन व दवाओं पर ‘एक्सपायरी डेट’ व ‘बैस्ट यूज बिफोर’ भी अंकित करने का प्रचलन है। यह इसी नियम के अनुसार है कि बनने वाली प्रत्येक वस्तु समय के साथ पुरानी होकर नाश व विकार को प्राप्त होती है। ऐसा ही मनुष्य शरीर है जो कि भौतिक पदार्थों से बना है, विनाशी है और इसमें ईश्वरीय व ईश्वर के बनाये प्राकृतिक नियमों के अनुसार उत्पत्ति, वृद्धि, स्थिरता व ह्रास की अवस्थायें आकर इसका एक दिन विनाश होना अवश्यम्भावी है। संसार के सभी महापुरुष, अवतार नामधारी पुरुष, ईश्वर के पुत्र व सन्देश वाहक किंवा ऋषि, मुनि, सज्जन व दुर्जन कोई इस नियम से बचे नहीं हैं। मृत्यु की निश्चितता और उसके बाद जन्म होने के कारण ही साक्षात्कर्मा ऋषियों ने वेदों के आधार पर यह विधान किया है कि मनुष्य को शुभ कर्म करने चाहिये, अशुभ कर्म कदापि किसी को करना उचित नहीं। अशुभ कर्मों का फल इस जन्म में भी दुःख होता है और परजन्म में योनि परिर्वतन होकर इस जन्म में भोगे सुखों की तुलना से भी कहीं अधिक दुःखदायी होता है। इस सत्य सिद्धान्त को अज्ञान व अविद्या के कारण न मानने वाले मनुष्य भी इन नियमों से बच नहीं पाते और अन्धे मनुष्य के कुवें में गिरने के समान दुःख के सागर में डूबते व दुःखी होते हैं। आग में हाथ डालने पर हाथ जलेगा, पीड़़ा होगी, अतः कोई भी अपना हाथ जानबूझकर आग में नहीं डालता परन्तु पाप कर्मों का परिणाम आग की तरह मनुष्य को जलायेगा, इस ज्ञान व विद्या के अभाव में मनुष्य स्वार्थ, राग, द्वेष व मोह आदि दुर्गुणों में फंस कर दुःखदायी कामों को करके इच्छापूर्ति होने पर खुश होते हैं। समाज में जो मनुष्य अभावग्रस्त होते हैं वह भी पदार्थों की उपलब्धता से कम परन्तु अपने अज्ञान व अविद्या के कारण अधिक दुःखी होते हैं। अतः आवश्यकता है कि स्कूली लाभकारी शिक्षा व विज्ञान की भांति संसार में कर्म-फल सिद्धान्तों पर सभी मतों के विद्वानों को एक मत व एक राय वाला होना चाहिये और इसका पाठ संसार के सभी स्कूल व कालेजों में एक समान रूप से पढ़ाया जाना चाहिये जिससे संसार में पाप कर्म कम होकर सुखों में वृद्धि हो। इसी उद्देश्य की पूर्ति के लिए महर्षि दयानन्द ने अपने जीवन के सभी सुखों का त्याग कर सत्य वैदिक नियमों वा धर्म का प्रचार व प्रसार किया था। लोगों ने उनके प्रचार पर कान नहीं धरे और मताचार्यों ने अपने स्वार्थों को आगे रखा, जिसका परिणाम आज की स्थिति है। यह स्थिति शीघ्रातिशीघ्र बदलनी चाहिये अन्यथा इससे हानि समस्त मानवजाति की ही होनी है।

जब अपने परिवार व अन्य किसी प्रिय व्यक्ति की मृत्यु होती तो मनुष्य के मन में वैराग्य भाव उत्पन्न होते हैं। इसका कारण यह प्रतीत होता है कि कभी पूर्वजन्मों में हम भी इसी प्रकार से मृत्यु को प्राप्त हुए हैं व हमारे पूर्व पूर्वजन्मों में अनेक प्रिय सम्बन्धी भी इसी प्रकार मृत्यु को प्राप्त होते रहे जिनके संस्कार हमारे चित्त पर अंकित हैं।  इन्हीं संस्कारों के प्रभाव से वैराग्य की भावना हमें मृत्यु के भय से बचने के लिए सावधान करती है। ऋषि दयानन्द ने भी कुमारावस्था में जब अपनी बहिन व चाचा की मृत्यु देखी व इससे लगभग दो हजार वर्ष पूर्व महात्मा बुद्ध जी ने वृद्ध, रोगी और मृतक की घटनायें देखीं, तो वह भी भय व वैराग्य को प्राप्त हुए थे। इन घटनाओं से इन महापुरुषों ने शिक्षा लेकर अपने जीवन की दिशा व दशा बदल दी थी। हम व अन्य सांसारिक लोगों के चित्त पर अविद्या के संस्कार इतने प्रगाढ़ हैं कि हम ऐसे विषयों पर विचार ही नहीं करते। इसके पीछे यह भी कारण है कि संसार के सभी लोग किसी न किसी मत के अनुयायी होते हैं। वहां उनके जो मताचार्य हैं, वह ईश्वर, जीवात्मा, जन्म-मृत्यु व पाप-पुण्य को लेकर मिथ्या मान्यताओं व अविद्या से गहराई से ग्रसित हैं। उनके स्वार्थ भी सत्य को स्वीकार करने में बाधक हैं। एक बात यह भी है कि संसार में परा व अपरा दो विद्यायें हैं। हमारे सभी मनुष्य व वैज्ञानिक अपरा विद्या के अधिकारी विद्वान हैं परन्तु वह परा विद्या के ज्ञान से सर्वथा शून्य हैं। जिस प्रकार एक इंजीनियर किसी गम्भीर रूग्ण व्यक्ति की चिकित्सा नहीं कर सकता और एक डाक्टर एक इंजीनियर के काम नहीं कर सकता, इसी प्रकार एक अपरा विद्या का विद्वान परा विद्या अर्थात् आत्मा व परमात्मा के ज्ञान के बारे में नहीं जान सकता व बता सकता। इसके लिए उसे परा विद्या की योग्य गुरुओं से शिक्षा लेनी होगी, अध्ययन करने के साथ चिन्तन व मनन भी करना होगा तभी वह आध्यात्मिक विषयों को समझ व जान सकता है। जन्म व मृत्यु का विषय भी कुछ परा व कुछ अपरा विद्या दोनों से युक्त है। शरीर भौतिक पदार्थों से ईश्वर के विधान के अनुसार उत्पन्न होता है परन्तु जीवात्मा अभौतिक होने के कारण उत्पन्न नहीं होती अपितु यह मनुष्य व अन्य प्राणियों के शरीरों से निकल कर ही दूसरे शरीरों में आती व जाती है। परा विद्या का अध्येता इस तथ्य व रहस्य को भली भांति जानता है परन्तु भौतिकविद् और मत-मतान्तरों के पूर्वाग्रहों से ग्रसित विद्वान अपनी अविद्या व स्वार्थों को छोड़े बिना इसे नहीं जान सकते।

महर्षि दयानन्द परा व आध्यात्म विद्या के मर्मज्ञ एवं पारद्रष्टा विद्वान थे। उन्होंने ईश्वर का स्वरूप वर्णन करते हुए लिखा है कि ‘ईश्वर सच्चिदानन्दस्वरूप, निराकार, सर्वशक्तिमान्, न्यायकारी, दयालु, अजन्मा, अनन्त, निर्विकार, अनादि, अनुपम, सर्वाधार, सर्वेश्वर, सर्वव्यापक, सर्वान्तर्यामी, अजर, अमर, अभय, नित्य, पवित्र और सृष्टिकर्त्ता है। उसी की उपासना करनी योग्य है।’ इससे पूर्व उन्होंने आर्यसमाज के नियमों में एक महत्वपूर्ण वैज्ञानिक तथ्य यह बताया गया है कि सब सत्य विद्या और जो पदार्थ विद्या से जाने जाते हैं, उन सबका आदिमूल परमेश्वर है। इसके अतिरिक्त ईश्वर इस संसार का पालन कर्ता व प्रलयकर्ता है। वह सभी जीवात्माओं के जन्म-जन्मान्तरों के कर्मो के फल, क्रियमाण, संचित व प्रारब्ध के अनुसार फल वा भोग के अनुसार उन्हें मनुष्यादि भिन्न भिन्न योनियों में जन्म देता हैं। जन्म लेने वाली सभी जीवों की कालान्तर में मृत्यु होती है। जीवों के सुख व कल्याण के लिए ही उसने इस संसार या ब्रह्माण्ड की रचना की है। हम नहीं समझते कि संसार का कोई व्यक्ति ईश्वर विषयक इस मान्यता व सिद्धान्त का प्रतिवाद कर सकता हो परन्तु यह भी तथ्य है कि संसार के सभी लोग इसे सिद्धान्ततः स्वीकार नहीं करते। हमारी आत्मा का स्वरूप भी वैदिक मान्यताओं के अनुसार ‘सत्य, चेतन, एक देशी, जन्म-मरण धर्मा, ससीम, अनादि, अनुत्पन्न, अजर, अमर, नित्य, कर्म करने में स्वतन्त्र और फल भोगने में ईश्वर की व्यवस्था में परतन्त्र आदि है। मनुष्य रूपी जन्म पाने पर अपने पूर्व कर्मों भोग करते हुए ईश्वर व जीवात्मा के स्वरूप जानकर तथा ईश्वरोपासना व विद्याध्ययन कर मोक्ष की प्राप्ति करना ही प्रत्येक जीवात्मा का अन्तिम उद्देश्य है। जब तक जीवात्मा मोक्ष प्राप्त नहीं करेगा, आत्मा कर्मानुसार भिन्न-भिन्न योनियों में भ्रमण करता रहेगा और सुख-दुःख भोगता रहेगा। जीवन जीने का सही मार्ग उपनिषदों, दर्शन और वेद आदि ग्रन्थों सहित सत्यार्थप्रकाश, ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका, संस्कारविधि, आर्याभिविनय आदि को पढ़कर भी जाना जा सकता है। इससे अन्य कोई मार्ग संसार में नहीं है। केवल मात्र धनोपार्जन कर भौतिक सुखों की प्राप्ति जीवन का उद्देश्य नहीं है। जीवन में आध्यात्म व भौतिक सुख का सन्तुलन रखना आवश्यक है। आजीविका के सभी साधनों का पूर्ण पवित्र होने के साथ वेद विद्या के शिक्षण, प्रचार-प्रसार आदि में दान आदि से सहयोग देना भी आवश्यक है। स्वाध्याय एक ऐसा गुण है जिससे मनुष्य जीवन में सही मार्गदर्शन और सुख प्राप्त करता है। न केवल अपना अपितु औरों का भी गार्ग दर्शन कर सकता है। वैदिक साहित्य के अध्ययन व स्वाध्याय से रहित जीवन एकांगी, किंचित दोषपूर्ण एवं परिणाम में हानिकर होता व हो सकता है। अतः जीवन को सही प्रकार से व्यतीत करने के लिए विवेक ज्ञान का होना परमावश्यक है जो स्वाध्याय और ईश्वरोपासना आदि कार्यों से ही प्राप्त होता है।

लेख को विराम देने से पूर्व हम यह निवेदन करना चाहते हैं कि कालान्तर में हम सबकी मृत्यु होगी, यह कटु सत्य है। इसे हमें भुलाना नहीं है अपितु इसके उपाय के लिए सत्यार्थप्रकाश आदि सद्ग्रन्थों का नित्य बारम्बार स्वाध्याय व अध्ययन कर प्रत्येक विषय में दक्षता प्राप्त करनी है। ऐसा करने से हमारे इस जन्म व परजन्म का सुधार व उन्नति होगी। ईश्वर को जानने व उपासना से हम साधारण लोगों की तुलना में मृत्यु के भय व दुःख से कुछ व अधिक दूर होकर बच सकते हैं। मृत्यु किसी की किसी भी समय हो सकती है, इसे जानकर अपने सभी आवश्यक कामों को शीघ्रता से पूरा करना चाहिये। यदि कोई छूट गया तो फिर उसे पूरा करने अवसर मिलेगा या नहीं, यह इ ईश्वर पर निर्भर है।

मनमोहन कुमार आर्य