ग़ज़ल
ठहरी हुई नदी में न कंकड़ गिराइए
मुद्दत के बाद सोया है जल मत जगाइए
देखेगा आईना तो वो सब भूल जाएगा
माजी के जख्म याद उसे मत दिलाइए
दे देंगे जान आपकी ख्वाहिश पे एक दिन
करके हमें इशारा कभी तो बुलाइए
नफरत की आंधियां न बुझा पायेंगी उसे
अपने लहू से एक दीया तो जलाइए
गहरी बहुत है झील न आंखों में झांकिए
लहरें उठें तो ‘शान्त’ वहीं बैठ जाइए
— देवकी नन्दन ‘शान्त’